क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-866
ज़ोमर आयतें 38-41
وَلَئِنْ سَأَلْتَهُمْ مَنْ خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ لَيَقُولُنَّ اللَّهُ قُلْ أَفَرَأَيْتُمْ مَا تَدْعُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ إِنْ أَرَادَنِيَ اللَّهُ بِضُرٍّ هَلْ هُنَّ كَاشِفَاتُ ضُرِّهِ أَوْ أَرَادَنِي بِرَحْمَةٍ هَلْ هُنَّ مُمْسِكَاتُ رَحْمَتِهِ قُلْ حَسْبِيَ اللَّهُ عَلَيْهِ يَتَوَكَّلُ الْمُتَوَكِّلُونَ (38)
इस आयत का अनुवाद हैः
और (ऐ रसूल) अगर तुम इनसे पूछो कि सारे आसमान व ज़मीन को किसने पैदा किया तो ये लोग यक़ीनन कहेंगे कि ख़ुदा ने, तुम कह दो कि तो क्या तुमने ग़ौर किया है कि ख़ुदा को छोड़ कर जिन लोगों की तुम इबादत करते हो अगर ख़ुदा मुझे कोई तक़लीफ़ पहुँचाना चाहे तो क्या वे लोग उसके नुक़सान को (मुझसे) रोक सकते हैं या अगर ख़ुदा मुझ पर मेहरबानी करना चाहे तो क्या वे लोग उसकी मेहरबानी रोक सकते हैं (ऐ रसूल) तुम कहो कि ख़ुदा मेरे लिए काफ़ी है उसी पर भरोसा करने वाले भरोसा करते हैं। [39:38]
पिछली आयतों के आगे जो हिदायत पाने वाले और गुमराह लोगों के बारे में थी, यह आयत एक महत्वपूर्ण विषय का ज़िक्र करती है। आयत कहती है कि अनेकेश्वरवादी यह बात मानते थे कि पैदा करने वाला अल्लाह है, उसी ने कायनात और इंसान को पैदा किया है लेकिन उन्हें यह लगता था कि दूसरे इंसानों या वस्तुओं का उनकी तक़दीर में रोल है मानो अल्लाह ने दुनिया की रचना करने के बाद इंसानों से जुड़े मामलों का संचालन इन्हीं कुछ इंसानों या वस्तुओं के सिपुर्द कर दिया है और दुनिया के मामलों के संचालन से ख़ुद को अलग कर लिया है।
उस ज़माने में और आज के दौर में उन चीज़ों की इबादत करते हैं और पुकारते हैं जिनके पास न तो कोई क्षमता है कि इंसान को नुक़सान से बचा सकें और न ही इंसानों को कोई फ़ायदा पहुंचा सकते हैं। चाहे पैग़म्बर के ज़माने के पत्थर और लकड़ी के बुत हों या आज हिंदु धर्म के लोगों के इबादतख़ानों में रखी मूर्तियां हों, वे इंसान की मुश्किलों को दूर करने में कोई भूमिका नहीं रखते। मूर्तियों के सामने झुकना और उनकी इबादत करना इंसान को सत्य के मार्ग से भटका देता है और उसे पतन के रास्ते पर ले जाता है।
आयत के आख़िर में कहा गया है कि मोमिन इंसान उन चीज़ों पर ध्यान देने के बजाए जो ख़ुद मख़लूक़ और अल्लाह की पैदा की हुई हैं और दूसरी वस्तुओं के समान हैं, केवल अल्लाह पर भरोसा करते हैं। वे अपने दायित्वों के निर्वाह पर ध्यान केन्द्रित रखते हैं और नतीजे को अल्लाह के सिपुर्द कर देते हैं। अल्लाह से उनकी दुआ होती है कि उनकी तक़दीर में भलाई लिखे।
इस आयत से हमने सीखाः
बुतों की पूजा करने वाले मानते हैं कि दुनिया को पैदा करने वाला अल्लाह है। लेकिन उनका अक़ीदा है कि यह मूर्तियां दुनिया के संचालन में अल्लाह के सामने सिफ़ारिश करने में रोल रखती हैं और उन्हें अपने और अल्लाह के बीच में माध्यम मानते हुए उनकी इबादत करते हैं।
इंसान का का नफ़ा नुक़सान अल्लाह के हाथ में है। इसकी वह स्थिति नहीं है जो हमें ज़ाहिरी तौर पर नज़र आती है या जिसकी हम कल्पना करते हैं। इसलिए उन चीज़ों पर भरोसा करने के बजाए जो अन्य मख़लूक़ चीज़ों के समान हैं हमें केवल अल्लाह पर भरोसा करना चाहिए।
अब आइए सूरए ज़ोमर की 39वीं और 40वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
قُلْ يَا قَوْمِ اعْمَلُوا عَلَى مَكَانَتِكُمْ إِنِّي عَامِلٌ فَسَوْفَ تَعْلَمُونَ (39) مَنْ يَأْتِيهِ عَذَابٌ يُخْزِيهِ وَيَحِلُّ عَلَيْهِ عَذَابٌ مُقِيمٌ (40)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि ऐ मेरी क़ौम तुम अपनी जगह (जो चाहो) अमल किए जाओ मैं भी (अपनी जगह) अमल कर रहा हूँ फिर अनक़रीब ही तुम्हें मालूम हो जाएगा [39:39] कि किस पर वह आफ़त आती है जो उसको (दुनिया में) रूसवा कर देगी और (आख़ेरत में) उस पर अनंत अज़ाब भी नाज़िल होगा [39:40]
यह आयतें इस बिंदु को रेखांकित करती हैं कि हम जिस समाज में जीवन गुज़ार रहे हैं उसकी ग़लत आस्थाओं और परम्पराओं का विरोध करें। अल्लाह ने पैग़म्बर को यह ज़िम्मेदारी दी थी कि वे अपनी क़ौम, रिश्तेदारों और दोस्तों के सामने ठोस स्वर में एलान कर दें कि मैं बुतों की पूजा को स्वीकार नहीं कर सकता, केवल अल्लाह के सामने सिर झुकाउंगा। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारा रास्ता सही है तो अपने रास्ते पर चलते रहो और मैं अल्लाह पर अपने ईमान पर क़ायम रहूंगा और अपना काम करता रहूंगा। देखते हैं कि हमारे और आपके कर्मों का अंजाम क्या होता है।
यह आयत भी उस आयत के स्वर में बात करती है जिसमें कहा गया है कि तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए और मेरा दीन मेरे लिए है। पैग़म्बरे इस्लाम ने यह एलान करके अनेकेश्वरवादियों से किसी भी तरह का समझौता करने से इंकार कर दिया था और उनके ग़लत अक़ीदे से बिल्कुल दो टूक शब्दों में अपनी उदासीनता और लातअल्लुक़ी का एलान कर दिया।
आगे चलकर पैग़म्बर अनेकेश्वरवादियों को चेतावनी देते हैं कि वे अपने कर्मों के अंजाम को लेकर होशियार रहें। क्योंकि इस दुनिया में भी वे अल्लाह के अज़ाब का निशाना बनेंगे और आख़ेरत में भी। अलबत्ता जो भी अंजाम होगा वह ख़ुद उनके कर्मों और उनके चयन का नतीजा होगा। अल्लाह सज़ा देते समय किसी पर अत्याचार नहीं करता।
इन आयतों से हमने सीखाः
मोमिन इंसान का इरादा मज़बूत होता है वह भ्रांतियों और गुमराहियों से भरे माहौल के बहाव में नहीं बहता। इस तरह के लोग समाज के ग़लत विचारों और आस्थाओं के रंग में नहीं रंगते।
अल्लाह के मार्गदर्शक अपनी बात पूरी दृढ़ता से बयान करते हैं। वे धार्मिक आस्थाओं के बारे में किसी से कोई समझौता नहीं करते और अपनी आस्थाओं से तनिक भी पीछे नहीं हटते।
अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 41 की तिलावत सुनते हैं,
إِنَّا أَنْزَلْنَا عَلَيْكَ الْكِتَابَ لِلنَّاسِ بِالْحَقِّ فَمَنِ اهْتَدَى فَلِنَفْسِهِ وَمَنْ ضَلَّ فَإِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيْهَا وَمَا أَنْتَ عَلَيْهِمْ بِوَكِيلٍ (41)
इस आयत का अनुवाद हैः
(ऐ रसूल) हमने तुम्हारे पास (ये) किताब (क़ुरान) सच्चाई के साथ लोगों (की हिदायत) के वास्ते नाज़िल की है, तो जो राह पर आया अपने ही (भले के) लिए और जो गुमराह हुआ उसकी गुमराही का नुक़सान भी उसी पर है और फिर तुम कुछ उनके ज़िम्मेदार तो हो नहीं। [39:41]
यह आयत पैग़म्बर की ज़िम्मेदारी को बयान करती है कि वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश को प्राप्त करके लोगों तक पहुंचाएं। आयत कहती है कि लोगों की हिदायत के लिए जिस चीज़ की भी ज़रूरत थी अल्लाह ने हक़ और हक़ीक़त के साथ वहि के रूप में उसे पैग़म्बर को सौंप दिया। पैग़म्बर ने भी उसमें किसी तरह की कोई कमी किए बग़ैर लोगों तक पहुंचा दिया और वह बातें आसमानी किताब के रूप में हमेशा के लिए मौजूद हैं।
इस बीच कुछ लोग पैग़म्बर की बातों को स्वीकार करेंगे और अपनी ज़िंदगी में अल्लाह की हिदायत से लाभ उठाएंगे जबकि कुछ लोग ज़िद में उसे स्वीकार नहीं करेंगे और गुमराही में जीवन गुज़ारेंगे।
स्वाभाविक है कि इंसानों के लिए हमदर्द उस्ताद और मार्गदर्शक बनकर आने वाले पैग़म्बर यही आरज़ू रखते हैं कि सारे इंसान ईमान ले आएं लेकिन जब कुछ लोग ज़िद में पड़कर यही ठान बैठे हों कि उन्हें ईमान नहीं लाना है तो उन्हें ईमान लाने पर मजबूर नहीं किया जा सकता और उनके सारे मामलों को अपने हाथ में नहीं लिया जा सकता।
इस आयत से हमने सीखाः
क़ुरआन की बुनियाद सच्चाई और तथ्यों को पेश करना है। इसकी सारी बातें सत्य हैं उसमें असत्य की कोई गुंजाइश नहीं है। क़ुरआन इसलिए नाज़िल किया गया कि इंसान उसकी मार्गदर्शनों की रौशनी में सही रास्ता तलाश करके उस पर चल पड़े।
इंसानों को अपना रास्ता चुनने की आज़ादी है अलबत्ता जब उन्होंने एक रास्ता चुन लिया तो उसका अंजाम जो भी हो उसे स्वीकार करना पड़ेगा।