क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-985
सूरए नज्म आयतें, 19 से 30
आइए पहले सूरए नज्म की आयत 19 से 23 की तिलावत सुनते हैं:
أَفَرَأَيْتُمُ اللَّاتَ وَالْعُزَّى (19) وَمَنَاةَ الثَّالِثَةَ الْأُخْرَى (20) أَلَكُمُ الذَّكَرُ وَلَهُ الْأُنْثَى (21) تِلْكَ إِذًا قِسْمَةٌ ضِيزَى (22) إِنْ هِيَ إِلَّا أَسْمَاءٌ سَمَّيْتُمُوهَا أَنْتُمْ وَآَبَاؤُكُمْ مَا أَنْزَلَ اللَّهُ بِهَا مِنْ سُلْطَانٍ إِنْ يَتَّبِعُونَ إِلَّا الظَّنَّ وَمَا تَهْوَى الْأَنْفُسُ وَلَقَدْ جَاءَهُمْ مِنْ رَبِّهِمُ الْهُدَى (23)
इन आयतों का अनुवाद इस प्रकार है:
तो भला तुम लोगों ने लात व उज्ज़ा [53:19] और पिछले तीसरे बुत मनात को देखा [53:20] क्या तुम्हारे बेटे हैं और उसके लिए बेटियाँ हैं (जिनसे तुम बेज़ार हो)? [53:21] ये तो बहुत बेइन्साफ़ी की तक़सीम है [53:22] ये बुत तो बस सिर्फ़ नाम ही नाम है जो तुमने और तुम्हारे बाप दादाओं ने गढ़ लिए हैं, ख़ुदा ने तो इसकी कोई सनद नाज़िल नहीं की, ये लोग तो बस अटकल और अपनी नफ़सानी ख़्वाहिश के पीछे चल रहे हैं हालॉकि उनके पास उनके परवरदिगार की तरफ़ से हिदायत भी आ चुकी है। [53:23]
ये आयतें मक्का के मुशरिकों के एक प्रमुख अक़ीदे को चुनौती देती हैं और कहती हैं: "तुम एक ओर तो इन मूर्तियों को फ़रिश्तों की प्रतिमा मानकर उनकी पूजा करते हो, और दूसरी ओर फ़रिश्तों को 'अल्लाह की बेटियाँ' समझते हो, जिनसे तुम्हें अल्लाह के यहाँ शफ़ाअत या सिफारिश की उम्मीद है। जबकि पहली बात तो यह है कि अल्लाह का कोई बेटा-बेटी नहीं है, फ़रिश्ते उसकी संतान नहीं हैं। दूसरी बात, फ़रिश्ते इंसानों की तरह नर-मादा नहीं होते।
इसके अलावा, तुम लड़कियों को अपने लिए शर्म और कलंक मानते हो, यहाँ तक कि उन्हें ज़िंदा दफ़्न कर देते हो। फिर तुम फ़रिश्तों को 'अल्लाह की बेटियाँ' कैसे मान सकते हो? क्या तुम्हारे पास इस दावे का कोई प्रमाण है? या फिर तुम्हारे पूर्वजों की बनाई हुई अंधविश्वासी बातों को बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लिया गया है?
यदि तुम सच में अल्लाह को सही तरीक़े से जानना चाहते हो, तो उसने अंतिम पैग़म्बर और क़ुरआन भेजकर तुम्हें सही मार्ग दिखा दिया है, ताकि तुम गुमराही में न पड़ो।
इन आयतों से हमने सीखा:
1. मुशरिक अल्लाह को मानते थे, लेकिन पूजा में अंधविश्वास फैलाकर पत्थर की मूर्तियों को 'अल्लाह की बेटियाँ' मानकर उनकी इबादत करने लगे।
2. ग़लत विचारों का सामना करने के लिए तर्क या हुज्जत का उपयोग किया जा सकता है। जो लोग लड़कियों को अपने लिए शर्म मानते थे, वे फ़रिश्तों को 'अल्लाह की बेटियाँ' कैसे कह सकते हैं?
3. लड़के-लड़कियों में भेदभाव और एक को दूसरे से श्रेष्ठ समझना ज़ुल्म और अंधविश्वास है।
4. पूर्वजों की मान्यताएँ और रीति-रिवाज आने वाली पीढ़ियों को प्रभावित करते हैं। अंधा अनुसरण समाज में अंधविश्वास फैलाता है।
5. बिना सोचे-समझे अक़ीदे और नफ्स की इच्छाओं का अनुसरण इंसान को हिदायत से दूर कर देती है।
अब सूरए नज्म की आयत 24 से 26 सुनते हैं:
أَمْ لِلْإِنْسَانِ مَا تَمَنَّى (24) فَلِلَّهِ الْآَخِرَةُ وَالْأُولَى (25) وَكَمْ مِنْ مَلَكٍ فِي السَّمَاوَاتِ لَا تُغْنِي شَفَاعَتُهُمْ شَيْئًا إِلَّا مِنْ بَعْدِ أَنْ يَأْذَنَ اللَّهُ لِمَنْ يَشَاءُ وَيَرْضَى (26)
इन आयतों का अनुवाद है:
क्या जिस चीज़ की इन्सान तमन्ना करे वह उसे ज़रूर मिलती है [53:24] आख़ेरत और दुनिया तो ख़ास ख़ुदा ही के अख़तियार में हैं [53:25] और आसमानों में बहुत से फ़रिश्ते हैं जिनकी सिफ़ारिश कुछ भी काम न आती, सिवाय यह कि ख़ुदा जिसके लिए चाहे इजाज़त दे दे और पसन्द करे उसके बाद।[53:26]
मुशरिक फ़रिश्तों की शफाअत की आशा में उनकी पूजा करते थे, लेकिन यह एक निराधार इच्छा थी, जो कभी पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि दुनिया और आख़ेरत अल्लाह की मर्ज़ी से चलती है, न कि इंसानों की इच्छाओं से।
निस्संदेह, उम्मीद इंसान को आगे बढ़ाती है, लेकिन अगर यह उम्मीद तर्क और वास्तविकता से परे हो, तो यह सिर्फ़ एक ख़याल और वहम होती है। क़ुरआन ऐसी ही निराधार और असंभव इच्छाओं को ख़ारिज करता है, क्योंकि इन्हें छोड़ने से ही इंसान और समाज तरक्की कर सकता है।
इन आयतों से हमने सीखा:
1. अक़्ल और वहि को छोड़कर इच्छाओं में खो जाना इंसान को दुनिया और आख़ेरत की भलाई से दूर कर देता है।
2. हमें अपनी इच्छाओं को अल्लाह की मर्ज़ी के अनुसार ढालना चाहिए, न कि यह उम्मीद रखनी चाहिए कि अल्लाह हमारी मनमर्ज़ी करे।
3. जब अल्लाह के करीबी फरिश्ते भी उसकी इजाज़त के बिना शफाअत नहीं कर सकते, तो बेजान मूर्तियों से क्या उम्मीद की जा सकती है?
अब सूरए नज्म की आयत 27 से 30 सुनते हैं:
إِنَّ الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِالْآَخِرَةِ لَيُسَمُّونَ الْمَلَائِكَةَ تَسْمِيَةَ الْأُنْثَى (27) وَمَا لَهُمْ بِهِ مِنْ عِلْمٍ إِنْ يَتَّبِعُونَ إِلَّا الظَّنَّ وَإِنَّ الظَّنَّ لَا يُغْنِي مِنَ الْحَقِّ شَيْئًا (28) فَأَعْرِضْ عَنْ مَنْ تَوَلَّى عَنْ ذِكْرِنَا وَلَمْ يُرِدْ إِلَّا الْحَيَاةَ
الدُّنْيَا (29) ذَلِكَ مَبْلَغُهُمْ مِنَ الْعِلْمِ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعْلَمُ بِمَنْ ضَلَّ عَنْ سَبِيلِهِ وَهُوَ أَعْلَمُ بِمَنِ اهْتَدَى (30)
इन आयतों का अनुवाद है:
जो लोग आख़ेरत पर ईमान नहीं रखते वह फ़रिश्तों के नाम रखते हैं औरतों जैसे नाम हालॉकि उन्हें इसकी कुछ ख़बर नहीं [53:27] वे लोग तो बस गुमान के पीछे चल रहे हैं, हालॉकि गुमान यक़ीन के बदले में कुछ भी काम नहीं आया करता, [53:28] तो जो हमारी याद से रू गरदानी करे ओर सिर्फ़ दुनिया की ज़िन्दगी ही का तालिब हो तुम भी उससे मुँह फेर लो [53:29] उनके इल्म की यही इन्तिहा है, तुम्हारा परवरदिगार, जो उसके रास्ते से भटक गया उसको भी ख़ूब जानता है, और जो सही रास्ते पर है उससे भी ख़ूब वाक़िफ़ है। [53:30]
जैसा कि पहले बताया गया, मुशरिक अल्लाह को दुनिया का रचयिता मानते थे, लेकिन आख़ेरत और प्रतिफल पर उनका विश्वास नहीं था। ये आयतें कहती हैं कि जो लोग ऐसी अंधविश्वासी बातों को अल्लाह से जोड़ते हैं, वे दरअसल आख़ेरत पर ईमान नहीं रखते और अपने कर्मों के अंजाम से बेख़बर हैं।
आयतें आगे कहती हैं कि बहुत से लोगों की मान्यताएँ सिर्फ़ अटकलों और अनुमानों पर आधारित होती हैं, जबकि ऐसे मामलों में यक़ीन और सच्चाई की तलाश ज़रूरी है। जो लोग सच में हिदायत चाहते हैं, वे पैग़म्बरों के पास जाते हैं, जबकि दुनियादार लोग सिर्फ सांसारिक लाभ ही जानते हैं।
इन आयतों से हमने सीखा:
1. छोटे-मोटे मामलों में अंदाज़े से काम चल सकता है, लेकिन ईमान और आख़ेरत जैसे विषयों में सिर्फ़ यक़ीन और सच्चाई ही काम आती है।
2. लोगों को हिदायत देते समय उन्हें चुनना चाहिए जो सच्चाई की तलाश में हों, न कि जो अल्लाह को भूल चुके हैं।
3. दुनियावी जीवन में अति लगाव इंसान को अल्लाह और आख़ेरत से दूर कर देता है।