क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-986
सूरए नज्म आयतें, 31 से 42
सबसे पहले सूरए नज्म की आयत 31 और 32 की तिलावत सुनते हैं,
وَلِلَّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ لِيَجْزِيَ الَّذِينَ أَسَاءُوا بِمَا عَمِلُوا وَيَجْزِيَ الَّذِينَ أَحْسَنُوا بِالْحُسْنَى (31) الَّذِينَ يَجْتَنِبُونَ كَبَائِرَ الْإِثْمِ وَالْفَوَاحِشَ إِلَّا اللَّمَمَ إِنَّ رَبَّكَ وَاسِعُ الْمَغْفِرَةِ هُوَ أَعْلَمُ بِكُمْ إِذْ أَنْشَأَكُمْ مِنَ
الْأَرْضِ وَإِذْ أَنْتُمْ أَجِنَّةٌ فِي بُطُونِ أُمَّهَاتِكُمْ فَلَا تُزَكُّوا أَنْفُسَكُمْ هُوَ أَعْلَمُ بِمَنِ اتَّقَى (32)
इन आयतों का अनुवाद है:
और जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है ख़ुदा ही का है, ताकि जिन लोगों ने बुराई की हो उनको उनकी कारस्तानियों की सज़ा दे और जिन लोगों ने नेकी की है (उनकी नेकी का अज्र दे) [53:31] जो अनचाहे तौर पर हो जाने वाले गुनाहों के सिवा कबीरा गुनाहों से और खुली बुराइयों से बचे रहते हैं बेशक तुम्हारा परवरदिगार बड़ी बख़्शिश वाला है। वही तुम को ख़ूब जानता है जब उसने तुमको मिटटी से पैदा किया और जब तुम अपनी माँ के पेट में बच्चे थे। तो अपने नफ़्स की पाकीज़गी न जताया करो, जो परहेज़गार है उसको वह ख़ूब जानता है [53:32]
अल्लाह ने, जो आकाशों और धरती का मालिक है, इंसानों को बेलगाम छोड़ नहीं दिया कि वे जो चाहें करें, बल्कि उसने एक न्यायप्रणाली बनाई है जिसमें अच्छे लोगों को उनके अच्छे कर्मों का पुरस्कार मिलेगा और बुरे लोगों को उनके बुरे कर्मों की सज़ा।
लेकिन सभी बुरे कर्म एक जैसे नहीं होते—कुछ बड़े होते हैं, कुछ छोटे। कुछ गुनाह जानबूझ कर किए जाते हैं, तो कुछ अनजाने में। इसलिए, अल्लाह का व्यवहार भी हर गुनाह के अनुसार अलग होता है। अगर कोई अनजाने में ग़लती कर बैठे और उस पर उसे पछतावा हो, तो अल्लाह माफ़ कर देता है। लेकिन अगर कोई जानबूझ कर गुनाह करे और उस पर अड़ा रहे, तो वह अल्लाह की माफ़ी का हक़दार नहीं।
इन आयतों में यह भी बताया गया है कि अच्छे कर्म करने और खुले गुनाहों से बचने के बावजूद ख़ुद को लोगों के सामने पाक-साफ़ बताकर घमंड न करो, क्योंकि अल्लाह तुम्हारे दिलों की हक़ीक़त जानता है और वही सच्चे पाकबाज़ लोगों को पहचानता है।
इन आयतों से हमने सीखाः
यह दुनिया इंसान के लिए बनाई गई है, और इंसान अपने कर्मों के लिए अल्लाह के सामने जवाबदेह है।
अच्छे लोग भी ग़लतियों से बचे नहीं होते, लेकिन उनका दिल पाक होता है, इसलिए वे जानबूझकर गुनाह नहीं करते। अगर अनजाने में कोई ग़लती हो जाए, तो वे तौबा करके सुधार लेते हैं।
कभी भी ख़ुद को बुराइयों से पूरी तरह मुक्त न समझो। घमंड और दिखावे से बचो, क्योंकि अगर लोग तुम्हारे कर्म नहीं जानते, तो अल्लाह तो हर चीज़ और हर इरादे को जानता है।
अब आइए सूरए नज्म की आयत 33 से 38 तक की तिलावत सुनते हैं,
أَفَرَأَيْتَ الَّذِي تَوَلَّى (33) وَأَعْطَى قَلِيلًا وَأَكْدَى (34) أَعِنْدَهُ عِلْمُ الْغَيْبِ فَهُوَ يَرَى (35) أَمْ لَمْ يُنَبَّأْ بِمَا فِي صُحُفِ مُوسَى (36) وَإِبْرَاهِيمَ الَّذِي وَفَّى (37) أَلَّا تَزِرُ وَازِرَةٌ وِزْرَ أُخْرَى (38)
इन आयतों का अनुवाद है:
भला (ऐ रसूल) तुमने उस शख़्स को भी देखा जिसने (हक़ से) मुंह मोड़ लिया। [53:33] और थोड़ा सा (ख़ुदा की राह में) दिया और फिर हाथ खींच लिया।[53:34] क्या उसके पास इल्मे ग़ैब है कि वह देख रहा है (कि भविष्य क्या होगा) [53:35] क्या उसको उन बातों की ख़बर नहीं पहुँची जो मूसा के सहीफ़ों में है [53:36] और इबराहीम के (सहीफ़ों में) जिन्होने (अपना हक़) पूरा (अदा) किया [53:37] इन सहीफ़ों में ये है, कि कोई शख़्स दूसरे (के गुनाह) का बोझ नहीं उठाएगा [53:38]
पहले की आयतों में कर्मों को लेकर इंसान की जवाबदेही की बात की गई थी, और ये आयतें इसी बात को दोहराते हुए अलग अंदाज़ कहती हैं कि कुछ लोग यह सोचते हैं कि क़यामत के दिन वे अपने गुनाहों का बोझ दूसरों पर डालकर बच जाएंगे। ये लोग एक तरफ़ तो ज़रूरतमंदों की मदद करने में कंजूसी करते हैं, और दूसरी तरफ़ अपने बुरे कर्मों की ज़िम्मेदारी लेने से भी मुकर जाते हैं।
जबकि सभी आसमानी धर्मों का एक बुनियादी नियम यह है कि हर इंसान अपने कर्मों का ज़िम्मेदार है। कोई पैसे देकर या दूसरे तरीक़ों से अपने गुनाहों का बोझ किसी और पर नहीं डाल सकता।
इन आयतों से हमने सीखाः
नियमित रूप से ज़रूरतमंदों की मदद करना ज़रूरी है। सिर्फ़ कभी-कभार मदद करना दिल की गहराई से ईमान न होने की निशानी है।
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम हमारे लिए वफ़ादारी और त्याग की मिसाल हैं—अल्लाह से किए गए वादों के प्रति वफ़ादारी और अल्लाह की राह में अपनी बीवी और बेटे का त्याग ।
उन लोगों के बहकावे में न आएं जो कहते हैं, "गुनाह करो, मैं ज़िम्मेदारी ले लूंगा!" क्योंकि अल्लाह के न्याय-तंत्र में कोई किसी और के गुनाह नहीं उठा सकता।
अब हम सूरह नज्म की आयत 39 से 42 तक की तिलावत सुनते हैं
وَأَنْ لَيْسَ لِلْإِنْسَانِ إِلَّا مَا سَعَى (39) وَأَنَّ سَعْيَهُ سَوْفَ يُرَى (40) ثُمَّ يُجْزَاهُ الْجَزَاءَ الْأَوْفَى (41) وَأَنَّ إِلَى رَبِّكَ الْمُنْتَهَى (42)
इन आयतों का अनुवाद है:
और ये कि इन्सान को कुछ (लाभ) नहीं मिलता सिवाए उसके जिसकी उसने कोशिश की। [53:39] और यह कि उनकी कोशिश अनक़रीब ही देखी जाएगी [53:40] फिर उसका पूरा पूरा बदला दिया जाएगा [53:41] और यह कि (सबको आख़िर) तुम्हारे परवरदिगार ही के पास पहुँचना है। [53:42]
अल्लाह के न्याय का एक और नियम यह है कि हर इंसान को उसकी मेहनत के अनुसार ही फल मिलेगा। जिस तरह कोई अपने बुरे कर्मों का बोझ दूसरों पर नहीं डाल सकता, उसी तरह कोई दूसरों के अच्छे कर्मों का पुण्य भी नहीं ले सकता।
कई बार इंसान पूरी मेहनत करता है, लेकिन नतीजा वैसा नहीं मिलता जैसा वह चाहता था। इसलिए क़ुरान में "मेहनत" पर जोर दिया गया है—ताकि इंसान निराश न हो, बल्कि यह जाने कि अल्लाह उसकी कोशिशों को देखता है और उसे पूरा बदला देगा।
इन आयतों से हमने सीखाः
हमारा काम सिर्फ़ अल्लाह के हुक्मों पर अमल करना है, नतीजा उसके हाथ में है।
कोई भी अच्छा या बुरा कर्म बेकार नहीं जाता। न्याय का यह विश्वास हमें अच्छे काम करने के लिए प्रेरित करता है और बुरे कामों से डराता भी है।
दुनिया में पूरा इनाम या सज़ा मिलना मुश्किल है, इसलिए क़यामत ज़रूरी है, जहां हर कर्म का पूरा हिसाब होगा।
अगर हमें क़यामत पर यक़ीन है, तो हमें अच्छे कामों में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए।