Nov १६, २०२२ १९:५२ Asia/Kolkata

ज़ोमर 42-45

 

اللَّهُ يَتَوَفَّى الْأَنْفُسَ حِينَ مَوْتِهَا وَالَّتِي لَمْ تَمُتْ فِي مَنَامِهَا فَيُمْسِكُ الَّتِي قَضَى عَلَيْهَا الْمَوْتَ وَيُرْسِلُ الْأُخْرَى إِلَى أَجَلٍ مُسَمًّى إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآَيَاتٍ لِقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ (42)

इस आयत का अनुवाद हैः

ख़ुदा ही लोगों के मरने के वक्त उनकी रूहें पूरी तरह निकाल लेता है और जो लोग नहीं मरे (उनकी रूहें) उनकी नींद में (निकाली जाती हैं) बस जिन के बारे में ख़ुदा मौत का हुक्म दे चुका है उनकी रूहों को रोक रखता है और बाक़ी (सोने वालों की रूहों) को फिर एक निर्धारत वक्त तक के वास्ते भेज देता है जो लोग (ग़ौर) और फ़िक्र करते हैं उनके लिए (क़ुदरते ख़ुदा की) यक़ीनन बहुत सी निशानियाँ हैं। [39:42]  

 

जैसा की आयत में बताया गया है अल्लाह मौत के समय रूहों को अपने क़ब्ज़े में ले लेता है और सोते समय ज़िंदा इंसानों की रूहें भी अल्लाह के क़ब्ज़े में होती हैं। अलबत्ता जो लोग अल्लाह के आदेश से मौत की नींद सो गए हैं उनकी रूहों को अल्लाह अपने पास रोक लेता है और नतीजे में उनकी मौत हो जाती है और बक़िया रूहों को निर्धारित समय तक के लिए शरीरों में लौटा दिया जाता है।

तौहीद और अनेकेश्वरवाद की बहस में एक बात पर क़ुरआन ख़ास ताकीद करता है और वह यह है कि इंसानों की ज़िंदगी और मौत अल्लाह के हाथ में है। इसमें कोई भी अल्लाह का शरीक नहीं है।

क़ुरआन इस आयत में इंसान के दो पहलुओं शरीर और रूह का ज़िक्र करता है। मौत के समय शरीर और रूह का रिश्ता टूट जाता है, शरीर ख़त्म हो जाता है जबकि रूह अल्लाह के नियंत्रण में चली जाती है। क़यामत के दिन इसी दुनिया वाले शरीर से समानता रखने वाले शरीर में दाख़िल की जाएगी। उस समय तक रूह अल्लाह के पास रहेगी।

अलबत्ता आप ज़िंदगी में हर दिन एक अस्थायी मौत का अनुभव करते हैं। वह समय नींद का समय होता है। नींद के समय आपकी रूह का आपके शरीर से रिश्ता अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाता है। मानो आप नींद में मर जाते हैं मगर जागने के समय दोबारा जीवित हो जाते हैं।

सोते समय लोग सपने भी देखते हैं। सपने में हो सकता है कि इंसान दुनिया के कोने कोने में फिर आए, ख़ुश हो, हंसे, दुखी हो या रोएं। इससे भी पता चलता है कि रूह शरीर से अलग हक़ीक़त है। क्योंकि यह सारी चीजें इस हालत में होती हैं कि शरीर अपनी जगह पड़ा सोता रहता है।

इस तरह सपना अल्लाह की ताक़त का नमूना है। अगर इसके बारे में ध्यान से सोचा जाए तो एक तरफ़ इससे इंसान को पाठ मिलेगा कि बहुत सारे लोग वे थे कि सोए तो फिर उठ न सके इसी तरह वह भी मुमकिन है कि सोए और यही नींद उसे मौत की गोद में पहुंचा दे। दूसरी ओर यह चीज़ साबित करती है कि इंसान केवल भौतिक पहलू तक सीमित नहीं है। क़ुरआन में और रिवायतों में इंसान के लिए रूह का शब्द इस्तेमाल किया गया है।

इस आयत से हमने सीखाः

शरीर और रूह दो अलग हक़ीक़तें हैं जो नींद के समय एक दूसरे से अलग हो जाती हैं। मौत के बाद इंसान का जिस्म ख़त्म हो जाता है लेकिन रूह बाक़ी रहतीहै।

नींद मौत की बहन है। नींद में इंसान हल्की मौत का अनुभव करता है।

नींद और उसके बाद जाग जाना वह चीज़ है जिसका अनुभव इंसान हर दिन करता है। लेकिन केवल समझदार और बुद्धिमान लोग ही इन चीज़ों के बारे में सोच पाते हैं और उनसे पाठ लेते हैं।

 

अब सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 43 और 44 की तिलावत सुनते हैं,

أَمِ اتَّخَذُوا مِنْ دُونِ اللَّهِ شُفَعَاءَ قُلْ أَوَلَوْ كَانُوا لَا يَمْلِكُونَ شَيْئًا وَلَا يَعْقِلُونَ (43) قُلْ لِلَّهِ الشَّفَاعَةُ جَمِيعًا لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ثُمَّ إِلَيْهِ تُرْجَعُونَ (44)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

क्या उन लोगों ने ख़ुदा के सिवा (दूसरे) सिफारिशी बना रखे है (ऐ रसूल) तुम कह दो कि अगरचे वह लोग न कुछ एख़तेयार रखते हों न कुछ समझते हों [39:43]  (तो भी सिफ़ारिशी बनाओगे) तुम कह दो कि सारी सिफ़ारिश तो ख़ुदा के लिए ख़ास है- सारे आसमान व ज़मीन की हुकूमत उसी के लिए ख़ास है, फिर तुम लोगों को उसकी तरफ़ लौट कर जाना है।  [39:44]   

इतिहास की दृष्टि से अनेकेश्वरवादी मूर्तियों को अपने और अल्लाह के बीच माध्यम बनाते थे और कहते थे कि हम मूर्तियों की पूजा करते हैं कि वे अल्लाह के पास हमारी सिफ़ारिश कर दें। दर हक़ीक़त अनेकेश्रवादी पत्थर और लकड़ी की मूर्तियों को पवित्रता का प्रतीक मानते थे। उनका लगता था कि इन मूर्तियों के सामने सिर झुकाने से उन्हें मनाया जा सकता है।

इस ग़लत सोच के जवाब में अल्लाह इस आयत में कहता है कि यह बात कि कौन व्यक्ति और कौन सी चीज़ें तुम्हारे और अल्लाह के बीच वास्ता और माध्यम बन सकती है, अल्लाह के हाथ में है। यह तो नहीं है कि आप जिस चीज़ का दिल चाले उसे अपने और अल्लाह के बीच में माध्मय बना लेंगे। ख़ास तौर पर जब तुम लोग बेजान मूर्तियों की पूजा करते हो, उन मूर्तियों की पूजा जिनके पास न विवेक है, न समझदारी है, न कुछ करने का अख़तियार है। अगर तुम यह बात मानते हो कि सारे ब्रह्मांड को अल्लाह ने पैदा किया है और केवल वही मालिक और हाकिम है। तो फिर तुम लोग बेजान चीज़ों की तरफ़ क्यों जाते हो और उनसे सिफ़ारिश करवाते हो।

बहरहाल जो सिफ़ारिश के  लिए गया है उसके पास यह काम करने की अल्लाह से इजाज़त हो। क़ुरआन की आयतों और रिवायतों के अनुसार अल्लाह के पैग़म्बरों को यह ह़क हासिल था कि इंसानों और अल्लाह के बीच का माध्यम बनें । यह काम ख़ुदा के करम से हुआ। जैसा कि हज़रत युसुफ़ के क़िस्से में हुआ कि उनके भाई आख़िरकार अपने किए पर शर्मिंदा हुए और उन्होंने अपने पिता हज़रत याक़ूब को अपने और अल्लाह के बीच में माध्यम बनाया कि उनके गुनाह बख़्श दिए जाएं।

इन आयतों से हमने सीखाः

क़ुरआन सिफ़ारिश और शिफ़ाअत को नकारता नहीं बल्कि बुतों और मूर्तियों की सिफ़ारिश और शिफ़ाअत का खंडन करता है।

हमारे और अल्लाह के बीच में जो हस्ती माध्यम बन रही है उसका मरतबा हमसे ऊंचा होता है, हम से कम नहीं और दूसरे यह कि उसमें समझदारी और एहसास हो। इसी तरह हमारी मदद करने और हमारी इच्छाएं पूरी करने की क्षमता भी रखता हो। मूर्तियां और बुत जिनके पास समझदारी नहीं है, कोई ताक़त और क्षमता नहीं है उनसे कैसे हम मदद की उम्मीद कर सकते हैं।

कायनात वजह और नतीजे के क़ानून पर आधारित है। लेकिन कारकों का असर भी अल्लाह पर निर्भर है।

 

अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 45 की तिलावत सुनते हैं,

وَإِذَا ذُكِرَ اللَّهُ وَحْدَهُ اشْمَأَزَّتْ قُلُوبُ الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِالْآَخِرَةِ وَإِذَا ذُكِرَ الَّذِينَ مِنْ دُونِهِ إِذَا هُمْ يَسْتَبْشِرُونَ (45)

इस आयत का अनुवाद हैः

और जब सिर्फ अल्लाह का ज़िक्र किया जाता है तो जो लोग आख़ेरत पर ईमान नहीं रखते उनके दिल नफ़रत से भर जाते हैं और जब ख़ुदा के सिवा और (माबूदों) का ज़िक्र किया जाता है तो बस फौरन उनकी बाछें खिल जाती हैं। [39:45] 

 

इस आयत में तौहीद और एकेश्वरवाद के बारे में क़यामत का इंकार करने वाले नास्तिकों और अनेकेश्वरवादियों के एहसास और सोच को बताया गया है। आयत कहती है कि जब अनन्य अल्लाह का नाम लिया जाता है तो आख़ेरत पर ईमान न रखने वालों को बहुत बुरा लगता है और वे मुंह बनाते हैं लेकिन जब दूसरी पूजी जाने वाली चीज़ों की बात होती है वे बहुत ख़ुश होते हैं। अनेकेश्वरवादी और कमज़ोर ईमान वाले बहुत से लोग जो केवल दुनिया को देखते हैं और आख़ेरत पर कोई अक़ीदा नहीं रखते, जब भी अल्लाह, उसके असीम ज्ञान और सामर्थ्य के बारे में बात होती है तो नाराज़गी ज़ाहिर करते हैं। क्योंकि इस तरह के लोगों के दिल अल्लाह पर भरोसा नहीं रखते बल्कि इस भ्रम में रहते हैं कि कामों को दूसरे लोग अंजाम देते हैं अल्लाह नहीं। वे ज़िंदगी में दूसरी हर चीज़ पर भरोसा करते हैं मगर अल्लाह पर उन्हें भरोसा नहीं रहता।

कायनात की रचना करने वाले अल्लाह के सामने वे सजदा नहीं करते जबकि अपने जैसे दूसरे इंसानों के सामने सजदा करते हैं, उसका सम्मान करते हैं। ऊंचे स्थान पर बैठे लोगों के नाम और ज़िक्र पर उन्हें बहुत गर्व महसूस होता है। वे जहां तक मुमकिन हो ख़ुद को इन लोगों के क़रीब करते हैं और इस पर बहुत ख़ुश होते हैं। उन्हें लगता है कि उनका बेड़ा पार हो गया।

उनके मुक़ाबले में वे मोमिन इंसान हैं जो अनन्य अल्लाह का नाम सुनकर उत्साह से भर जाते हैं। वे अपना सब कुछ अल्लाह की राह में ख़र्च कर देने के लिए तैयार होते हैं। अल्लाह का नाम उनके लिए हर्षदायक होता है और इससे उनका मन हृदय और आत्मा सब जगमगा उठते हैं।

 

इस आयत से हमने सीखाः 

सच्चे ईमान की एक निशानी यह है कि हम परखें कि अल्लाह का नाम सुनकर दिल को सुकून और ख़ुशी मिलती है या ग़ैरे ख़ुदा के नाम और ज़िक्र से ख़ुशी हासिल होती है।

अगर अल्लाह के आदेशों को हम मामूली समझें और उन पर तवज्जो न दें बल्कि इंसानों के बनाए नियमों को श्रेष्ठ समझें तो इसका मतलब है कि हम शिर्क में मुब्तला हैं, चाहे हम ईमान का दावा ही क्यों न करें।