Feb ०४, २०२५ १५:३६ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-918

सूरए ज़ुख़रुफ़ , आयतें 23-28

आइए सबसे पहले सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 23 की तिलावत सुनते हैं:

وَكَذَلِكَ مَا أَرْسَلْنَا مِنْ قَبْلِكَ فِي قَرْيَةٍ مِنْ نَذِيرٍ إِلَّا قَالَ مُتْرَفُوهَا إِنَّا وَجَدْنَا آَبَاءَنَا عَلَى أُمَّةٍ وَإِنَّا عَلَى آَثَارِهِمْ مُقْتَدُونَ (23)

 

इस आयत का अनुवाद हैः

और (ऐ रसूल) इसी तरह हमने तुमसे पहले किसी बस्ती में कोई डराने वाला (पैग़म्बर) नहीं भेजा मगर यह कि वहाँ के ख़ुशहाल लोगों ने यही कहा कि हमने अपने बाप दादाओं को एक तरीक़े पर पाया, और हम यक़ीनन उनके क़दम ब क़दम चले जा रहे हैं। [43:23]  

पिछले कार्यक्रम में यह बताया गया कि मक्के के मुशरिक मूर्ति पूजा के लिए यह तर्क देते थे कि वे अपने पूर्वजों के रास्ते पर चल रहे हैं। यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहती है कि मक्के के मुशरिक जो कह रहे हैं वो केवल इन मुशरिकों की बात नहीं है बल्कि तुमसे पहले जो पैग़म्बर आए उनका भी आम लोगों से सरोकार रहता था और जब वे लोगों को शिर्क और बुतों की इबादत करने से रोकते थे तो वो मुशरिक भी पैग़म्बरों की बातों पर ग़ौर करने के बजाए उनसे कहते थे कि हम अपने बाप दादा के रास्ते पर चल रहे हैं और उनके मत को हरगिज़ नहीं छोडेंगे।

यह आयत एक महत्वपूर्ण बिंदु की ओर इशारा करती है और वह है पैग़म्बरों का विरोध करने में घमंडी और दौलतमंदों की भूमिका। पैग़म्बरों के विरोध में सबसे आगे स्वार्थी और घमंडी दौलतमंद होते थे जो अपनी दौलत और सम्पत्ति तथा शोहरत की वजह से आम लोगों के बीच ऊंचा स्थान हासिल कर चुके होते थे और आम लोग डर या लालच में उनकी बात मानते थे। इन दौलतमंदों को पता था कि अगर पैग़म्बरों का अभियान कामयाब हो गया तो उन्हें दूसरों के साथ अन्याय करने का मौक़ा नहीं मिलेगा क्योंकि दबे कुचले लोग सब आज़ाद हो जाएंगे।

आज भी दुनिया में दौलतमंत और ताक़तवर अपने व्यापक सूचना तंत्र के ज़रिएआम लोगों को धोखा देने और मूर्ख बनाने की कोशिश करते हैं। जबकि सबसे ज़्यादा तबाही और बर्बादी इन्हीं अत्याचारियों की वजह से होती है। अगर कोई उनके हितों और स्वार्थों के ख़िलाफ़ क़दम उठाए तो उसे बेरहमी से कुचल देने की कोशिश करते हैं ताकि उनका रास्ता रुके नहीं।

इस आयत से हमने सीखाः

पूर्वजों का धर्म, उनके विचार और उनका कल्चर नई नस्ल की सोच के लिए पर्दा न बरे बल्कि सोच सक्रिय रहे और इन चीज़ों पर ग़ौर किया जाए। क्योंकि संभव है कि उन्होंने ग़लत रास्ता चुन लिया हो और उनका अंधा अनुसरण हमें ग़लत रास्ते पर डाल दे।

समाज को जानकार और हमदर्दी रखने वाले लोगों की ज़रूरत होती है जो ख़तरों को समझते हों और उनके बारे में दूसरों को सचेत करें। हालांकि बहुत से लोग इन चेतावनियों पर ध्यान नहीं देते बल्कि उनका विरोध करते हैं।

दौलत और ताक़त अगर कंट्रोल में न रहे तो इंसान सरकशी पर उतारू हो जाता है। इसलिए जिन लोगों के पास दौलत और शोहरत होती है, लोगों के बीच ऊंचा स्थान होता है वो सत्य के मार्ग पर चलने वालों का विरोध करते है।

अब आइए सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 24 और 25 की तिलावत सुनते हैं,

قَالَ أَوَلَوْ جِئْتُكُمْ بِأَهْدَى مِمَّا وَجَدْتُمْ عَلَيْهِ آَبَاءَكُمْ قَالُوا إِنَّا بِمَا أُرْسِلْتُمْ بِهِ كَافِرُونَ (24) فَانْتَقَمْنَا مِنْهُمْ فَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِينَ (25)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

(इस पर उनके पैग़म्बर ने) कहा भी कि जिस तरीक़े पर तुमने अपने बाप दादाओं को पाया अगरचे मैं तुम्हारे पास इससे बेहतर रास्ते पर लाने वाला दीन लेकर आया हूँ (तो भी न मानोगे) वह बोले (कुछ हो मगर) हम तो उस दीन को जो तुम देकर भेजे गए हो मानने वाले नहीं। [43:24]  तो हमने उनसे बदला लिया (तो ज़रा) देखो तो कि झुठलाने वालों का क्या अन्जाम हुआ। [43:25]

जो लोग कहा करते थे कि हम अपने बाप दादा के तरीक़े पर ही चलना चाहते हैं और उन्हीं के रास्ते पर चलने का इरादा रखते हैं उनके जवाब में पैग़म्बर कहते थे कि अगर हम तुम्हारे लिए ऐसा दीन लाएं जो तुम्हारे पूर्वजों के दीन से बेहतर हो और तुम्हें कल्याण के मार्ग पर ले जाए तो क्या तब भी हमारा दीन क़ुबूल नहीं करोगे? क्या तुम अपनी क़िस्मत नहीं सवांरना चाहते? तुम्हें चाहिए कि जाओ जो धर्म तुम्हारे लिए भरोसेमंद हो और तुम्हें इस मंज़िल तक जल्दी पहुंचा दे उसे स्वीकार करो।

लेकिन लोगों की अज्ञानता और अंधा द्वेष उनकी आंख पर पर्दा डाल देता था और वो अल्लाह के रसूल की दावत पर ग़ौर किए बिना अपनी बात पर अड़े रहते थे और अपनी रट लगाए रहते थे कि हम तो आप पर ईमान नहीं लाएंगे तो आप बे वजह ख़ुद को परेशान मत कीजिए और अपनी बातों से हमें तकलीफ़ न दीजिए।

रोचक बात यह है कि पैग़म्बरों को अपने मार्ग की सच्चाई का पूरा यक़ीन होता था और वो जानते थे कि मुशरिकों का रास्ता ग़लत है तब भी उनसे बहस करते समय यह नहीं कहते थे कि तुम ग़लत रास्ते पर क्यों चल रहे हो और सत्य का रास्ता क्यों नहीं अपनाते। बल्कि निष्पक्ष व्यक्ति के रूप में कहते थे कि लो हमारे धर्म की अपने मत से तुलना करो और देखो कि कौन सा धर्म हिदायत के ज़्यादा क़रीब है। इसके बाद सही रास्ता चुनो।

क़ुरआन की यह बहस की शैली हमें यह सीख देती है कि जब ज़िद्दी और घमंडी इंसानों का सामना हो ईमान वालों को इंसाफ़ और संस्कारों के अनुसार ही अमल करना चाहिए। दूसरों के रास्ते और धर्म को ग़लत ठहराने के बजाए अपनी बात को विवेकपूर्ण और तर्गसंगत ढंग से बयान करना चाहिए और उनसे कहना चाहिए कि वे ख़ुद ग़ौर करें और जो सही है उसका चयन करें।

आयतों में आगे यह बात कही गई है कि सत्य के ख़िलाफ़ यह ज़िद यहां तक बढ़ गई कि वो सरकश क़ौम अल्लाह के अज़ाब की शिकार बनी। अलबत्ता क़ुरआन ने अनेक आयतों में अतीत के ज़माने की क़ौमों के अंजाम का ज़िक्र किया है। जैसे यह कि उनमें से कुछ तूफ़ान, कुछ भूंकप और कुछ तूफ़ानी हवा की चपेट में आकर तबाह हो गईं।

 

इन आयतों से हमने सीखाः  

इस्लाम का परिचय कराने और लोगों को इस्लाम की दावत देने का एक तरीक़ा इस्लाम की शिक्षाओं की दूसरे धर्मों और मतों की शिक्षाओं से तुलना करना है। यह तुलना विवेक और तर्क के आधार पर की जाती है।

ज़िंदगी का रास्ता चुनने में हम अक़्ल और अल्लाह के संदेश वहि को पूर्वजों के रीति रिवाजों और आस्थाओं पर प्राथमिकता दें।

हर प्रकार की ज़िद इंसान को सही चयन से रोक देती है और वो हक़ीक़त तक नहीं पहुंच पाता।

 

अब आइए सूरए ज़ुख़रुफ़ की 26 से 28 तक की आयतों की तिलावत सुनते हैं,

وَإِذْ قَالَ إِبْرَاهِيمُ لِأَبِيهِ وَقَوْمِهِ إِنَّنِي بَرَاءٌ مِمَّا تَعْبُدُونَ (26) إِلَّا الَّذِي فَطَرَنِي فَإِنَّهُ سَيَهْدِينِ (27) وَجَعَلَهَا كَلِمَةً بَاقِيَةً فِي عَقِبِهِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ (28)

इन आयतों का अनुवाद हैः 

(और वह वक़्त याद करो) जब इब्राहीम ने अपने (मुँह बोले) बाप (आज़र) और अपनी क़ौम से कहा कि जिन चीज़ों को तुम लोग पूजते हो मैं यक़ीनन उससे बेज़ार हूँ।  [43:26]  मगर उसकी इबादत करता हूँ, जिसने मुझे पैदा किया तो वही बहुत जल्द मेरी हिदायत करेगा। [43:27]  और उसी (ईमान) को इब्राहीम अपनी औलाद में हमेशा बाक़ी रहने वाली बात छोड़ गए ताकि वो (ख़ुदा की तरफ़) वापसी करें। [43:28]

यह आयतें संक्षेप में हज़रत इब्राहीम का वाक़या बयान करती हैं ताकि मक्के के मुशरिकों को यह संदेश दिया जा सके कि तुम हज़रत इब्राहीम को अपना पूर्वज मानते हो। अगर तुम अपने पूर्वजों के दीन पर बाक़ी रहना चाहते हो तो तुम हज़रत इब्राहीम के एकेश्वरवादी मार्ग और तौहीद के रास्ते से क्यों विचलित होते हो?

हज़रत इब्राहीम ने जब देखा कि उनके अभिभावक आज़र और उनकी क़ौम शिर्क में फंस गए हैं तो उनके धर्म को छोड़ दिया। उन्होंने एलान कर दिया कि मैं केवल अपने ख़ुदा की इबादत करूंगा जिसने मुझे पैदा किया है। मैं उससे दुआ करूंगा मुझे सही रास्ता दिखाए और मुझे यक़ीन है कि वो मेरी हिदायत करेगा और मुझे बेसहारा नहीं छोड़ेगा।

हज़रत इब्राहीम ने अपनी पूरी कोशिश की कि तौहीद हमेशा के लिए दुनिया में अमिट हो जाए। इसलिए उन्होंने शिर्क और मूर्ति पूजा का विरोध करने और एक ख़ुदा की इबादत करने का मिशन अपनी यादगार के तौर पर छोड़ा। बाद में आने वाले पैग़म्बर भी हज़रत इब्राहीम के रास्ते पर चले और यह रास्ता अमर हो गया।

 

इन आयतों से हमने सीखाः

क़ौम और क़बीले या समूह की बुनियाद पर हमें अपना अक़ीदा और जीवनशैली नहीं चुननी चाहिए वरना इसका नकारात्मक असर होगा। इससे बचने की स्थिति में ही हम सत्य को सही प्रकार से पहचान सकते हैं और उसकी पैरवी कर सकते हैं।

अक़्ल कहती है कि अल्लाह ने इंसान को पैदा किया है तो उसे बेसहारा नहीं छोड़ेगा बल्कि उसकी हिदायत का बंदोबस्त भी ज़रूर करेगा।

हम कोशिश करें कि समाज और परिवार में अच्छी परम्पराएं और सुन्नतें लागू करके हक़ और सत्य के मार्ग को स्थायी रास्ता बनाएं।

श्रोताओ कार्यक्रम का समय यहीं पर समाप्त होता है अगले कर्यक्रम तक हमें अनुमति दीजिए।