Feb ०५, २०२५ १५:२८ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-937

सूरए जासिया, आयतें 21-25

आइये सबसे पहले सूरए जासिया की 21वीं और 22वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं।  

أَمْ حَسِبَ الَّذِينَ اجْتَرَحُوا السَّيِّئَاتِ أَنْ نَجْعَلَهُمْ كَالَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ سَوَاءً مَحْيَاهُمْ وَمَمَاتُهُمْ سَاءَ مَا يَحْكُمُونَ (21) وَخَلَقَ اللَّهُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ بِالْحَقِّ وَلِتُجْزَى كُلُّ نَفْسٍ بِمَا كَسَبَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ (22)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

जो लोग बुरा काम किया करते हैं क्या वो यह समझते हैं कि हम उनको उन लोगों के बराबर कर देंगे जो ईमान लाए और अच्छे-अच्छे काम भी करते रहे और उन सब का जीना-मरना एक सा होगा ये लोग (क्या) बुरे हुक्म लगाते हैं। [45:21] और ख़ुदा ने सारे आसमान व ज़मीन को हिकमत व मसलेहत से पैदा किया ताकि हर शख़्स को उसके किये का बदला दिया जाए और उन पर (किसी तरह का) ज़ुल्म नहीं किया जाएगा। [45:22]

पिछले कार्यक्रम में क़यामत के दिन मोमिनों और काफ़िरों के अंजाम के बारे में चर्चा हुई थी। ये आयतें दोनों समूहों के मक़ाम की तुलना में कहती हैं कि क्या किसी को इस बात की अपेक्षा है कि न्याय करने वाले अल्लाह का व्यवहार अच्छे और बुरे लोगों के साथ एकसमान होना चाहिये?

क्या आप इस बात को क़बूल करते हैं कि इस दुनिया में जो जैसे चाहे रहे। एक व्यक्ति समाज की सेवा करता है और दूसरा लोगों पर अत्याचार करता है और क़यामत के दिन दोनों के साथ समान व्यवहार किया जाये? अगर कोई यह सोचता है कि ईमान और नेक अमल या कुफ्र व गुनाहों का उसकी ज़िन्दगी में कोई असर नहीं है तो इस प्रकार की सोच सही नहीं है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मोमिन और काफ़िर की ज़िन्दगी और मौत एक दूसरे से भिन्न है। 

ईमान और नेक अमल की वजह से मोमिनों को एक विशेष प्रकार की शांति का आभास होता है। इस प्रकार से कि जीवन की घटनाओं व समस्याओं का कम से कम प्रभाव उनकी आत्मा पर पड़ता है। अल्लाह पर आस्था रखने वाले इंसान अल्लाह के वादों पर यक़ीन रखते हैं और अच्छे अंजाम की कामना दिल में लिए हुए हैं। जैसाकि पवित्र कुरआन के सूरए अनआम की आयत नंबर 82 में हम पढ़ते हैं कि जो लोग ईमान लाये और उन्होंने अपने ईमान को अत्याचार (अनेकेश्वरवाद) से दूषित नहीं किया उनके लिए सुरक्षा है और वे हिदायत पाने वाले लोग हैं जबकि अल्लाह पर ईमान न रखने वाले और बुराइयों से दूषित लोग हमेशा परेशान रहते हैं। इस प्रकार के लोग अगर नेमत में डूबे भी रहें तब भी उन्हें नेमतों के समाप्त होने का डर लगा रहता है और हर हालत में भविष्य को अंधेरे में और मौत को अपने अंत के रूप में देखते हैं। 

हिदायत का नूर पहले समूह के दिल को प्रकाशित करता है और उत्साह के साथ उसे अच्छे और नेक उद्देश्यों की ओर आगे ले जाता है परंतु दूसरे समूह का कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं होता और उसके लक्ष्य केवल दुनिया और भौतिक संसाधन होते हैं। 

 

मौत परलोक की दुनिया का पहला दरवाज़ा है जिससे हर इंसान को गुज़रना है। मौत के समय दोनों समूहों का अंजाम भी एक दूसरे से भिन्न होगा। जो इंसान नेक हैं और अल्लाह पर आस्था रखते हैं मौत के समय उन्हें जन्नत की खुशख़बरी दी जाती है मगर बेईमान और गुनाहकार लोगों से कहा जाता है कि उन्हें जहन्नम में डाला जायेगा और हमेशा- हमेशा वे उसमें रहेंगे। सारांश यह कि इन दोनों समूहों की हालत एक दूसरे से भिन्न है चाहे ज़िन्दगी हो, मौत हो, बर्ज़ख या क़यामत हो। 

दूसरा बिन्दु यह है कि अल्लाह ने आसमानों और ज़मीन को हक़ और न्याय के आधार पर पैदा किया है। न केवल इंसान की ज़िन्दगी का नेज़ाम बल्कि कायेनात में मौजूद सारी चीज़ों का नेज़ाम हक़ व न्याय पर आधारित है। इस आधार पर अल्लाह किसी पर भी ज़ुल्म नहीं करता और इंसानों को उनके हाल पर नहीं छोड़ता कि जिसका दिल जैसे चाहे वह दूसरों के साथ व्यवहार करे बल्कि वह न्याय के आधार पर इंसानों को दंडित करेगा और उनके अच्छे कार्यों का फल देगा।

इन आयतों से हमने सीखाः

1. अल्लाह के बारे में ग़लत सोच व विचारों से परहेज़ करना चाहिये और यह जान लेना चाहिये कि अल्लाह के दंड और फल का मापदंड हमारे आमाल हैं न कि हमारी आरज़ूयें और ग़लत विचार। 

2. ईमान और अच्छे अमल और इसी प्रकार कुफ्र और बुरे काम इंसान की ज़िन्दगी, मौत और उसके भविष्य पर असल डालते हैं। 

3. कायनात के नेज़ाम की बुनियाद हक़ पर रखी गयी है। इसलिए इंसान के साथ भी हक़ व न्याय का व्यवहार किया जाता है। 

4. क़यामत होने की बुनियाद न्याय और हिकमते एलाही है ताकि इंसान के पैदा करने का मक़सद हासिल हो जाये और हक़दार को उसका हक़ मिले। 

 

आइये अब सूरए जासिया की 23वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,

  أَفَرَأَيْتَ مَنِ اتَّخَذَ إِلَهَهُ هَوَاهُ وَأَضَلَّهُ اللَّهُ عَلَى عِلْمٍ وَخَتَمَ عَلَى سَمْعِهِ وَقَلْبِهِ وَجَعَلَ عَلَى بَصَرِهِ غِشَاوَةً فَمَنْ يَهْدِيهِ مِنْ بَعْدِ اللَّهِ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ (23)

इस आयत का अनुवाद हैः   

भला तुमने उस शख़्स को भी देखा है जिसने अपनी नफ़सानी ख़्वाहिशों को माबूद बना रखा है और (उसकी हालत) समझ बूझ कर ख़ुदा ने उसे गुमराही में छोड़ दिया है और उसके कान और दिल पर निशानी निर्धारित कर दी है (कि ये ईमान न लाएगा) और उसकी ऑंख पर पर्दा डाल दिया है फिर ख़ुदा के बाद उसकी हिदायत कौन कर सकता है तो क्या तुम लोग (इतना भी) ग़ौर नहीं करते। [45:23]

इस आयत ने गुनाह के स्रोत की ओर संकेत किया है। इस आयत में अल्लाह कहता है कि गुनाहगार और अपराधी लोग अपनी मांगों और आंतरिक इच्छाओं को समस्त चीज़ों का मापदंड क़रार देते हैं, इस प्रकार से कि उनकी इच्छायें उनकी ख़ुदा हैं और उनकी इच्छायें उन्हें आदेश देती हैं कि वे उन कार्यों को अंजाम दें जिससे अधिक आनंद प्राप्त हो और जिस चीज़ का उनका दिल कहता है उसे अंजाम दें यहां तक कि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अपनी अक़्लों के बजाये इच्छाओं की बात मानें 

स्वाभाविक है कि इस प्रकार के लोग हक़ीक़त को समझने के लिए अपनी आंख और कान का भी इस्तेमाल नहीं करते हैं और केवल उसी चीज़ को सही समझते हैं जिसे अपने फ़ायदे में देखते हैं और जो चीज़ उनके स्वार्थों के ख़िलाफ़ होती है उसे ग़लत समझते हैं। 

इस प्रकार की सोच इंसान को वहां पहुंचा देती है जहां उसके ज्ञान और जानकारी का कोई फ़ायदा नहीं होता है। अतः अपनी इच्छाओं के ग़ुलाम लोग विद्वान ही क्यों न हों वे गुमराही का शिकार हो जाते हैं। 

इन आयतों से हमने सीखाः

इंसानों ने पूरे इतिहास में केवल पत्थर और लकड़ी के बुत या सूरज और चांद या कुछ जानवरों की ही उपासना नहीं की है बल्कि ऐसा बहुत हुआ है कि कुछ इंसानों ने अपनी ग़लत इच्छाओं की उपासना की है और केवल अपने मन के आनंद की दिशा में काम किया है।  

अगर इंसान पर उसकी ग़लत इच्छायें हावी हो जायें और वह उनका पालन करने लगे तो उसकी जानकारी और ज्ञान का कोई फ़ाएदा नहीं होगा और इंसान गुमराही का शिकार हो जाता है यद्यपि उसके पास अधिक इल्म व जानकारी ही क्यों न हो। ठीक उसी तरह जैसे कोई चिकित्सक सिगरेट के नुक़सान से अवगत होने के बावजूद सिगरेट पीता है। 

इच्छाओं का अनुसरण धूप के चश्मे के शीशे की भांति है जो इंसान को कभी भी इस बात की अनुमति नहीं देता कि वह वास्तविकताओं को उस तरह से देखें जिस तरह से वे हैं। इस प्रकार के चश्मे से जो चीज़ें दिखाई देती हैं उसी के आधार पर वह फैसला करता है। अतः इंसान इच्छाओं का पालन करने से गुमराह हो जाता है।

आइये अब सूरे जासिया की 24वीं और 25वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं, 

وَقَالُوا مَا هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا الدُّنْيَا نَمُوتُ وَنَحْيَا وَمَا يُهْلِكُنَا إِلَّا الدَّهْرُ وَمَا لَهُمْ بِذَلِكَ مِنْ عِلْمٍ إِنْ هُمْ إِلَّا يَظُنُّونَ (24) وَإِذَا تُتْلَى عَلَيْهِمْ آَيَاتُنَا بَيِّنَاتٍ مَا كَانَ حُجَّتَهُمْ إِلَّا أَنْ قَالُوا ائْتُوا بِآَبَائِنَا إِنْ كُنْتُمْ صَادِقِينَ (25)

इन आयतों का अनुवाद इस प्रकार हैः

और वह लोग कहते हैं कि हमारी ज़िन्दगी तो बस दुनिया ही की है (यहीं) मरते हैं और (यहीं) जीते हैं और हमको बस ज़माना ही (जिलाता) मारता है और उनको इसकी कुछ ख़बर तो है नहीं ये लोग तो बस अटकल की बातें करते हैं। [45:24] और जब उनके सामने हमारी खुली खुली आयतें पढ़ी जाती हैं तो उनकी कठहुज्जती बस यही होती है कि वो कहते हैं कि अगर तुम सच्चे हो तो हमारे बाप दादाओं को (जिला कर) ले तो आओ। [45:25]

 इससे पहले वाली आयत में इच्छाओं के अनुसरण की बात की गयी जिसकी वजह से इंसान हक़ीक़त से दूर हो जाता है। ये आयतें ग़लत इच्छाओं के अनुसरण के दुष्परिणामों में से एक की ओर संकेत करते हुए कहती हैं जो लोग केवल अपनी इच्छाओं के अनुसरण की चेष्टा में हैं वे मरने के बाद की दुनिया और प्रलय का इंकार करते हैं। वे कहते हैं कि मौत के बाद हम ख़त्म हो जायेंगे और हमारा कुछ भी बाक़ी नहीं रहेगा कि हमें दोबारा ज़िन्दा किया जाये और न ही हमें अपने कर्मों का जवाब देना पड़ेगा। एक दिन हम दुनिया में आये और एक दिन दुनिया से चले जायेंगे और जिस दुनिया में हम रहते हैं उसके अलावा कोई और दुनिया नहीं है कि हम उसके बारे में सोचें। 

इस प्रकार के लोगों के पास क़यामत के इंकार के लिए कोई तार्किक सुबूत नहीं है और अपने गुमान के अनुसार वे बात करते हैं। वे अल्लाह पर आस्था रखने वाले लोगों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि अगर मुर्दों का ज़िन्दा होना हक़ व सत्य है तो इसी दुनिया में हमारे पूर्वजों को ज़िन्दा करो ताकि हम इस बात पर विश्वास कर सकें कि दोबारा ज़िन्दा होने की संभावना है जबकि अल्लाह ने पूरी कायनात की रचना करके और इंसान को पैदा करके अपनी असीम शक्ति का परिचय दे दिया है। अल्लाह के लिए इंसान को दोबारा ज़िन्दा करना कोई काम ही नहीं है क्योंकि उसने इंसान को उस वक़्त पैदा किया जब वह कुछ भी नहीं था। यानी अदम से वुजूद बख़्शा। इसी तरह पूरी कायनात को। 

इन आयतों से हमने सीखाः 

ग़लत इच्छाओं का अनुसरण क़यामत के इंकार का कारण बनता है ताकि इंसान निश्चिंत होकर अपनी इच्छाओं का अनुसरण और गुनाह करता रहे। 

प्रलय का इंकार करने वालों के पास कोई तार्किक दलील नहीं है बल्कि वे अपने गुमान के अनुसार क़यामत का इंकार करते हैं। 

जिस तरह अल्लाह का इंकार करने वाले कहते थे कि जब तक हम अल्लाह को अपनी आंखों से नहीं देख लेंगे तब तक उस पर ईमान नहीं लायेंगे उसी तरह क़यामत का इंकार करने वाले भी कहते हैं कि हमें अपने पूर्वजों को ज़िन्दा होते दिखाया जाए ताकि हम क़यामत पर ईमान लायें। यह ऐसी बात है जैसे उनकी अक़्ल उनकी आंखों में है और वे हर उस चीज़ का इंकार करते हैं जिसे देख नहीं पाते हैं