क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-965
सूरए हुजुरात , आयतें 10 से 12
आइये सबसे पहले सूरए हुजरात की 10वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ إِخْوَةٌ فَأَصْلِحُوا بَيْنَ أَخَوَيْكُمْ وَاتَّقُوا اللَّهَ لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُونَ (10)
इस आयत का अनुवाद हैः
मोमिनीन तो आपस में बस भाई भाई हैं तो अपने दो भाईयों में मेल जोल करा दिया करो और ख़ुदा से डरते रहो ताकि तुम पर रहम किया जाए। [49:10]
इस्लाम धर्म की एक विशेषता व शिक्षा यह है कि वह समस्त मोमिनों के मध्य भाईचारे का संबंध स्थापित करना चाहता है। आमतौर पर जिस तरह एक परिवार में रहने वाले दो भाई स्वयं को न तो एक दूसरे से श्रेष्ठ समझते हैं और न ही कोई एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करता है उसी तरह इस्लाम धर्म सिफ़ारिश करता है कि समस्त मुसलमान व मोमिन अपने जातीय, भाषाई और क़ौमी मतभेदों के बावजूद एक दूसरे को अपना भाई समझें। पैग़म्बरे इस्लाम जब मक्का से मदीना पलायन करके गये तो उन्होंने अपने अनुयाइयों को एक दूसरे का भाई बनाया ताकि यह एलाही संबंध हमेशा मुसलमानों के मध्य क़ायेम रहे।
पैगम्बरे इस्लाम ने अपने जीवन के विभिन्न अवसरों पर इस बात को बारमबार बल देकर फ़रमाया कि किसी भी अरब को ग़ैर अरब पर और किसी भी गोरे को काले कोई वरियता प्राप्त नहीं है, सब एक दूसरे के भाई और अल्लाह के बंदे हैं।
जब भी दो लोगों या मोमिनों के दो गुटों के मध्य विवाद व लड़ाई हो जाये तो दूसरे मोमिनों का दायित्व, भाईचारे के आधार पर उनके मध्य सुलह करा देना और इसी प्रकार उनके मध्य न्याय स्थापित करा देना है।
इस आयत से हमने सीखाः
किसी को भी इस बात का अधिकार नहीं है कि वह स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझे। क्योंकि समस्त मोमिन एक दूसरे के भाई हैं। मोमिनों के मध्य एक दूसरे से संबंध माता- पिता के संबंधों की तरह नहीं हैं बल्कि उनके मध्य संबंध का आधार भाईचारा है और वे एक दूसरे के भाई हैं। जिस तरह से एक परिवार दो भाइयों के मध्य मतभेद को दूर करने के लिए प्रयास करता है उसी तरह इस्लामी समाज का दायित्व है कि वह मोमिनों के मध्य मतभेद को दूर करने का प्रयास करे और उनके मध्य शांति व सुलह करा दे। मुसलमानों व मोमिनों के मध्य शांति व सुलह अल्लाह की दया व रहमत नाज़िल होने की भूमिका है।
आइये अब सूरए हुजरात की 11वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا لَا يَسْخَرْ قَومٌ مِنْ قَوْمٍ عَسَى أَنْ يَكُونُوا خَيْرًا مِنْهُمْ وَلَا نِسَاءٌ مِنْ نِسَاءٍ عَسَى أَنْ يَكُنَّ خَيْرًا مِنْهُنَّ وَلَا تَلْمِزُوا أَنْفُسَكُمْ وَلَا تَنَابَزُوا بِالْأَلْقَابِ بِئْسَ الِاسْمُ الْفُسُوقُ بَعْدَ الْإِيمَانِ وَمَنْ لَمْ يَتُبْ فَأُولَئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ (11)
इस आयत का अनुवाद हैः
ऐ ईमान वालो (तुम में से) कोई समूह किसी दूसरे समूह की हँसी न उड़ाये, मुमकिन है कि वे लोग जिनकी हंसी उड़ाई जा रही है हंसी उड़ाने वालों से अच्छे हों। और न औरतें दूसरी औरतों की (हंसी उड़ाएं) कोई तअज्जुब नहीं कि वे उनसे अच्छी हों और तुम आपस में एक दूसरे की कमियां न निकालो और न एक दूसरे का बुरा नाम रखो, ईमान लाने के बाद बुरा नाम रखना बहुत ख़राब बात है और जो लोग बाज़ न आएँ तो ऐसे ही लोग ज़ालिम हैं। [49:11]
इससे पहली वाली आयत में मोमिनों के मध्य भाईचारे के संबंध पर बल दिया गया है। यह आयत ज़बान से होने वाले उन तीन गुनाहों की ओर संकेत करती है जिससे भाईचारे को नुकसान पहुंचता है। यह आयत कहती है कि किसी को भी किसी का मज़ाक़ उड़ाने का अधिकार नहीं है। दूसरे शब्दों में किसी भी इंसान या क़ौम को दूसरे इंसान या क़ौम का मज़ाक़ उड़ाने का अधिकार नहीं है। क्योंकि कोई भी इंसान और क़ौम दूसरे से बेहतर नहीं है कि वह दूसरे का मज़ाक़ उड़ाये या उसे गिरी हुई नज़र से देखे। इसी प्रकार किसी क़ौम या व्यक्ति को अनुचित नाम से पुकारना या उसका अनुचित नाम रखना भी सही नहीं है। क्योंकि ये चीज़ें लोगों, क़ौमों या दो पक्षों के बीच द्वेष और दुश्मनी का कारण बनती हैं। अतः अल्लाह ने इसकी गणना गुनाहों में की है और इस काम से तौबा न करने को दूसरों पर अत्याचार की अलामत बताया है।
इस आयत से हमने सीखाः
अल्लाह पर ईमान और उसके बंदों का मज़ाक़ उड़ाना दोनों आपस में एक दूसरे से मेल नहीं खाते।
दूसरी क़ौमों और इंसानों का मज़ाक़ बनाना स्वयं को श्रेष्ठ समझने की अलामत है। पवित्र क़ुरआन इस चीज़ को पसंद नहीं करता और इससे मना करता है। अल्लाह पवित्र क़ुरआन में कहता है कि ख़ुद को दूसरों से बेहतर न समझो क्योंकि जिसका तुम मज़ाक़ उड़ा रहे हो शायद वे तुमसे बेहतर हों।
दूसरों के ऐब व कमी को ज़ाहिर करना या बदनाम करना इस बात के लिए दूसरों को प्रेरित करता है कि वे भी हमारी कमी व ऐब को बयान करें और हमें बदनाम करें। दूसरे शब्दों में दूसरों को बदनाम करना एकपक्षीय नहीं है। देर-सवेर यह विषय दो पक्षीय हो जायेगा और उसका नतीजा यह होगा कि दूसरे भी हमारी कमियों व ऐबों को बयान करें।
इस्लाम का एक उद्देश्य समाज को बुरी व अनुचित परम्पराओं व आदतों से पवित्र बनाना है ताकि समाज में विवादों और तनावों आदि को रोका जा सके।
आइये अब सूरए हुजरात की 12वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا اجْتَنِبُوا كَثِيرًا مِنَ الظَّنِّ إِنَّ بَعْضَ الظَّنِّ إِثْمٌ وَلَا تَجَسَّسُوا وَلَا يَغْتَبْ بَعْضُكُمْ بَعْضًا أَيُحِبُّ أَحَدُكُمْ أَنْ يَأْكُلَ لَحْمَ أَخِيهِ مَيْتًا فَكَرِهْتُمُوهُ وَاتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ تَوَّابٌ رَحِيمٌ (12)
इस आयत का अनुवाद हैः
ऐ ईमान वालो बहुत से (बुरे) गुमानों से बचे रहो क्यों कि बाज़ बदगुमानियां गुनाह हैं और आपस में एक दूसरे की टोह में न रहा करो और न तुममें से एक दूसरे की ग़ीबत करे क्या तुममें से कोई इस बात को पसन्द करेगा कि अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाए तो तुम उससे (ज़रूर) नफ़रत करोगे और ख़ुदा से डरो, बेशक ख़ुदा बड़ा तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान है। [49:12]
यह आयत भी अपने से पहले वाली आयत की तरह उन तीन गुनाहों को बयान करती है जो समाज के सदस्यों के मध्य भाईचारे के संबंध को कमज़ोर करते हैं। पवित्र क़ुरआन मोमिनों से सिफ़ारिश करता है कि वे एक दूसरे के बारे में अच्छा विचार करें व सोचें किन्तु ख़ेद के साथ कहना पड़ता है कि कुछ लोग दूसरे के बारे में ग़लत सोचते हैं। इस प्रकार के लोग किसी प्रकार के प्रमाण के बिना अपनी अटकलों के आधार पर दूसरों के बारे में ग़लत सोचते और उनकी कमियों की टोह में रहते हैं और अकारण उन पर आरोप भी लगा देते हैं।
उस चीज़ को ग़ीबत कहा जाता है जब कोई इंसान किसी व्यक्ति की ग़ैर मौजूदगी में उसके बारे में ऐसी कोई बात बयान करे या ख़बर दे जिसके बारे में लोगों को या सामने वाले पक्ष को पता न हो और जिसके बारे में बात की जा रही है अगर वह उस बात को सुन ले तो नाराज़ होगा और उसे अच्चा नहीं लगेगा। पवित्र क़ुरआन की यह आयत ग़ीबत के बारे में बात करती है और ग़ीबत करने को अपने मरे हुए भाई के मांस खाने के समान बताती है। यानी ग़ीबत करना मरे हुए भाई के गोश्त खाने के समान है। क्योंकि जब एक इंसान दूसरे इंसान की ग़ीबत करता है यानी उसकी इज़्ज़त से खिलवाड़ करता है तो चूंकि वह वहां पर मौजूद नहीं होता है कि अपनी सफ़ाई पेश करे तो उसकी जो इज़्ज़त चली जाती है वह दोबारा वापस नहीं आती है।
इस आयत से हमने सीखाः
इस्लामी समाज का आधार एक दूसरे पर विश्वास और एक दूसरे के बारे में अच्छा ख़याल व विचार रखना होता है।
एक दूसरे के बारे में ग़लत सोचना दूसरों की टोह में रहने का कारण बनता है और अंततः ग़ीबत करने और दूसरों की कमियों व दोषों को उजागर करने का कारण बनता है।
लोगों को बुराइयों से दूर रखने का एक तरीक़ा मानवीय भावनाओं व एहसासों से लाभ उठाना है। मिसाल के तौर पर इस आयत में उस इंसान की उपमा मरे हुए भाई से दी गयी है जिसकी ग़ीबत की गयी है और हर इंसान को मरे हुए इंसान का मांस ख़ाने से घिन्न आती है।
इस्लाम धर्म में बंद गली नहीं है। इंसान के गुनाह कितने बड़े भी हों इंसान सच्चे दिल से तौबा करके उनकी भरपाई कर सकता है। अल्लाह बहुत दयावान और गुनाहों को बहुत माफ़ करने वाला है।