Jul २१, २०२५ १७:२६ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1010

सूरे मुजादेला आयतें- 7 से 11

हम सबसे पहले सूरए मुजादिला की आयत 7 और 8 की तिलावत सुनेंगे:

 

أَلَمْ تَرَ أَنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ مَا يَكُونُ مِنْ نَجْوَى ثَلَاثَةٍ إِلَّا هُوَ رَابِعُهُمْ وَلَا خَمْسَةٍ إِلَّا هُوَ سَادِسُهُمْ وَلَا أَدْنَى مِنْ ذَلِكَ وَلَا أَكْثَرَ إِلَّا هُوَ مَعَهُمْ أَيْنَ مَا كَانُوا ثُمَّ يُنَبِّئُهُمْ بِمَا عَمِلُوا يَوْمَ الْقِيَامَةِ إِنَّ اللَّهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ (7) أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ نُهُوا عَنِ النَّجْوَى ثُمَّ يَعُودُونَ لِمَا نُهُوا عَنْهُ وَيَتَنَاجَوْنَ بِالْإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَمَعْصِيَةِ الرَّسُولِ وَإِذَا جَاءُوكَ حَيَّوْكَ بِمَا لَمْ يُحَيِّكَ بِهِ اللَّهُ وَيَقُولُونَ فِي أَنْفُسِهِمْ لَوْلَا يُعَذِّبُنَا اللَّهُ بِمَا نَقُولُ حَسْبُهُمْ جَهَنَّمُ يَصْلَوْنَهَا فَبِئْسَ الْمَصِيرُ (8)

 

इन आयतों का अनुवाद है:

क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह जानता है जो कुछ आकाशों और धरती में है? तीन लोगों की कोई गुप्त बातचीत नहीं होती, मगर वह उनका चौथा होता है, और न पाँच की, मगर वह उनका छठा होता है, और न इससे कम और न अधिक, मगर जहाँ कहीं वे हों, वह उनके साथ होता है। फिर क़यामत के दिन वह उन्हें बता देगा जो कुछ उन्होंने किया। निस्संदेह अल्लाह हर चीज़ को जानने वाला है[58:7]  क्या तुमने उन लोगों की ओर ध्यान नहीं दिया जिन्हें गुप्त बातचीत से मना किया गया था? फिर वे उसी काम को दोहराते हैं जिससे उन्हें रोका गया था और गुनाह, ज़ुल्म और रसूल की नाफ़रमानी की गुप्त बातचीत करते हैं। और जब वे तुम्हारे पास आते हैं तो तुम्हें ऐसे शब्दों से सलाम करते हैं जिनसे अल्लाह ने तुम्हें सलाम नहीं किया। और अपने दिलों में कहते हैं: अल्लाह हमें हमारी बातों पर अज़ाब क्यों नहीं देता? उनके लिए जहन्नम काफ़ी है, जिसमें वे प्रवेश करेंगे। तो क्या ही बुरा ठिकाना है! [58:8] 

  आज की चर्चा की अधिकांश आयतें गुप्त बातचीत और कानाफूसी के बारे में हैं, जो आमतौर पर पारिवारिक या दोस्ताना सभाओं में होता है; जब दो या अधिक लोग एक-दूसरे के क़रीब आकर धीमी आवाज़ में बात करते हैं ताकि दूसरे न सुन सकें।

 

इस्लामी संस्कृति में, यह कार्य निंदनीय और अप्रिय माना गया है और अल्लाह ने इससे मना किया है। क्योंकि आमतौर पर सभा में इस तरह की कानाफूसी, बैठक में शामिल लोगों में गुप्त बात करने वालों के प्रति बुरे संदेह को जन्म देती है। हालांकि कुछ मामलों में, गुप्त बातचीत उन बुरे कामों के बारे में होती है जो लोग दूसरों की नज़रों से दूर करना चाहते हैं ताकि कोई उनके ग़लत कामों के बारे में न जान सके।

 

 इस संबंध में क़ुरआन कहता है: यह मत सोचो कि अगर तुम गुप्त बातचीत करोगे तो अल्लाह तुम्हारी बात नहीं सुनेगा और तुम्हारे फ़ैसलों और कार्यों से अवगत नहीं होगा। क्योंकि उसका ज्ञान हर चीज़ को घेरे हुए है और उससे कुछ भी छिपा नहीं है।

 जब अल्लाह के रसूल मदीना में थे, तो मुनाफ़िक़ीन ज़बान से इस्लाम का दावा करते थे, लेकिन दिल में ईमान नहीं रखते थे। वह रसूलुल्लाह से मिलने पर चापलूसी करते थे और उनके बारे में अतिशयोक्तिपूर्ण बातें कहते थे। लेकिन अपनी निजी सभाओं में पैग़म्बर के खिलाफ़ बातें करते थे और ऐसे फ़ैसले लेते थे जो रसूलुल्लाह के आदेशों के विरुद्ध थे।

 

इन आयतों से हमने सीखा:

 

अल्लाह के ज्ञान के सामने हर चीज़ एक समान है: विशाल आकाश और धरती, मनुष्यों के खुले और छिपे शब्द व कर्म, और हर छोटी-बड़ी बात।

 

अल्लाह के लिए कोई स्थान या समय नहीं है, लेकिन वह सभी स्थानिक और लौकिक मामलों से अवगत है और उसका ज्ञान पूरे ब्रह्मांड को घेरे हुए है।

 

अल्लाह हमारे सभी व्यवहार और बात पर नज़र रखता है और हमारे कामों के बारीक विवरण से अवगत है। क़यामत में इसी ज्ञान के आधार पर हमें सज़ा या इनाम मिलेगा।

 

चापलूसी और खुशामद कपट की निशानियों में से एक है। हमें हर प्रशंसा और तारीफ़ पर भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि हो सकता है कि यह हमें धोखा देने के लिए हो।

 

अब हम सूरए मुजादिला की आयत 9 और 10 की तिलावत सुनेंगे:

 

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا إِذَا تَنَاجَيْتُمْ فَلَا تَتَنَاجَوْا بِالْإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَمَعْصِيَةِ الرَّسُولِ وَتَنَاجَوْا بِالْبِرِّ وَالتَّقْوَى وَاتَّقُوا اللَّهَ الَّذِي إِلَيْهِ تُحْشَرُونَ (9) إِنَّمَا النَّجْوَى مِنَ الشَّيْطَانِ لِيَحْزُنَ الَّذِينَ آَمَنُوا وَلَيْسَ بِضَارِّهِمْ شَيْئًا إِلَّا بِإِذْنِ اللَّهِ وَعَلَى اللَّهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُونَ (10)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

 

ऐ ईमान वालो! जब तुम आपस में गुप्त बातचीत करो तो गुनाह, ज़ुल्म और रसूल की नाफ़रमानी की गुप्त बातचीत न करो, बल्कि नेकी और परहेज़गारी की गुप्त बातचीत करो। और उस अल्लाह से डरो जिसके पास तुम इकट्ठा किए जाओगे। [58:9]  गुप्त बातचीत तो शैतान की तरफ़ से है, ताकि ईमान वालों को दुखी करे। हालांकि वह अल्लाह की मर्ज़ी के बिना उन्हें कोई नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। इसलिए ईमान वालों को केवल अल्लाह पर भरोसा करना चाहिए।[58:10] 

 

 पिछली आयतों के सिलसिले में, ये आयतें भी गुप्त बातचीत के विषय पर हैं और कहती हैं: गुप्त बातचीत करना एक शैतानी काम है, क्योंकि यह गुप्त बात करने वालों का सभा में मौजूद लोगों पर अविश्वास दिखाता है और उपस्थित लोगों में उनके प्रति बुरे शक को जन्म देता है। निस्संदेह, यह शैतान का काम है ताकि ईमान वालों के बीच दुश्मनी पैदा करे।

 

हालांकि कुछ मामलों में, गुप्त बातचीत करना और मामले को खुलकर न बताना वांछनीय है। उदाहरण के लिए, नेक कामों और ज़रूरतमंदों की मदद के बारे में गुप्त बातचीत करना एक अच्छा काम है। एक तरफ़ तो ज़रूरतमंदों की इज़्ज़त बचाने के लिए ताकि कम लोगों को इसकी जानकारी हो, और दूसरी तरफ़ ताकि नेक काम करने वाले दिखावे से बचें और अपना नाम कम से कम प्रकट करें।

 

इन आयतों से हमने सीखा :

गुप्त बातचीत में मूल सिद्धांत इसकी हराम और मनाही होने का है, सिवाय उस स्थिति के जब कोई अधिक महत्वपूर्ण मामला जैसे किसी मोमिन की इज़्ज़त बचाना या पारिवारिक मसलहत या कोई अन्य महत्वपूर्ण हित शामिल हो।

 

 कभी-कभी दूसरों को हिदायत और नसीहत देना और उन्हें बुरे कामों से रोकना गुप्त रूप से और दूसरों की नज़रों से दूर होना चाहिए ताकि यह प्रभावी हो सके।

 

कोई भी बात या काम जो दूसरों में डर और दुख पैदा करे, वह शैतान की तरफ़ से है और ईमान की रूह के साथ मेल नहीं खाता।

 

दुश्मनों की गुप्त साजिशों के सामने, ईमान वाले अल्लाह पर भरोसा करते हैं और इस विश्वास पर होते हैं कि जब तक अल्लाह न चाहे, विरोधी उन्हें कोई नुक़सान नहीं पहुँचा सकते।

 

आइए अब सूरए मुजादिला की आयत 11 की तिलावत सुनते हैं:

 

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا إِذَا قِيلَ لَكُمْ تَفَسَّحُوا فِي الْمَجَالِسِ فَافْسَحُوا يَفْسَحِ اللَّهُ لَكُمْ وَإِذَا قِيلَ انْشُزُوا فَانْشُزُوا يَرْفَعِ اللَّهُ الَّذِينَ آَمَنُوا مِنْكُمْ وَالَّذِينَ أُوتُوا الْعِلْمَ دَرَجَاتٍ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرٌ (11)

ऐ ईमान वालो! जब तुमसे कहा जाए कि सभाओं में जगह बनाओ तो जगह जगह दे दो, अल्लाह तुम्हारे लिए राहत पैदा करेगा। और जब कहा जाए कि उठो तो उठ जाओ। अल्लाह तुम में से उन लोगों को जिन्होंने ईमान क़ुबूल किया है और जिन्हें ज्ञान दिया गया है, ऊँचे दर्जे पर ले जाएगा और अल्लाह तुम्हारे कामों से अच्छी तरह वाकिफ़ है।

 

यह आयत सभा के कुछ और आदाब की ओर इशारा करती है और कहती है: जब कोई व्यक्ति सभा में आता है, तो उसके लिए जगह बनाओ और उसे जगह दो। यह कार्य तुम्हारे बीच प्रेम को आकर्षित करता है और मैत्रीपूर्ण संबंधों को मज़बूत करता है, जबकि सभा में कानाफूसी करना बुरे संदेह और उपेक्षा के भाव को जन्म देता है।

 

आयत आगे कहती है: अगर नए आने वालों का सम्मान करने के लिए जगह से उठना ज़रूरी है, तो अपनी जगह से उठ जाओ, न कि ज़मीन से चिपके रहो और सिर्फ़ अपने आराम और सुख के बारे में सोचो। बेशक, अगर तुम उठोगे और जगह बनाओगे, तो अल्लाह भी तुम्हारे जीवन में राहत पैदा करेगा और तुम्हें विस्तार देगा।

 

हालांकि अगर नया आने  वाला विद्वान और ज्ञानी हो, तो यह सम्मान इस तरह से होना चाहिए कि उसकी विशेषता दूसरों पर स्पष्ट हो और ज्ञानी को सभा में मौजूद लोगों द्वारा सम्मानित किया जाए।

 

इस आयत से हमने सीखाः

 

 उठने बैठने में सामाजिक शिष्टाचार और दूसरों का सम्मान, अल्लाह पर ईमान के तक़ाज़ों में से है और इस्लाम ने इस पर ज़ोर दिया है।

सामाजिक मामलों और सार्वजनिक स्थानों में, अपने लिए विशेष अधिकार का दावा नहीं करना चाहिए और दूसरों को उस स्थान या उसकी सुविधाओं के उपयोग से वंचित नहीं करना चाहिए।

दूसरों के काम और जीवन में राहत पैदा करने से, अल्लाह इंसान के दुनियावी और आख़ेरत के जीवन में राहत पैदा करता है।

इस्लामी समाज में, ज्ञान और ईमान रखने वालों को उच्च स्थान प्राप्त होना चाहिए।