Sep १५, २०२५ १५:३८ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1015

सूरए हश्र आयतें 14 से 19

आइए सबसे पहले सूरह हश्र की आयत संख्या 14 और 15 की तिलावत सुनते हैं

«لَا یُقَاتِلُونَکُمْ جَمِیعًا إِلَّا فِی قُرًى مُحَصَّنَةٍ أَوْ مِنْ وَرَاءِ جُدُرٍ بَأْسُهُمْ بَیْنَهُمْ شَدِیدٌ تَحْسَبُهُمْ جَمِیعًا وَقُلُوبُهُمْ شَتَّى ذَلِکَ بِأَنَّهُمْ قَوْمٌ لَا یَعْقِلُونَ»، «کَمَثَلِ الَّذِینَ مِنْ قَبْلِهِمْ قَرِیبًا ذَاقُوا وَبَالَ أَمْرِهِمْ وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِیمٌ»

इन आयतों का अनुवाद है

दुश्मन तुमसे सामूहिक रूप से नहीं लड़ते, सिवाय मज़बूत क़स्बों या दीवारों के पीछे से। उनके बीच आपस में कड़ी लड़ाई होती है। तुम उन्हें एकजुट समझते हो, जबकि उनके दिल बिखरे हुए हैं। यह इसलिए है कि वे ऐसे लोग हैं जो समझदारी नहीं रखते।[59:14]  उनकी (बनी नुज़ैर के यहूदियों की) मिसाल उन लोगों जैसी है जो उनसे थोड़ा पहले थे। उन्होंने अपने कामों का बुरा नतीजा चखा और उनके लिए दर्दनाक अज़ाब है।[59:15] 

पिछले कार्यक्रम में मदीना के यहूदियों की मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िश और उनके साथ मुनाफ़िक़ों के गुप्त सहयोग की बात हुई थी। ये आयतें आगे कहती हैं: तुम्हारे दुश्मन बाहर से एकजुट दिखते हैं, लेकिन असल में ऐसा नहीं है। हर कोई अपने फ़ायदे के पीछे है—उनके दिल एक नहीं हैं और हो सकता है कि वे आपस में कड़ी लड़ाई भी करते हों। 

अल्लाह ने मदीना के मोमिनों का ऐसा डर यहूदियों के दिलों में बैठा दिया है कि वे अपने घरों और क़िलों की दीवारों के पीछे से बाहर नहीं निकलते और सीधे मैदान-ए-जंग में आने से कतराते हैं, ताकि अल्लाह की मर्ज़ी से तुम उन पर विजय पा सको। इसलिए उन्होंने मुनाफ़िक़ों पर भरोसा करके दुनिया में ही इसका कड़वा नतीजा चख लिया और आख़िरत में भी उनके लिए सख़्त अज़ाब तैयार है। 

इन आयतों से हमने सीखा

अगर मोमिन अल्लाह पर भरोसा रखकर दीन के दुश्मनों के सामने डट जाएँ, तो अल्लाह दुश्मनों के दिलों में ऐसा ख़ौफ़ डाल देता है कि वे पीछे हटने और हार मानने पर मजबूर हो जाते हैं। 

दिखावटी एकता अस्थायी होती है। असली एकता वह है जो अल्लाह और इंसानी मूल्यों पर आधारित हो—वही स्थायी और टिकाऊ होती है। 

 अतीत, भविष्य के लिए मार्गदर्शक है। पिछली क़ौमों की कहानियाँ आने वाली पीढ़ियों के लिए सबक़ होनी चाहिएं। 

आइए अब सूरह हश्र की आयत संख्या 16 और 17 की तिलावत सुनते हैं

«کَمَثَلِ الشَّیْطَانِ إِذْ قَالَ لِلْإِنْسَانِ اکْفُرْ فَلَمَّا کَفَرَ قَالَ إِنِّی بَرِیءٌ مِنْکَ إِنِّی أَخَافُ اللَّهَ رَبَّ الْعَالَمِینَ»، «فَکَانَ عَاقِبَتَهُمَا أَنَّهُمَا فِی النَّارِ خَالِدَیْنِ فِیهَا وَذَلِکَ جَزَاءُ الظَّالِمِینَ»

इन आयतों का अनुवाद हैः

यह (अहले-किताब का मुनाफ़िक़ों से धोखा खाना) शैतान की चाल जैसा है, जब उसने इंसान से कहा: 'कुफ़्र कर!' फिर जब उसने कुफ़्र किया, तो कहा: 'मैं तुमसे बरी हूँ! मैं दुनियों के रब अल्लाह से डरता हूँ।[59:16] तो उन दोनों का अंजाम यह हुआ कि वे हमेशा आग में रहेंगे। और यही ज़ालिमों की सज़ा है।[59:17] 

जैसा कि सूरह अनफ़ाल में आया है: बद्र की लड़ाई (मुसलमानों और मुशरिकों की पहली जंग) में शैतान ने मुशरिकों के दिलों में यह बात डाली कि "मुसलमान थोड़े हैं और तुम उन पर विजय हासिल कर लोगे।" इस तरह शैतान ने उन्हें लड़ाई के लिए उकसाया, लेकिन जब उसने मुसलमानों की ताक़त देखी, तो पीछे हट गया और मुशरिकों को अकेला छोड़ दिया। 

इन आयतों में भी शैतान की धोखेबाज़ी की बात की गई है। वह मुसीबत में फँसे इंसान के दिल में यह बात डालता है कि "अल्लाह से कुछ नहीं होगा, उसे छोड़ दे—तभी तेरी मुसीबतें दूर होंगी।" लेकिन जब इंसान अल्लाह को भूल जाता है, तो शैतान भी उसे अकेला छोड़ देता है और उसे निराशा के गहरे गड्ढे में धकेल देता है। 

मुनाफ़िक़ों ने भी मदीना के यहूदियों को ऐसे ही धोखा दिया: उन्होंने कहा कि  हम तुम्हारे साथ हैं, तुम मुसलमानों पर ज़रूर विजय हासिल करोगे। लेकिन जंग के वक़्त उन्होंने यहूदियों का साथ छोड़ दिया। यहूदी न सिर्फ़ दुनिया में मोमिनों से हारे, बल्कि क़यामत में भी अल्लाह की सज़ा में गिरफ़्तार होंगे। 

इन आयतों से हमने सीखा

 निफ़ाक़ इंसान को शैतान बना देता है—वह दूसरों को धोखा देता है और ख़ुद मैदान से भाग जाता है। 

 मुनाफ़िक़ ख़ुदा के डर का बहाना बनाकर अपने साथियों का साथ छोड़ देते हैं, ताकि मुसीबत के वक़्त बच निकलें। 

सिर्फ़ शैतान ही नहीं, मुनाफ़िक़ भी इंसानी शक्ल वाले शैतान हैं, जो मीठी ज़बान से दूसरों को धोखा देते हैं। 

अब हम सूरह हश्र की आयत 18 और 19 की तिलावत सुनते हैं

«یَا أَیُّهَا الَّذِینَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَلْتَنْظُرْ نَفْسٌ مَا قَدَّمَتْ لِغَدٍ وَاتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ خَبِیرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ»، «وَلَا تَکُونُوا کَالَّذِینَ نَسُوا اللَّهَ فَأَنْسَاهُمْ أَنْفُسَهُمْ أُولَئِکَ هُمُ الْفَاسِقُونَ»

इन आयतों का अनुवाद हैः

ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो और हर शख़्स को देखना चाहिए कि उसने कल (क़यामत) के लिए क्या आगे भेजा है। अल्लाह से डरो, बेशक अल्लाह तुम्हारे कामों से ख़ूब वाक़िफ़ है।[59:18] और उन लोगों जैसे न बनो जिन्होंने अल्लाह को भुला दिया, तो अल्लाह ने उन्हें ख़ुदफ़रामोशी में मुब्तला कर दिया। यही फ़ासिक़ हैं।[59:19]

मदीना के यहूदियों और मुनाफ़िक़ों के बारे में आयतों के अंत में क़ुरआन मोमिनों से कहता है: तुम उनके अंजाम से सबक़ लो और अल्लाह को मत भूलो, नहीं तो अल्लाह तुम्हें ख़ुद ही छोड़ देगा और तुम अपने इंसानी मूल्यों को भूल जाओगे। ऐसा होने पर तरक़्क़ी और अल्लाह की क़ुरबत की जगह तुम दुनिया और उसकी ख़्वाहिशों में फँस जाओगे, जिसका अंजाम गुनाह और पाप है। 

इसलिए हमेशा अल्लाह को याद रखो। गुनाह के वक़्त उसकी नाफ़रमानी से बचो और समझो कि वह देख रहा है। हर नेक काम करते वक़्त जान लो कि अल्लाह उससे वाक़िफ़ है और उसे क़यामत के लिए सुरक्षित रखता है। 

इन आयतों से हमने सीखा

 

 ईमान की शर्त तक़्वा (परहेज़गारी) है—बिना अमल के सिर्फ़ दिल के यक़ीन से काम नहीं चलता। 

 हर इंसान को क़यामत की फ़िक्र करनी चाहिए—यह उम्मीद न रखे कि उसके वारिस उसके लिए नेकी करेंगे। 

 जो नेक अमल हम आख़ेरत के लिए भेज रहे हैं, उस पर ग़ौर करो। 

 अल्लाह के इल्म और उसकी मौजूदगी पर यक़ीन इंसान को परहेज़गार बनाता है और उसे अच्छे काम करने और बुराइयों से बचने की ताक़त देता है। 

 जो अल्लाह को भूल जाता है, वह अपनी पैदाइश के मक़सद को भी भूल जाता है। ऐसा इंसान अपनी इंसानियत से दूर हो जाता है और अपनी उम्र और क़ाबिलियत को बर्बाद कर देता है।