क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1019
सूरए सफ़ आयतें 1से 6
पिछले कार्यक्रम में सूरए मुमतहना की तफ़सीर पूरी होने के बाद, इस कार्यक्रम में हम सूरए सफ़ की आयतों की आसान तफ़सीर शुरू कर रहे हैं। यह सूरा भी मदीना में नाज़िल हुआ और इसमें 14 आयतें हैं। इसकी आयतों का मुख्य विषय इस्लाम की रक्षा के लिए तैयारी और अल्लाह के रास्ते में जिहाद है, जिससे इस्लाम के सभी धर्मों और मतों पर विजय पाने का अल्लाह का वादा पूरा होगा।
आइए सबसे पहले हम सूरह सफ़ की आयत 1 से 3 तक की तिलावत सुनते हैं:
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ وَهُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ (1) يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا لِمَ تَقُولُونَ مَا لَا تَفْعَلُونَ (2) كَبُرَ مَقْتًا عِنْدَ اللَّهِ أَنْ تَقُولُوا مَا لَا تَفْعَلُونَ (3)
इन आयतों का अनुवाद है:
अल्लाह के नाम से, जो बड़ा मेहरबान और निहायत रहम वाला है।
जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, सब अल्लाह की तस्बीह करते हैं, और वही है अजेय और तमाम हिकमतों वाला है। [61:1] ऐ ईमान वालो! तुम वह क्यों कहते हो जो करते नहीं? [61:2] अल्लाह के यहाँ बहुत नाराज़गी की बात है कि तुम वह कहो जो करते नहीं। [61:3]
यह सूरा भी कुछ अन्य सूरों की तरह अल्लाह की तस्बीह (पवित्रता के बयान) से शुरू होता है और इस सच्चाई पर ज़ोर देता है कि पूरी कायनात की सभी मखलूक़ात अल्लाह को हर तरह की कमी, ज़ुल्म और जेहालत से पाक बताते हैं और उसे हर ज़रूरत से बे-नियाज़ समझते हैं।
आगे की आयतें मोमिनीन को दीन की तालीमात के एक अहम सिद्धांत की तरफ़ ध्यान दिलाती हैं और कहती हैं: बिना अमल के दावे का कोई मूल्य नहीं, बल्कि यह अल्लाह के ग़ुस्से को भी न्यौता देता है। तुम में से कुछ लोग आम हालात में कहते हैं: अगर ज़रूरत पड़ी तो मैं अल्लाह के रास्ते में अपनी जान और माल क़ुर्बान कर दूँगा ताकि अल्लाह का दीन क़ायम रहे, लेकिन जब दुश्मन हमला कर देता है और दीन की हिफ़ाज़त और जिहाद की ज़रूरत होती है, तो पीछे हट जाते हैं और मैदान-ए-जंग में नहीं उतरते।
इन आयतों से हमने सीखा:
क़ुरआनी संस्कृति में, कायनात में एक तरह की समझ और जागरूकता है, और वह अल्लाह की तस्बीह और तक़्दीस करके उसकी ताक़त और हिकमत की गवाही देती है।
सिर्फ़ ईमान और दीनदारी का दावा करना काफ़ी नहीं, बल्कि अमल में भी इस दावे को साबित करना ज़रूरी है।
जो व्यक्ति ज़बान से दीन की हिमायत का नारा लगाता है, लेकिन अमल में इस ओर कोई क़दम नहीं उठाता, वह यह न समझे कि अल्लाह को धोखा दे सकता है। ऐसा व्यक्ति दुनिया और आख़ेरत में अल्लाह के ग़ुस्से का सामना करेगा।
आइए अब हम सूरए सफ़ की आयत 4 की तिलावत सुनते हैं:
إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الَّذِينَ يُقَاتِلُونَ فِي سَبِيلِهِ صَفًّا كَأَنَّهُمْ بُنْيَانٌ مَرْصُوصٌ (4)
इस आयत का अनुवाद है:
अल्लाह उन लोगों से मुहब्बत करता है जो उसके रास्ते में एक साथ मिलकर लड़ते हैं, मानो वे एक फ़ौलादी दीवार हैं।[61:4]
पिछली आयतों में उन लोगों का ज़िक्र था जो बिना अमल के दावों से अल्लाह के ग़ुस्से का सबब बनते हैं। यह आयत कहती है कि जो लोग अमल करने वाले हैं, वे अल्लाह की ख़ास मेहरबानी और रहमत के हक़दार होते हैं और इस तरह अल्लाह के महबूब बन जाते हैं।
दुनिया में हमेशा से जंग और झगड़े रहे हैं और रहेंगे। यह झगड़े आमतौर पर ज़्यादा ताक़त और दौलत हासिल करने, दूसरे मुल्कों पर हुकूमत करने और उनकी ज़मीनों और संसाधनों पर क़ब्ज़ा करने के लिए होते हैं। लेकिन इस्लाम में जिहाद का मक़सद ज़ालिमों और सितमगरों से लड़ना और तौहीद पर आधारित के दीन को फैलाना है।
ज़ाहिर है कि मुसलमानों के बीच मतभेद और उनका बिखराव दुश्मनों के लिए रास्ता बनाता है और मोमिनीन को दुश्मन के हमले के सामने कमज़ोर कर देता है। इसलिए यह आयत ईमान वालों की एकता और इत्तेहाद पर ज़ोर देती है और इसे कामयाबी की कुंजी मानती है।
इस आयत से हमने सीखा:
अल्लाह की रज़ामंदी और मुहब्बत हासिल करना उसके रास्ते में जिहाद और कोशिश के बिना मुमकिन नहीं।
जब ज़ालिम और सितमगर दुश्मन का सामना हो, तो सभी क़ौमी, ज़बानी और मज़हबी मतभेदों को छोड़कर एक मज़बूत और एकजुट पंक्ति में खड़ा होना चाहिए।
आइए अब सूरह सफ़ की आयत 5 और 6 की तिलावत सुनते हैं:
وَإِذْ قَالَ مُوسَى لِقَوْمِهِ يَا قَوْمِ لِمَ تُؤْذُونَنِي وَقَدْ تَعْلَمُونَ أَنِّي رَسُولُ اللَّهِ إِلَيْكُمْ فَلَمَّا زَاغُوا أَزَاغَ اللَّهُ قُلُوبَهُمْ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْفَاسِقِينَ (5) وَإِذْ قَالَ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ إِنِّي رَسُولُ اللَّهِ إِلَيْكُمْ مُصَدِّقًا لِمَا بَيْنَ يَدَيَّ مِنَ التَّوْرَاةِ وَمُبَشِّرًا بِرَسُولٍ يَأْتِي مِنْ بَعْدِي اسْمُهُ أَحْمَدُ فَلَمَّا جَاءَهُمْ بِالْبَيِّنَاتِ قَالُوا هَذَا سِحْرٌ مُبِينٌ (6)
इन आयतों का अनुवाद है:
और (याद करो) जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा: 'ऐ मेरी क़ौम! तुम मुझे क्यों तकलीफ़ देते हो, जबकि तुम जानते हो कि मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ?' फिर जब वे (सच्चाई से) हट गए, तो अल्लाह ने उनके दिलों को (भी) भटका दिया, और अल्लाह नाफ़रमान बदकार लोगों को हिदायत नहीं देता। [61:5] और (याद करो) जब ईसा बिन मरयम ने बनी इस्राईल से कहा: 'मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ, अपने से पहले की तौरात की पुष्टि करने वाला हूँ, और उस रसूल की ख़ुशख़बरी देने वाला हूँ जो मेरे बाद आएगा, उसका नाम अहमद होगा।' फिर जब वह उनके पास खुली निशानियाँ लेकर आए, तो उन्होंने कहा: 'यह तो खुला जादू है।' [61:6]
ये आयतें बनी इस्राईल के दो बड़े पैग़म्बरों—हज़रत मूसा और हज़रत ईसा—के साथ उनके व्यवहार का ज़िक्र करती हैं और कहती हैं: जो लोग हज़रत मूसा पर ईमान लाए थे, उनमें से कुछ ने उन्हें ग़लत बातें कहकर और नाफ़रमानी करके तकलीफ़ पहुँचाई, और ईमान वालों में एकता और भाईचारे की जगह फूट और बिखराव पैदा किया।
ज़ाहिर है कि जिसे वे ख़ुद अल्लाह का पैग़म्बर मानते थे, उसके साथ ऐसा ज़ालिमाना सुलूक उनके लिए अल्लाह की हिदायत से दूरी के सिवा कुछ नहीं लाया, और आख़िरकार वह गिरोह बुरे अंजाम से दो-चार हुआ।
हज़रत ईसा भी ख़ुद को दो पैग़म्बरों के बीच का पैग़म्बर मानते थे; अपने से पहले के पैग़म्बर की किताब और शिक्षाओं की तस्दीक़ करते थे, और अपने बाद आने वाले पैग़म्बर (हज़रत मुहम्मद) की ख़ुशख़बरी देते थे। लेकिन फिर भी उन्होंने उन्हें झुठलाया और उनके चमत्कारों को जादू कहा।
इन आयतों से हमने सीखा:
पिछली क़ौमों और पैग़म्बरों के इतिहास से वाक़िफ़ होना इबरत और नसीहत का सबब है, और ईमान वाले इंसान को मुश्किलात और रुकावटों के सामने मज़बूत और स्थिर बनाता है।
ऐसी बातें और व्यवहार जो पैग़म्बरों और अल्लाह के दोस्तों को तकलीफ़ पहुँचाएँ, इंसान को अल्लाह की हिदायत से महरूम कर देती हैं और उसे सच्चे रास्ते से भटका देती हैं।
सभी पैग़म्बरों का मक़सद एक ही था, इसलिए वे कभी आपस में प्रतिस्पर्धा नहीं करते थे। वे अपने बाद आने वाले पैग़म्बर की ख़ुशख़बरी देते थे और लोगों को उस पर ईमान लाने की ताकीद करते थे।
अल्लाह की तरबियत में इंसान की तरक़्क़ी और उसके उत्थान के लिए कई दर्जे हैं। हर दर्जा अगले दर्जे की तैयारी है, और हर शिक्षक पिछले शिक्षक की पुष्टि करता है।