ईरान की सांस्कृतिक धरोहर-4
ईरान के ग्यारहवीं ईसवी के प्रसिद्ध शायर उमर ख़य्याम ने अपने शेरों में मानव जाति के मिट्टी से पैदा होने का ज़िक्र किया है।
ईरान के ग्यारहवीं ईसवी के प्रसिद्ध शायर उमर ख़य्याम ने अपने शेरों में मानव जाति के मिट्टी से पैदा होने का ज़िक्र किया है। उनके दौर में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला बहुत प्रचलित थी, इस कला को उन्होंने मनुष्य के अस्तित्व में आने से उपमा दी है। उन्होंने अपने शेर में मनुष्य को नाज़ुक जाम से उपमा दी है और उनकी यह उपमा पवित्र क़ुरआन में मनुष्य के वजूद में आने से संबंधित आयतों की ओर इशारा है।
7 और 8 शताब्दी ईसापूर्व माद या मीड शासन श्रंख्ला के काल में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला के बारे में अधिकार जानकारी मौजूद नहीं है। इस काल के अवशेष पश्चिमी और उत्तरी ईरान में मौजूद हैं। पुरातात्विक खुदायी में मिले बर्तनों से पता चलता है कि इस शासन श्रंख्ला के काल में मिट्टी के बर्तन ख़ास तौर पर मिट्टी के चमकते हुए या मीनाकारी किए हुए बर्तन बनाने की कला बहुत रचनात्मक थी।
छठी शताब्दी ईसापूर्व में हख़ामनेशी शासन काल में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला में बहुत प्रगति हुयी। इस काल में मिट्टी के बर्तन नए नए रूप व आकार में बनाए गए कि इसकी एक मिसाल राइथन बर्तन है। राइथन प्राचीन काल में ऐसे बर्तन को कहते थे जो गाय, मछली या मुर्ग़ी की शक्ल के बनाए जाते थे और इन बर्तनों को पीने के पदार्थ के लिए इस्तेमाल किया जाता था। राइथन बर्तन का सामने वाला भाग किसी पशु की शक्ल का होता था और जानवर की सींग पीछे की ओर मुड़ी होती थी। इस प्रकार के बर्तन बनाने का चलन हख़ामनेशी शासन काल में अपने चरम पर पहुंचा। इस कला की जड़ माद या मीड शासन श्रंख्ला से मिलती है। राइथन के कुछ मिट्टी के बर्तन भी बरामद हुए हैं जिन पर उकेरे हुए सुंदर चित्र बने हुए हैं।
दक्षिणी ईरान के पर्सपोलिस या दक्षिण-पश्चिमी ईरान के शूश में की गयी पुरातात्विक खुदाई में यह बात सामने आयी कि महलों की दीवारों पर चमकती हुयी ईंटें लगी हुयी हैं और मिट्टी के बर्तनों पर पशुओं और सैनिकों की तस्वीरें बनी हुयी हैं।
तीसरी शताब्दी ईसापूर्व से तीसरी ईसवी शताब्दी के बीच ईरान में अश्कानी शासन श्रंख्ला का राज था। यह वह काल था जब ईरानी संस्कृति व सभ्यता पर यूनानी संस्कृति का प्रभाव पड़ा और इसके नतीजे में ईरानी कलाओं पर भी इसका बहुत प्रभाव पड़ा। ईरान की सीमा से बाहर की गयी पुरातात्विक खुदाई यह दर्शाती हैं कि अश्कानी शासन काल की इस कला को मध्य एशिया, इराक़ और सीरिया में बहुत अच्छी तरह अपनाया गया जिसके अच्छे नमून इन क्षेत्रों में मौजूद हैं। अश्काली शासन काल के पुरातात्विक स्थल ईरान में बहुत हैं जिनमें कंगावर, सद्द दरवाज़े, हेगमताने और गुर्गान, गीलान तथा सीस्तान के मैदानी इलाक़े उल्लेखनीय हैं।
इस व्यापक क्षेत्र में मिलने वाली चीज़ों से पुरातनविद् इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अश्कानी शासन काल के अधीन क्षेत्रों में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला एक जैसी नहीं थी बल्कि लोगों में इसकी मांग बर्तनों के प्रकार और गुणवत्ता के अनुसार अलग अलग स्तर की थी। अश्कानी शासन काल में सोने और चांदी के प्रचलित बर्तन की ओर लोगों के रुझान के कारण मिट्टी के बर्तन के निर्माण में कमी आयी किन्तु यह काल ईरान में मिट्टी के बर्तनों के निर्माण के इतिहास के अध्ययन में बहुत अहमियत रखता है।
अश्कानी शासन काल के मिट्टी के बर्तन को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। एक चमकदार और दूसरे बिना चमक वाले। ज़्यादातर प्याले, छोटे कप और उभरे हुए तले तथा पतली परत वाले बर्तन बिना चमक वाले मिट्टी के बर्तन होते थे। इस प्रकार के बर्तन दैनिक जीवन में बहुत इस्तेमाल होते थे और इस प्रकार के बर्तन जिन क्षेत्रों का अभी हमने उल्लेख किया है, वहां से बरामद हुए हैं। किन्तु चमकदार मिट्टी के बर्तन प्रायः दरबारों में इस्तेमाल होते थे या शासक इस्तेमाल करते थे। मिट्टी के चमकदार बर्तनों का उत्पादन शासन के केन्द्रीय इलाक़ों में किया जाता था। यह चमकीले बर्तन ब्राइट ग्रीन या फ़िरोज़ई नीले होते थे। अनाज रखने से विशेष बड़े पीपे, इंसान की तस्वीर से सुसज्जित ताबूत, गुलदान, और सुराही इस काल की मिट्टी की बची हुयी चीज़ें हैं जो चमकदार हैं।
सासानी शासन काल यानी तीसरी ईसवी शताब्दी से सातवीं ईसवी शताब्दी तक मिट्टी के बर्तन बनाने की कला में थोड़ा परिवर्तन हुआ बल्कि इस काल में ज़्यातादर अश्काली काल की परंपरा को ही अपनाया गया। नीशापूर, सीराफ़, कंगावर, दश्ते गुर्गान, तूरंग तप्पे, तख़्ते सुलैमान, तख़्ते अबू नस्र और क़ाबीरा उन इलाक़ों में हैं जहां सासानी शासन काल की कलाओं के नमूने बरामद हुए हैं। सासानी शासन काल में मिट्टी के बर्तनों को ज़्यादातर फ़िरोज़ई हरे और फ़िरोज़ई नीले रंग से रंगा जाता था।
इस काल के मिट्टी के बर्तन चमकदार और बिना चमक वाले दोनों ही प्रकार के होते थे।
छोटी गर्दन व गोल तथा हत्थे और बिना हत्थे वाले घड़े, लंबे हत्थे एवं गुलाबी मुंह वाले घड़े, तीन स्टैंड वाले घड़े, गोल हत्थे वाली सफ़र के लिए विशेष सुराही, इस दौर में बनने वाले मिट्टी के बर्तन थे। इसी प्रकार दस्ते वाले प्याले, मिट्टी की छलनी, पशुओं की शक्ल वाले बर्तन, मर्द और औरतों की मिट्टी की प्रतिमा, सासानी काल में मिट्टी से बनने वाली चीज़ें थीं। मिट्टी के इन बर्तनतों में कुछ भूरे और कुछ दूध के रंग जैसे थे। मिट्टी के बर्तन ज्योमितीय डीज़ाइन में प्रचलित थे जिन पर चित्र बने होते थे। इसी प्रकार इंसान और जानवरों के चित्र वाली मोहरें प्रचलित थीं।
सातवीं ईसवी शताब्दी के आख़िर में इस्लाम के उदय के साथ साथ आठवीं और नवीं शताब्दियों में मिट्टी के बर्तन के उद्योग व कला को दूसरी कलाओं की तरह दुबारा रौनक़ मिली। इस काल के शुरु में ईरानी कुम्हार, किसी हद तक इस्लाम से पहले वाली परंपरा का पालन करते थे किन्तु धीरे धीरे अनेक कारणों से पूरे ईरान में कुम्हारों ने चमक, आकार, और सजावट की दृष्टि से नए बर्तन बनाए। इस रचनात्मकता में धार्मिक विचारों, चीन जैसे सुदूर पूर्व के देशों के मिट्टी के बर्तनों की कुम्हारों को जानकारी और पारंपरिक शैली का महत्वपूर्ण रोल था जिनसे ईरानी कुम्हारों के हाथों मिट्टी के सुदंर व नाज़ुक बर्तन वजूद में आए।
प्राचीन शहरों, इस्लाम के आरंभिक काल की राजधानियों और राजनैतिक केन्द्रों में हुयी खुदाई के दौरान मिले मिट्टी के बर्तन और भट्टियां ये दर्शाते हैं कि सामानी, ग़ज़्नवी और आले बूये शासन काल में मिट्टी के बर्तन की कला को विशेष स्थान प्राप्त था और इन कालों में इस कला में व्यापक विकास हुआ। इसी प्रकार वास्तुकला में विकास से भी मिट्टी के बर्तन की कला में विकास में मदद मिली।
अलबत्ता इस बात का ज़िक्र भी ज़रूरी है कि इन कालों के दौरान बहुत सी कलाओं को सासानी काल की कलाओं से प्रेरणा मिली किन्तु नई शैली और उपयोगिता में बदलाव के साथ। मिसाल के तौर पर गेबरी या शामलू के नाम से मशहूर मिट्टी के बर्तन पर उकेरे हुए चित्र होते थे। इसी प्रकार सारी नामक मिट्टी के बर्तन रंग बिरंगे होते और इस प्रकार के बर्तनों पर इस्लाम पूर्व की कलाओं की छाप दिखाई देती है किन्तु धीरे-धीरे मुसलमान कलाकारों की रचनात्मकता से इस कला में बदलाव आया और इस्लामी पृष्ठभूमि के साथ मिट्टी के बर्तन का उत्पादन होने लगा। (MAQ)
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