Sep १३, २०१५ १३:४५ Asia/Kolkata

ईरान को टाइल निर्माण कला की मात्रभूमि कहना ग़लत न होगा।

ईरान को टाइल निर्माण कला की मात्रभूमि कहना ग़लत न होगा। इतिहास के अलग अलग काल में ईरान में टाइल के निर्माण और उसके रूप की नज़र से बहुत से बदलाव आए। मिसाल के तौर पर ईलख़ानी, तैमूरी और सफ़वी शासन काल में टाइल निर्माण की कला अपने चरम पर पहुंची और कुछ दौर ऐसे थे जिसमें इसकी लोकप्रियता में कमी आयी।

टाइल भी मिट्टी का उत्पाद है जो एक निर्धारित तापमान में पकने के बाद तय्यार होती है। यह पानी कम अवशोषित करती है। इसी प्रकार यह दबाव और ठोकर को ज़्यादा देर तक सहन कर सकती है और देर में घिसती है।

 

 

ईरान में टाइल निर्माण की कड़ी इतिहास पूर्व के काल से मिलती है। ईरानी वास्तुकला के डेकोरेटिव आर्ट्स में टाइल को विशेष स्थान हासिल है और बहुत प्राचीन समय से ऐतिहासिक इमारतों में टाइल का इस्तेमाल होता आया है। टाइल यूं तो मिट्टी की होती है लेकिन पत्थर की भी टाइल होती है। यहां तक कि धातु की भी टाइल होती है जिसे छत, ज़मीन का फ़र्श, या दीवार पर लगाया जाता है और आम बोल-चाल में उस ढांचे को भी टाइल कहा जा सकता है जो आयताकार हो।

ज़्यादातर टाइल को दीवार और छत को सजाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। यह सादे चौकोर रूप में या मोज़ैक के रूप में दिखाई देती हैं। यूं तो टाइल को सिरामिक से बनाया जाता है लेकिन कभी टाइल शीशे, संगमरमर, ग्रेनाइट और पत्थर के टुकड़ों की भी बनायी जाती है।

 

 

ईरान में इस कला व उद्योग का इतिहास बहुत पुराना है। ईरानी वास्तुकला के महत्वपूर्ण तत्व के रूप में कोट चढ़ी हुयी ईंटों का इस्तेमाल इस्लाम के बाद ईरान से इस्लामी जगत के दूसरे क्षेत्रों में प्रचलित हुआ। इसका एक अच्छा नमूना तुर्की का ईज़नीक शहर है। ईरान में अनेक महल, मस्जिद और आम लोगों के इस्तेमाल के लिए बनी इमारतों पर टाइल लगी हुयी है लेकिन टाइल के इस्तेमाल की नज़र से सबसे अहम व मशहूर शहर इस्फ़हान है। इस शहर में जगह जगह पर आप को टाइल की कला दिखाई देगी।

मस्जिद के गुबंदों में टाइल का सबसे पुराना काम सातवीं और आठवीं ईसवी शताब्दी का है। टाइल के निर्माण में सबसे ज़्यादा फ़िरोज़ई रंग इस्तेमाल किया गया है। जैसा कि सलजूक़ी दौर में ऐतिहासिक इमारतों में सादी ईंटों को फ़िरोज़ई रंग की कोट चढ़ी हुयी ईटों से सजाया जाता था। कभी कभी इन टाइलों को इस प्रकार सजाया जाता था कि लगता था कि कूफ़ी लिपि में कुछ लिखा हुआ है। कभी कभी आम ईंटों के बीच में जगह जगह पर फ़िरोज़ई रंग की कोट चढ़ी हुयी ईंट लगा दी जाती थी। फ़िरोज़ई रंग की ईंट पर कूफ़ी लिपि में लिखावट का सबसे पुराना नमूना, ईरान के प्राचीन चीज़ों के म्यूज़ियम में रखा हुआ है। यह नमूना ग्यारहवीं ईसवी शताब्दी का है। फ़िरोजई रंग की कोट चढ़ी हुयी ईंट जिन धार्मिक इमारतों में इस्तेमाल की गयी है उनमें इस्फ़हान की सय्यद मस्जिद, मराग़ा का लाल गुंबद, गुनाबाद की जामा मस्जिद उल्लेखनीय है।

टाइल निर्माण कला के इतिहास में मिलता है कि सलजूक़ी शासन काल में सातवी हिजरी सदी शुरु होने से पहले, ईरान में टाइल का उत्पादन बहुत बड़े स्तर तक होने लगा था। उस समय उत्पादन का मुख्य केन्द्र काशान शहर था। इस शहर में रूप और तकनीक की नज़र से विभिन्न प्रकार की टाइलों का उत्पादन होता था। इमारतों के भीतरी भाग को अष्टकोणी और षटकोणी सितारों और सलीब जैसे रूप में सजाया जाता था। उस दौर में टाइल पर तीन तरह की कोटिंग की जाती थी। एक रंग की कोट, कोट पर नीले रंग की रंगायी, कोट पर सुनहरे रंग की रंगायी की जाती थी।

       

 

सफ़वी शासन काल में टाइल के निर्माण की एक नई शैली ने जन्म लिया। उस काल की आर्थिक व राजनैतिक परिस्थिति के कारण सात रंग वाली टाइल का निर्माण चलन में आया। सात रंग वाली टाइल के उत्पादन की क़ीमत का कम होना, उत्पादन में कम समय लगना और पहले वाली सजावट की कला से इस शैली का समन्वय वे कारण थे जिनसे सात रंग की टाइल का उत्पादन लोकप्रिय हुआ। इस शैली में विशेष रूप की चौकोर टाइलों का इस्तेमाल किया जाता था कि उनमें से हर एक को एक दूसरे के पास रखकर पकाया जाता था ताकि बड़ी टाइल का उत्पादन हो। इस दौर में इस्लीमी चित्रों और टाइलों पर लिखाई की कला का रवाज था जो क़ाजारी शासन काल के अंत तक प्रचलित रही। टाइलों पर ज़्यादातर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और उनके पवित्र परिजनों के कथन और दुआओं के वाक्य कूफ़ी लिपि में लिखे जाते थे। इस प्रकार की ज़्यादातर टाइलें ईरान के पूर्वोत्तरी शहर नीशापूर और ख़ुरासान में बरामद हुए हैं। टाइल की इस शैली में ज़्यादातर पीले और नारंगी रंग को प्राथमिकता दी जाती थी।

ईरान में ज़्यादातर हस्तकलाओं और ख़ास तौर पर काशीकारी के इतिहास के संबंध में यह बात उल्लेखनीय है कि टाइल के निर्माण की तकनीक को बाप बेटे को या उस्ताद अपने शिष्य को ज़बानी सिखाता था और यह चलन पूरे काल में जारी रहा। यही कारण है कि टाइल की डिज़ाइन और तकनीक की विस्तृत जानकारी का लिखित रूप में कोई दस्तावेज़ बहुत मुश्किल से मिलेगा।

 

 

टाइल निर्माण कला कई प्रकार की होती है। मोअर्रक़ टाइल। इस शैली के तहत विभिन्न प्रकार के छोटे छोटे टुकड़ों को जोड़ कर बनाया जाता है। इस शैली में मुख्य डिज़ाइन के आधार पर छोटे छोटे टुकड़ों को तराश कर निर्धारित स्थान पर लगाया जाता है।

मअक़ेली टाइल ज्यामितीय डिज़ाइन पर आधारित होती है। इसे ज्यामितीय आकारों को मिलाकर बनाते हैं। टाइल के और प्रकार में गेरेह और मुशब्बक टाइल भी उल्लेखनीय है, लेकिन सात रंग की टाइल को ईरान में बहुत अहमियत दी जाती है। यह टाइल कोट चढ़े नाज़ुक बिस्कुट से बनायी जाती है और इनमें से हर एक पर मूल डिज़ाइन का कुछ न कुछ भाग बना होता है। इस शैली की टाइल को मिस्त्री इमारत की विशेषता को मद्देनज़र रखते हुए अपने सलीक़े के अनुसार लगाता है।

ये टाइल चौकोर, आयताकार और षटकोणीय रूप में होती हैं। इन टाइलों का आकार दो तरह का होता है। एक पंद्रह सेंटीमीटर लंबा और पंद्रह सेंटीमीटर चौड़ा और दूसरा आकार बीस सेंटीमीटर लंबा और बीस सेंटीमीटर चौड़ा होता है। सात रंग की टाइलों पर जो रंग चढ़ाए जाते हैं वे इस प्रकार हैः काले, सफ़ेद, आसमानी, फ़िरोज़ई, लाल, पीला और मेंहदी रंग। सात रंग की टाइल ज़्यादातर ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों पर इस्तेमाल होती है।

 

 

टाइल का महत्वपूर्ण भाग कोट है। कोट टाइल पर शीशे जैसी चमकदार सतह को कहते हैं। कोट सजावट और उपयोगिता दोनों की नज़र से अहम है। कोट चढ़ी टाइल से न सिर्फ़ यह कि इमारत सुदंर लगती है बल्कि यह आर्द्रता और पानी के मुक़ाबले में दीवार को ऊष्मारोधी बनाती है।

ईरान में टाइल के निर्माण में एक रंग की कोट चढ़ाने की कला प्रचलित थी किन्तु सलजूक़ी शासन काल में क्रीम, फ़िरोज़ई नीले, आसमानी नीले, कोबाल्ट जैसे नीले रंग भी इसमें शामिल कर दिए गए। ईलख़ान के दरबारी इतिहासकार अबुल क़ासिम अब्दुल्लाह बिन मोहम्मद ने, सात रंग कोट के ऊपर क्रिस्टल रंग चढ़ाने की कला को सात रंग की कला कहा है। यह तकनीक छठी हिजरी शताब्दी के मध्य से सातवीं हिजरी शताब्दी के शुरु में बहुत प्रचलित थी।

सुनहरे रंग की कोट टाइल को सुंदर बनाने की सबसे प्रचलित शैली रही है। यह तकनीक दूसरी हिजरी शताब्दी में मिस्र में शीशे को सजाने के लिए इस्तेमाल की जाती थी। इस शैली के तहत टाइल पर सफ़ेद रंग की कोट चढ़ा कर पकाया जाता था। उसके बाद टाइल पर तांबे और चांदी मिश्रित रंगद्रव्य चढ़ा कर टाइल को दुबारा भट्टी में पकाया जाता था। जिसके बाद चमकती हुयी टाइल बन कर निकलती थी।

 

विगत में ईरान में टाइल का बहुत चलन था और इसे ईरानी हस्तकला उद्योग में विशेष स्थान हासिल था किन्तु आज सिमेंट, पत्थर और इन जैसी चीज़ों के कारण टाइल के बाज़ार में वह रौनक़ नहीं रह गयी जैसी पहले थी किन्तु इसके बावजूद ईरान की ऐतिहासिक इमारतों में टाइल की सुंदरता हर देखने वाले को अपनी ओर सम्मोहित करती है और ईरानी कलाकारों की बेजोड़ कला का सुबूत देती है।

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