ज़िन्दगी की बहार-3
युवा अवस्था, मानवजीवन में बसंत के समान है।
युवा अवस्था, मानवजीवन में बसंत के समान है। मानवजीवन में आने वाला यह बसंत अति महत्वपूर्ण और भविष्य निर्धारक होता है। जीवन के इस पड़ाव में मनुष्य बहुत कुछ कर सकता है। वास्तव में जवानी, प्रफुल्लता और उमंगों का काल होने के साथ ही आत्ममंथन, आत्म निर्माण, संघर्ष और दायित्वों के निर्वाह का काल है। यही कारण है कि युवाओं से इस बात की अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी क्षमताओं का सदुपयोग करते हुए स्वयं को मानवीय विशेषताओं से सुसज्जित करें।
मानव इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि किसी भी देश का भविष्य उसके युवाओं के हाथों में होता है। इस अवस्था में युवा के पास अपने दायित्वों के निर्वाह के लिए उपयुक्त क्षमता पाई जाती है। महापुरूषों का कहना है कि युवाकाल के दौरान आत्मनिर्माण के लिए प्रयास करने चाहिए। इस प्रकार उसे अपने मूल दायित्वों का उचित ढंग से निर्वाह करना चाहिए। युवाओं को संबोधित करते हुए इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि प्रिय युवाओ! तुमको जानना चाहिए कि वर्तमान समय में तुम्हारे कांधे पर भारी बोझ है और वह आत्मनिर्माण जैसा दायित्व है। वे कहते हैं कि तुमको वैज्ञानिक, वैचारिक, नैतिक एवं शारीरिक रूप में आत्म निर्माण करना चाहिए। तुमको धार्मिक दृष्टि से भी ज्ञान अर्जित करते हुए उसे व्यवहारिक बनाना चाहिए। वरिष्ठ नेता कहते हैं कि यह दायित्व सबका है विशेषकर युवाओं के लिए तो बहुत ज़रूरी है।
किसी युवा का सर्वप्रथम दायित्व, सबसे पहले स्वयं को पहचानना है। उसको स्वयं को उस प्रकार से समझना चाहिए जैसा कि वह है। उसे इस बात को समझने की पूरी कोशिश करनी चाहिए कि वह है क्या और उसे कितनी महत्वपूर्ण विभूति मिली हुई है। युवा यदि अपनी पूरी जानकारी के साथ अपनी छिपी हुई योग्यताओं और क्षमताओं को समझने के प्रयास करेगा तो उसको ज्ञात होगा कि वह कितनी महत्वपूर्ण विभूति का स्वामी है। योग्यताओं को पहचानने से युवा के लिए उचित कार्यक्रम निर्धारित करने का अवसर उपलब्ध होता है। इस प्रकार वह अपने भविष्य का उचित ढंग से निर्धारण कर सकता है। अपने भविष्य की दिशा का सही ढंग से निर्धारण करके युवा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति कर सकता है।
पवित्र क़ुरआन में आत्म पहचान को अत्यंत महत्वपूर्ण दायित्व बताया गया है। इस बात को पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम (स) तथा उनके पवित्र परिजनों के कथनों में बहुतायत से देखा जा सकता है। सूरए माएदा की आयत संख्या 105 में ईश्वर कहता है कि हे ईमान वालो! स्वयं को बचाओ। जान लो कि तुम्हें मार्गदर्शन प्राप्त हो गया तो पथभ्रष्ट तुम्हें क्षति नहीं पहुंचा सकेंगे। अपने प्रति सतर्क रहना या आत्म मंथन वे बाते हैं जिसके अन्तर्गत मनुष्य आत्म निर्माण के लिए प्रयास करता है। जब मनुष्य स्वयं को पहचान लेता है तो फिर आत्म निर्माण में लग जाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अपनी पहचान को आत्मनिर्माण की भूमिका कहा जा सकता है।
प्रत्यके युवा को यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि उसके भीतर किस प्रकार की क्षमताएं निहित हैं और उनसे प्रकार से लाभ उठाया जाए। इस प्रकार से युवा अपना लोक-परलोक सुधार सकता है।शारीरिक क्षमता, सोचने समझने की शक्ति और रचनात्मकता जैसी विशेषताएं युवाओंसे ही विशेष हैं। यदि अपने भीतर निहित क्षमताओं को युवा पूर्ण रूप से समझ जाए तो उसके भीतर आत्मविश्वास उत्पन्न होता है। ऐसे में उसके भीतर यह भावना उत्पन्न होती है कि वह अमुक कार्य करने में सक्षम है। इस प्रकार वह व्यक्तिगत और सामाजिक प्रगति के लिए कार्य कर सकता है और विभिन्न प्रकार की गतिविधियों का केन्द बन जाता है।
किसी युवा की सबसे महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी, आत्म विश्वास की भावना का स्वामी होना है। युवा के भीतर जो क्षमताएं निहित हैं और उसके समाज में जो योग्यताएं पाई जाती हैं उनको यदि कोई युवा उचित ढंग से समझ जाए तो वह आत्म विश्वास की भावना को मज़बूत बना सकता है। इस प्रकार वह व्यक्तिगत और सामाजिक दायित्वों को उचित ढंग से पूरा कर सकेगा। स्वयं पर विश्वास का महत्वपूर्ण लाभ यह है कि स्वावलंबन की भावना सुदृढ़ होती है।
आत्म विश्वास ऐसी विशेषता है जो बहुत सी मानवीय विशेषताओं के जन्म लेने की भूमिका प्रशस्त करती है। इसका कारण यह है कि आत्म विश्वास की भावना का स्वामी युवा, अपने कार्यों को योजनाबद्ध ढंग से करता है। वह महत्वाकांक्षी होता है।
ऐसा युवा किसी कार्य का संकल्प करके उसे पूरा करने के लिए प्रयास आरंभ कर देता है। ऐसी स्थिति में सफलता की संभावना प्रबल हो जाती है। जो युवा स्वयं पर भरोसा नहीं करता वह बहुत से मानवीय विशेषताओं से वंचित रह जाता है। स्पष्ट है कि अपने ऊपर भरोसा न करने वाला युवक किसी भी कार्य करने का साहस ही नहीं कर सकता। इस प्रकार के युवा का जीवन आलस्य में व्यतीत होता है। युवाओं को प्रेरित करते हुए हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि कठिनाइयों का डटकर मुक़ाबला करो। एसे में कहा जा सकता है कि यह आवश्यक है कि युवा को सर्वप्रथम अपनी भीतरी योग्यताओं को पहचानना चाहिए फिर उसे अपने समाज की विशेषताओं को समझना चाहिए। इसके बाद पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम (स) तथा उनके परिजनों के कथनों की सहायता से क़दम आगे बढ़ाने चाहिए। यदि कोई ऐसा करता है तो निश्चित रूप से उसे आध्यात्मिक और भौतिक दोनो प्रकार की सफलताएं मिलेंगी।
युवाकाल के दौरान युवा के भीतर आंतरिक इच्छाएं बहुत अधिक होती हैं। यदि इन इच्छाओं पर नियंत्रण न किया जाए तो वे युवा को पथभ्रष्ट कर सकती हैं। युवाकाल के दौरान अपनी आंतरिक इचछाओं पर नियंत्रण को विशेष महत्व प्राप्त है।
महापुरूषों के अनुसार जो भी अपने भीतर की मानवीय विशेषताओं को पहचान लेता है तो वह निरर्थक कल्पनाओं के मकड़जाल से सुरक्षित हो जाता है। आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण, मनुष्य की आत्मशुद्धि, उसकी इच्छा शक्ति की प्रबलता और सम्मान का कारण बनता है।
यज़ीद के पुत्र का नाम माविया था। माविया यज़ीद के पिता का भी नाम था। यज़ीद ने अपने पुत्र माविया के लिए जिस गुरू का निर्धारण किया था उनका नाम उमर अलमक़सूस था। वे बहुत ही ज्ञानी एवं योग्य व्यक्ति थे। उमर अलमक़सूस, ईमानदार होने के साथ ही पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के प्रति विशेष लगाव रखते थे। वे अंदर ही अंदर यज़ीद और उसके पिता के अत्याचारी व्यवहार से अप्रसन्न थे। उन्होंने यज़ीद के पुत्र माविया को यथासंभव अच्छी शिक्षा दी और उसका उचित ढंग से प्रशिक्षण किया। जब माविया बिन यज़ीज की आयु 20 वर्ष थी तो उसका पिता यज़ीद मर गया। यज़ीद की मौत के बाद लोगों ने उसे उसका प्रतिनिधि स्वीकार करते हुए उसकी बैअत की अर्थात उसके आज्ञापालन का वचन दिया। उसने शासन आरंभ किया किंतु हर प्रकार की संभावनाएं और धन-संपत्ति होने के बावजूद यज़ीद के पुत्र ने ग़लत कामों की ओर रुख़ नहीं किया। जब उसे ऐसे संवेदनशील चरण से गुज़रना पड़ा कि वह सत्ता को संभाले या उसे त्याग दे तो उसने पापों से ग्रस्त सत्ता को छोड़ने का निर्णय किया और उसे त्याग दिया।
आत्म निर्माण के दौरान युवा के विकास का महत्वपूर्ण आयाम अपना उचित प्रशिक्षण करना है। पवित्र क़ुरआन ने समस्त लोगों को आत्मशुद्धि का निमंत्रण दिया है। सूरए आला की आयत संख्या 14 में ईश्वर कहता है कि निश्चित रूप से वही सफल है जिसने आत्मशुद्धि कर ली। एक अन्य स्थान पर ईश्वर कहता है कि पवित्र क़ुरआन की दृष्टि में सफलता उनसे विशेष है जिन्होंने आत्मशुद्धि की है। युवाकाल, आत्मशुद्धि का सर्वोत्तम काल है। प्रत्येक युवा, आत्मशुद्धि करते हुए अपने भीतर ईश्वरीय भय या तक़वा पैदा कर सकता है। इस प्रकार वह लोक व परलोक की सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।
ईरान की इस्लामी क्रांति के मार्गदर्शक और इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ने अपनी जवानी का उचित ढंग से सदुपयोग किया था। वे युवाओं से अनुरोध करते थे कि वे लोग भी अपने जीवनकाल से उचित ढंग से लाभ उठाएं। युवाओं को संबोधित करते हुए इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि तुम लोग जबतक जवान हो उस समय तक बहुत कुछ कर सकते हो। तुम अपनी इच्छा शक्ति से आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण प्राप्त कर सकते हो। इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि यदि अपने युवाकाल में युवा स्वयं के सुधार की सोच में न हो तो बुढ़ापे में यह संभव नहीं है। जबतक आप जवान हैं अपने सुधार के लिए सक्रिय रहें। युवाओं का हृदय कोमल होता है। उसके भीतर बुराई की ओर झुकाव कम ही पाया जाता है किंतु जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है हृदय में पाप की जड़ें मज़बूत होती जाती हैं। बाद में एक समय ऐसा भी आता है कि उन्हें मन से निकालना असंभव हो जाता है।