ईरान की सांस्कृतिक धरोहर-43
मख़मल ऐसा कपड़ा है जो न केवल ईरान में बल्कि पूरे विश्व में विशेष महत्व का स्वामी है।
कहते हैं कि इसकी बुनाई की जटिलता और इसके नर्म होने ने मख़मल को अन्य कपड़ों से अलग कर दिया है।
मख़मल, धागे या रेशम से बनने वाला एसा कपड़ा है जो एक ओर से प्लेन और दूसरी ओर से उभरा हुआ होता है। यह नर्म होता है। इसको बनाने के लिए शुद्ध रेशम का प्रयोग किया जाता है। इसकी बुनाई के लिए दक्षता की आवश्यकता होती है क्योंकि इसकी बुनाई अन्य बुनाइयों की तुलना में काफ़ी जटिल है। इतिहास के अध्धयन से पता चलता है कि प्राचीनकाल से मख़मल राजाओ, महाराजाओं का कपड़ा रहा है और यह आम लोगों की पहुंच से बहुत दूर रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि एक तो इसकी बुनाई के लिए दक्षता चाहिए दूसरे यह कि तैयार होने के बाद यह बहुत मंहगा होता है इसिलए इसे आम लोग ख़रीद नहीं पाते। सफ़वी काल में ईरान में राजदरबार में मख़मल बनाने का एक कारख़ाना था जहां पर बनाया गया कपड़ा या तो राजा और उनके दरबार के लोग प्रयोग करते थे या फिर दरबार के पर्दों के लिए उसका प्रयोग किया जाता था।
मख़मल की उत्पत्ति या इसके मूल स्थल के बारे में विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि मख़मल, मध्ययुगीन काल की देन है। उनका कहना है कि यह यूरोप से अन्य स्थानों पर पहुंचा। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार इटलीवासी इसके जन्मदाता हैं। हालांकि इसके बारे में कुछ अन्य दृष्टिकोण भी पाए जाते हैं। एक दृष्टिकोण यह भी है कि 14वीं ईसवी में ईरान और चीन में एक साथ मख़मल की बुनाई का काम आरंभ हुआ। एक शताब्दी के ही भीतर यह वेनिस, फ्लोरेंस और इटली के अन्य नगरों में फैल गया जहां पर यह ख़ूब फूलाफला। इन दृष्टिकोणों को यदि एकत्रित किया जाए तो यह निष्कर्श निकलता है कि ईरान, चीन और इटली में एक ही काल में मख़मल की कला ने जन्म लिया।
वर्तमान समय में भी ईरान में मख़मल को पारंपरिक तरीक़े से बनाया जाता है। मख़मल बनाने की यह परंपरा ईसापूर्व मिस्र में प्रचलित रही है। मिस्र में खुदाई के दौरान मिलने वाली वस्तुओं के अध्ययन से पता चलता है कि मख़मल की बुनाई का काम वहां पर होता आया है। लियोन संग्रहालय में मौजूद मख़मल के कुछ टुकड़ों को देखने से यह समझ में आता है कि मिस्र में मख़मल की बुनाई का काम उच्च स्तर पर होता रहा है। हांलाकि अभी इस संबन्ध में अधिक शोध की आवश्यकता है।
प्राचीन एतिहासिक पुस्तकों में से एक पुस्तक का नाम “मुरव्वेजुज़्ज़हब” है। इसके लेखक का नाम मसऊदी है। वे अपने समय के महान भूगोलवेत्ता भी रहे हैं। मसऊदी ने अपनी यह पुस्तक दसवीं शताब्दी में लिखी है। उन्होंने अपनी पुस्तक के एक भाग में अब्बासी शासक मुतवक्किल का उल्लेख करते हुए एक स्थान पर मख़मल की बात कही है। मसऊदी लिखते हैं कि अब्बासी शासक मुतवक्किल, जो कपड़े पहना करता था वे मख़मल के हुआ करते थे। उन्होंने कहा कि हमारे काल में उन कपड़ों को मुतवक्केली कपड़े कहा जाता है जो बहुत नर्म होते थे।
एक अन्य मुसलमान भूगोलवेत्ता का नाम अबुल क़ासिम ख़ुरदाज़बे है। मख़मल का उल्लेख करते हुए उसके बारे में वे इस प्रकार लिखत हैं यह बहुत नर्म और हल्का कपड़ा होता है जिसपर क़ुरैशिया का काम हुआ है। उन्होंने ईरान के “सवाद” क्षेत्र के कपड़े का उल्लेख करते हुए लिखा है जो बाद में अच्छे और सुन्दर पर्दों के लिए भी प्रयोग होने लगा था। बहुत से जानकारों का कहना है कि यह वही कपड़ा है जिसे हम मख़मल कहते हैं।
बहरहाल जबतक इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के पुष्ट प्रमाण नहीं मिलते उस समय तक यह नहीं कहा जा सकता कि ईरान में मख़मल का इतिहास कितना पुराना है और यहां पर कब से मख़मल की बुनाई का काम किया जा रहा है? हालांकि मौजूद प्रमाण इस बात की तो पुष्टि करते हैं कि इस्लाम के उदय की आरंभिक शताब्दी में ईरान में मख़मल पाया जाता था। आलेबूये और सलजूक़ी काल में ज़री की कढ़ाई के कम होने के बाद काशान नगर के बुनकरों ने मूल्यवान कपड़े की बुनाई के बारे में प्रयास किये ताकि उससे पवित्र क़ुरआन के कवर बनाए जाएं। ईरान में जो सबसे पुराना मख़मल है उसक संबन्ध बारहवीं शताब्दी ईसवी से है। यह इस समय पेरिस के कला संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहा है।
सफ़वी काल में ईरान में कपड़ों के अन्य उद्योगों के साथ ही मख़मल की बुनाई भी प्रचलित थी। इसने उस काल में बहुत तरक़्क़ी की। मख़मल का प्रयोग न केवल पहनने के लिए बल्कि जानमाज़, मेज़पोश, सोफे के कवर और घरों के पर्दों में भी किया जाता था। दुल्हनों के कपड़े विशेषकर मख़मल से ही बनाए जाते थे। इस काल में मख़मल पर बहुत ही मंहगी और सुन्दर कढ़ाई का काम भी किया जाता था। इसपर सोने और चादी के तारों से कढ़ाई की जाती थी। उस समय मख़मल के कपड़ों को यूरोपीय राजाओं को उपहार स्वरूप दिया जाता था। यूरोप में भी मख़मल से धनवान लोगों के कपड़े सिले जाते थे और राज दरबार के मंत्री इसको पहनते थे। महलों में पर्दे भी सामान्यतः मख़मल के हुआ करते थे।
अपनी सुन्दरता के कारण काशान का मख़मल विश्व प्रसिद्ध हुआ। क़ाजार काल में काशान में 42 प्रकार के मख़मली कपड़े बुने जाते थे जिन्हें न केवल पहने के लिए बल्कि दूसरे कामों में प्रयोग किया जाता था। यह बात भी उल्लेखनीय है कि बाद में मशीन से बने हुए विदेशी कपड़ों के आयात से मख़मल की बुनाई का काम प्रभावित हुआ और पहले जो इसका महत्व था वह कम होता गया। वर्तमान समय में काशान नगर में मख़मल का केवल एक ही कारख़ाना बचा है जो सांस्कृतिक धरोहर, हस्तकर्घा उद्योग और पर्यटन संगठनों के प्रयास तथा क़ालीन की बुनाई के कलाकारों के प्रयास से अबतक बाक़ी है। ईरान के काशान, यज़्द, तबरीज़ और मशहद जैसे नगरों में प्राचीन काल से मख़मल की बुनाई का काम होता आया है। 16वीं शताब्दी से ईरान से मख़मल का निर्योत हो रहा है।
मख़मल को सामान्यतः दो प्रकार से बुना जाता है सादा और छपाई या कढ़ाई वाला। कलाकार इसकी बुनाई के लिए प्राकृतिक रेशम का प्रयोग करते हैं। इस शैली से बनाया गया मख़मल सुन्दर और आकर्षक होता है। कहते हैं कि वह मख़मल जिसपर कढ़ाई का काम किया गया हो उसकी क़ीमत अधिक होती है।
ईरान में इस समय पारंपरिक ढंग से मख़मल की बुनाई करने वाले केवल एक कलाकार ही जीवित रह गए हैं। उनका नाम सैयद ख़लील है। उन्होंने 30 वर्षों से अधिक समय तक पारंपरिक यंत्रों से काशान में मख़मल की बुनाई की है। सैयद ख़लील का जन्म 1939 में काशान नगर में हुआ था। वे एसे परिवार में जन्मे थे जो कलाप्रेमी था और जहां पर पारंपरिक बुनाई का चलन था। सैयद ख़लील ने 7 वर्ष की आयु से सही पारंपरिक ढंग से मख़मल की बुनाई का काम आरंभ कर दिया था। 15 वर्ष की आयु में वे अपने काम में दक्ष हो चुके थे। बाद में वे अपने काम में इतने निपुर्ण हो गए कि लोग उनसे यह कला सीखने आने लगे। वर्तमान समय में भी सैयद ख़लील, लोगों को पारंपरिक ढंग से मख़मल की बुनाई सिखाते हैं।
( इस समय मख़मल की पारंपरिक बुनाई का काम लगभग समाप्त हो रहा है। इससे संबन्धित चीज़ें संग्रहालय से विशेष होती जा रही हैं। इसके कलाकारों का कहना है कि मख़मल की बुनाई का काम बहुत जटिल होता है और इसमें जितनी मेहनत की जाती है उस हिसाब से उसकी मज़दूरी उन्हें नहीं मिलती यही कारण है कि यह कला दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। इसके मंहगे होने के कारण आम लोग इसका प्रयोग नहीं कर पाते।