मार्गदर्शन -9
दुआ चाहे किसी भी भाषा में की जाए, इसका मतलब है ईश्वर को पुकारना।
भौतिक जीवन के शोर शराबे में और मानसिक दबाव के कारण इंसान कभी कभी तनहाई का एहसास करता है, ऐसी स्थिति में ईश्वर में अपने दिल का हाल सुनाने के अलावा, किसी अन्य चीज़ से शांति नहीं मिलती है। इस संदर्भ में ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई कहते हैं, जो भी चाहो, ईश्वर से बात करो, यही दुआ है। जो भी चाहते हो वह उससे मांगो। कभी चाहत, मांगने की नहीं होती है, बल्कि ईश्वर से निकट होने की इच्छा होती है। मांगे भी विभिन्न प्रकार की होती हैं, कभी कोई ईश्वर की प्रसन्नता चाहता है या उसकी कृपा की मांग करता है, यह एक प्रकार की मांग है। कभी इंसान भौतिक चीज़ों की मांग करता है, इसमें कोई बुरी बात नहीं है। ईश्वर से कोई भी चीज़ और किसी भी ज़बान में मांगना, अच्छा है।
आप गुनहगार हों या भले व्यक्ति, अपने पालनहार के सामने बहुत ही विनम्रता से बैठें और अपने पूरे वजूद से उसका आभास करें और उस समय जो चाहें उससे कहो। ईश्वर सबसे बेहतर सुनने वाला और मदद करने वाला है।
लोगों की ज़रूरतें अलग अलग होती हैं, लेकिन ईश्वर से बात करने में सब एक समान होते हैं। विद्वान और रहस्यवादी ईश्वर को महान मानते हैं और उसके सामने ख़ुद को बहुत ही तुच्छ मानते हैं और रहस्यों की गहरी जानकारी के साथ ईश्वर से अपनी बात कहते हैं। इसलिए उनके दिलों से सर्वश्रेष्ठ दुआ निकलती है और वे अपनी बंदगी ज़ाहिर करने के लिए अति सुन्दर शब्दों का प्रयोग करते हैं। इन महान व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ, पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजन हैं, उन्होंने बहुत ही प्रभावशाली दुआएं की हैं, उनके बाद वे रहस्यवादी और सूफ़ी संत हैं, जिन्होंने ईश्वरीय मार्ग को पहचाना है। इस संदर्भ में वरिष्ठ नेता कहते हैं, बेहतरीन दुआ वह है कि जो ईश्वर से इश्क़ के साथ और इंसान की ज़रूरतों की वास्तविक पहचान के साथ की जाती है। यह दुआ केवल पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके परिजनों एवं उनके अनुसरणकर्ताओं द्वारा की जाती है। ईश्वर का शुक्र है कि हमारे पास अहले बैत (अ) की दुआओं का एक मूल्यवान संग्रह है, इन दुआओं को पढ़ने से शुद्धि, उत्कृष्टता और प्रेम हासिल होता है और इंसान गुनाहों से पाक हो जाता है।
वरिष्ठ नेता अहले बैत की दुआवों को सर्वश्रेष्ठ दुआ बताते हुए कहते हैं, अहले बैत (अ) की दुआओं की बरकतों में से एक यह है कि यह दुआएं ज्ञान से परिपूर्ण हैं। उदाहरण स्वरूप, सहीफ़ए सज्जादिया, दुआए कुमैल, मुनाजाते शाबानिया, दुआए अबू हम्ज़ा सोमाली और अन्य दुआएं ईश्वरीय ज्ञान से परिपूर्ण हैं, अगर कोई इन्हें पढ़ेगा और समझेगा तो ईश्वर से आत्मिक लगाव एवं संपर्क के अलावा, उसे बड़ी मात्रा में ज्ञान प्राप्त होगा। मैं युवाओं से ज़ोरदार सिफ़ारिश करता हूं कि इन दुआओं के अनुवाद पर ध्यान दें।
दुआ मोमिन की मुक्ति का साधन, समस्याओं में ग्रस्त लोगों का शरण स्थल और कमज़ोर इंसान का ज्ञान एवं शक्ति के स्रोत से संबंध है। इंसान ईश्वर से संपर्क के बिना और उसके सामने अपनी ज़रूरतों का ज़िक्र किए बिना जीवन में परेशान रहता है। दुआ करने से इंसान अंहकार से बचता है। दुआ से इंसान में विनम्रता बढ़ती है। अंहकारी लोग जो ईश्वर से दुआ करने को भी अपना अपमान समझते हैं, इस इबादत के आनंद से वंचित रहते हैं, जैसे कि फ़िरऔन, नमरूद और दूसरे अंहकारी जो ख़ुद को महान भगवान मानते थे और बड़ी भूल का शिकार थे, इसीलिए ख़ुद को असीम शक्तिशाली मानते थे।
अंहकार का इंसान पर बहुत ख़तरनाक प्रभाव पड़ता है। इस संदर्भ में वरिष्ठ नेता कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, दुआ ईश्वर के सामने बंदगी का इज़हार है और इससे इंसान में बंदगी की भावन मज़बूत होती है। बंदगी की आत्मा और ईश्वर के सामने बंदगी का अहसास, वही चीज़ है, जिसके लिए समस्त ईश्वरीय दूतों ने कठिन प्रयास किया है। इंसान के समस्त गुणों का स्रोत और उसके द्वारा किए जाने वाले पुण्य, चाहे वह व्यक्तिगत क्षेत्र से संबंधित हों या सामाजिक क्षेत्र से, ईश्वर के सामने यही बंदगी का अहसास है। बंदगी के इस अहसास के मुक़ाबले में अंहकार, स्वार्थ और घमंड है। यही घमंड इंसान के अन्दर समस्त त्रुटियों का स्रोत है। इतिहास में होने वाले इन समस्त युद्धों, रक्तपात और अत्याचारों का स्रोत यही अंहकार और स्वार्थ है। स्वार्थ, अंहकार और घमंड के मुक़ाबले में बंदगी एवं विनम्रता है। अगर स्वार्थ और अंहकार ईश्वर के सामने होगा, अर्थात इंसान ख़ुद को ईश्वर के मुक़ाबले में रखेगा तो वह इंसान विद्रोही और अत्याचारी होगा।
वरिष्ठ नेता का मानना है कि अत्याचारी केवल शासक ही नहीं होते हैं, बल्कि संभव है किसी भी इंसान के भीतर एक अत्याचारी हो। ईश्वर के समक्ष घमंड, अंहकार और स्वार्थ इंसान को विद्रोही बना देता है और वह अत्याचारी बन जाता है। वरिष्ठ नेता के अनुसार, दुआ इन समस्त बुराईयों का उपचार है। हम दुआ द्वारा अपने भीतर विनम्रता उत्पन्न करते हैं और अंहकार को कुचलते हैं, परिणाम स्वरूप, संसार और मानव जीवन विद्रोह एवं अत्याचारों से सुरक्षित हो जाता है। ईश्वर का आज्ञापालन और उसके समक्ष विनम्रता, उस विनम्रता से भिन्न है जिसका इज़हार इंसान एक दूसरे से करते हैं। यह विनम्रता एवं श्रद्धा संपूर्ण भलाई, संपूर्ण सुन्दरता और संपूर्ण सद्गुणों के समक्ष है।
दिल से दुआ करना और पूर्ण श्रद्धा के साथ ईश्वर से मांगना, आदर की निशानी है, जिससे दुआ के क़बूल होने की संभावना अधिक हो जाती है। जो लोग ईश्वर से ऐसे मांगते हैं जैसे कोई अपना क़र्ज़ मांग रहा हो तो वे बंदगी के संस्कार से दूर हैं। दुआ करने वाले को कुछ नियमों का पालन करना चाहिए। इस संदर्भ में वरिष्ठ नेता का कहना है कि हदीसों के मुताबिक़, जब आप किसी ज़रूरत के लिए दुआ कर रहे हों, तो अपनी दुआ और ज़रूरत के इज़हार को अधिक न समझें। अर्थात जिस चीज़ की ज़रूरत हो वह ईश्वर से मांगिए। यह न कहें कि यह ज़्यादा हो गया, हमें कम मांगना चाहिए ताकि हमारी दुआ क़बूल हो जाए। ईश्वर से बड़ी बड़ी मांगें रखिए, ईश्वर उन्हें पूरा करता है। दुआ में आशा का द्वार अपने लिए बंद न करें और इस मार्ग को भी कि जिसे ईश्वर ने अपने और अपने बंदों के बीच माध्यम बनाया है, बंद न करें। हदीसों में उल्लेख है कि दुआ करने में जल्दबाज़ी न करें। अगर तुमने किसी चीज़ के लिए दुआ की है और तुम्हारी दुआ क़बूल नहीं हुई है तो यह नहीं कहना चाहिए कि ईश्वर ने मेरी दुआ क़बूल नहीं की, नहीं, बल्कि हर काम अपने सही समय पर होता है।
दुआ का क़बूल होना इस बात पर निर्भर करता है कि वह दिल से मांगी जाए। वरिष्ठ नेता के अनुसार, दुआ क़बूल होने की एक शर्त यह है कि वह पूर्ण ध्यान के साथ मांगी जाए। कभी इंसान की ज़बान पर चढ़ा होता है कि हे ईश्वर हमें क्षमा कर दे, हे ईश्वर हमें अधिक रिज़्क़ दे, हे ईश्वर हमारे क़र्ज़ को अदा करा दे। दस साल इंसान इस तरह दुआ करता है, लेकिन यह क़बूल नहीं होती है। गंभीरता और पूरी श्रद्धा से दुआ की जानी चाहिए। ईश्वर से निरंतर दुआ करते रहिए। ऐसी स्थिति में ईश्वर दुआ स्वीकार कर लेगा।