ईरान की सांस्कृतिक धरोहर-28
ईरान की कलाओं में वास्तुकला को बड़ा महत्व प्राप्त है और जो कलाएं वास्तुकला से जुड़ी हुई हैं उन्हें भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
ईरान की कलाओं में वास्तुकला को बड़ा महत्व प्राप्त है और जो कलाएं वास्तुकला से जुड़ी हुई हैं उन्हें भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह कलाएं इंसान की बुनियादी ज़रूरत अर्थात आवास से जुड़ी होने के कारण लगातार प्रगति करती रहीं और इसमें बदलाव आते गए। वैसे तो अतीत में यह कलाएं इमारत के निर्माण का आर्डर देने वाले व्यक्ति या संस्था के बजट पर निर्भर होती थीं लेकिन इन कलाओं ने वास्तुकला के आंचल में अपना अस्तित्व बाक़ी रखा और तथा हस्त कलाओं ने वास्तुकला पर भी अपना प्रभाव डाला है।
ईरान की वास्तुकला के भीतर स्थान पाने वाली और इसी की छाया में अपना अस्तित्व जारी रखने वाली एक कला है आईनाकारी। इस समय यह कला अधिकतर मस्जिदों और धार्मिक स्थलों पर प्रयोग की जाती है। इस काला की जड़े ईरानियों के प्राचीन आध्यात्मिक विचारों और आस्थाओं में निहित हैं। ईरानी वास्तुकला में आईनाकरी ज्योति के प्रतिबिंबन की झलक है। दर्पण या आईना प्रकाश को प्रतिबिंबित करता है और उसकी चमक बढ़ा देता है। यह कहा जा सकता है कि ईरानी वास्तुकला में आईनाकारी ईश्वरीय प्रकाश की ओर एक इशारा है। ईरानी इमारतों में आईनाकारी से बनाई जाने वाली डिज़ाइनें भी ईश्वर के विभिन्न नामों की ओर संकेत करती हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आईनाकारी वह कला है जो देखने वाले का ध्यान ईश्वर की ओर आकृष्ट करवाती है।
बहुत प्राचीन काल से ईरान की संस्कृति में आईने का विशेष उपयोग रहा है। जैसे विवाह समारोहों में निकाह पढ़े जाने के समय दूल्हा और दुल्हन आइने में देखते हैं ताकि उनका जीवन पारदर्शिता के साथ शुरू हो। इसी प्रकार नौरोज़ के पर्व पर ईरानी घरों में जो दस्तरख़ान सजाया जाता है उस पर आईना भी रखा जाता है।
ईरान में आईनाकारी का चलन बहुत पुराने काल से है। इसी लिए पुरातत्व विशेषज्ञों द्वारा की गई खुदाई में पता चला है कि काशान के निकट सियल्क क्षेत्र में चार हज़ार वर्ष ईसापूर्व जो लोग रहते थे उन्हें आईना बनाना आता था। यह आईने तांबे से बनाए जाते थे और इनका आकार गोल होता था। खुदाई में दस्ते वाले गोल आईने भी मिले हैं जिनका संबंध तीन हज़ार वर्ष ईसापूर्व से है। इसके अलावा शूश दामग़ान, ख़ोरवीन, अमलश और लुरिस्तान जैसे क्षेत्रों में की जाने वाली खुदाई में भी आईने मिले हैं जिनमें कुछ में दस्ते लगे हुए हैं।
अलग अलग कालों में आईने का प्रयोग अलग अलग उद्देश्यों से किया जाता रहा है। इमारतों में इसके प्रयोग का इतिहास बहुत पुराना है। दौहतुल अज़हार नामक किताब 16वीं शताब्दी की है। यह एक काव्य रचना है। इसके शेरों में दीवानख़ानए क़ज़वीन नामक इमारत तथा वहां की आईनाकारी का बखान किया गया है। जब राजधानी क़ज़वीन से स्थानान्तरित होकर इसफ़हान चली गई तो इस शहर तथा दूसरे शहरों में महलों की आईनाकारी से सजावट आम हो गई। यह सफ़वी शासकों का दौर था। फ़्रांसीसी सैलानी जीन शार्डन के अनुसार इसफ़हान शहर में ही 137 महल और घर ऐसे थे जो आईनाकारी से सजाए गए थे जिनमें आईनेख़ाने नामक इमारत सबसे मशहूर थी।
क़जारिया शासन काल में आईनाकारी की कला अपने चरम बिंदु पर पहुंची। इस काल में आईनाकरी से सजाई गई इमारतों में गुलिस्तान महल का हाल तालारे आईने है। यह इस महल का बहुत मशहूर हाल है जिसका निर्माण 1813 ईसवी में फ़त्हअली शाह के काल में किया गया। गुलिस्तान महल में कई हाल और कमरे हैं जिनमें आईना हाल को बड़ी सुंदरता से सजाया गया है।
ईरान की धार्मिक इमारतें अर्थात मस्जिदें और रौज़े भी आईनाकारी से सजाए जाते रहे हैं। रौज़ों में इस कला के नए नए रूप देखने को मिलते हैं। रौज़ों के भीतरी भाग को इस कला से सजाया जाता है और देखने वालों की आखें चकाचौंध हो जाती हैं।
बाद के काल में आईने के छोटे टुकड़ों के प्रयोग का चलन हुआ और इस कला में एक और अनूठापन पैदा हो गया। इस कला में दूसरी भी कलाओं की मिश्रण किया गया और बड़े ही सुंदर नमूने तैयार हुए। इन कलाओं में लकड़ी का काम भी शमिल है और इन कलाओं ने गुलिस्तान महल के तालारे आईने हाल को बहुत रोचक बना दिया है।
तेहरान के पुराने मुहल्लों में जो राजधानी की आरंभिक इकाइयां समझे जाते हैं, आईनाकारी की कला के अनेक नमूने मौजूद हैं। 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में यह कला धार्मिक स्थलों और महलों से बाहर निकलकर आवासीय इमारतों और सार्वजनिक स्थलों तक पहुंच गई। ड्रामा हाल, रेस्टोरेंट, सराए और गेस्ट हाउस जैसी इमारतों में भी इस कला का चलन हो गया।
इमारत के भीतर भाग को समरूपी छोटी छोटी डिज़ाइनों से सजाने के लिए आईने के छोटे छोटे टुकड़ों के प्रयोग को आईनाकारी कहा जाता है। इस कला में कलाकार आईने के टुकड़ो को विभिन्न आकारों में काटता है और उनके उपयोग से इमारतों के भीतर बड़े सुंदर दृष्य उत्पन्न कर देता है। आईने के छोटे छोटे टुकड़ों से प्रकाश का रिफ़्लेक्शन होता है और बड़ा अदभुत वातावरण उत्पन्न हो जाता है।
आईनाकारी की शुरूआत इस तरह हुई कि आईने से बने हुए बड़े कप इमारतों के ऊपर रखे जाने लगे और फिर इमारत के भीतरी भागों यहां तक कि स्तंभों को आईनाकारी से सजाया जाने लगा। इसके लिए कलाकार सबसे पहले डिज़ाइन तैयार करते हैं यह डिज़ाइन दफ़्ती से तैयार किया जाता है। इस तरह यह देखने को मिलता है कि काम पूरा हो जाने के बाद क्या दृश्य तैयार होगा। दफ़्ती के डिज़ाइन पर लगाए गए आईने टुकड़ों को बाद में दीवार और स्तंभों पर स्थानान्तरित किया जाता है। इसे प्लास्टर आफ़ पैरिस और विशेष प्रकार के गोंद से चिपकाया जाता है। आईनाकारी में जो आईना प्रयोग किया जाता है उसकी मोटाई एक मिलिमीटर होती है लेकिन कभी दो मिलीमीटर की मोटाई वाला आईना भी प्रयोग किया जाता है। चूंकी आईने की क़ीमत अधिक हुआ करती थी और उसे बाहर से लाना जोखिम भरा काम होता था कि कहीं आईना टूट न जाए इस लिए ईरानी विशेषज्ञों ने प्राचीन काल से ही क़लई की मदद से आईना बनाने का काम शुरू कर दिया था। बाद में नाईट्रेट से आईना बनाया जाने लगा। लेकिन बाद में आधुनिक तकनीक विकसित की गई और अब ईरान के अंदर बहुत सुंदर आईने बनाए जा रहे हैं।
सबसे प्रचलित डिज़ाइन का फ़ार्सी नाम गिरह है। चूंकि इसमें बड़ी विविधता है और कई कलाओं का प्रयोग किया जाता है अतः यह अद्वितीय है। जब आईने के बड़े टुकड़े प्रयोग किए जाते थे तो सफ़ेद रंग से चित्रकारी की जाती थी। हालिया वर्षों में आईनाकारी में रंग बिरंगे आईनों का प्रयोग किया जाने लगा है। इनके प्रयोग से गुल बूटे तथा दूसरी विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनाई जाती हैं। अब आईने के एसे टुकड़े प्रयोग किए जा रहे हैं जो मुड़े हुए होते हैं अतः उनके माध्यम से नई नई आकृतियां उभारना संभव हो गया है। इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि यह आकृतियां छोटी वस्तुओं पर छोटे आकार में उभारी जाती हैं और इनसे ईरान के हस्तकला उद्योग को बढ़ावा मिल रहा है।
यह भी बता देना उचित होगा कि ईरान में पोशाक पर भी आईने के टुकड़ों की सिलाई की जाती है। यह कामदानी जैसी कला है और इसका विशेष रूप से प्रचलन सीस्तान व बलूचिस्तान में है। स्थानीय पारंपरिक वस्त्रों पर समान दूरी पर समान आकार में आईने के टुकड़ों को सी देने से बड़ी अच्छी चीज़ें तैयार हो जाती हैं। इन कपड़ों को पहनने के साथ ही सजावट के लिए दीवारों पर लटकाया जाता है। इस क्षेत्र में इस कला को अलग अलग नामों से जाना जाता है। यह कला यहां सफ़वी काल से प्रचलित है।