मार्गदर्शन -30
शिया मुसलमानों के पहले इमाम और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के दामाद व उत्तराधिकारी हज़रत अली (अ) ने अंतिम ईश्वरीय दूत हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) के बाद के बदलते हालात और परिस्थितियों को इन शब्दों में बयान किया हैः मानो मेरी आँखों और गले में कोई कांटा अटका हुआ हो।
हालांकि हज़रत अली (अ) को इस तरह के हालात का पहले से ही अंदाज़ा था, इसलिए कि पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें अपने स्वर्गवास के बाद इस प्रकार की साज़िशों से अवगत करा दिया था।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद हज़रत अली (अ) के कड़वे अनुभवों एवं कठिनाईयों के बारे में ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता कहते हैं, मेरी नज़र में हज़रत अली (अ) के जीवन का सबसे कठिन दौर, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के बाद शुरू होता है। वह ऐसे दिन थे कि जब कभी कभी साज़िशों की आंधियां वातावरण को इतना धूमिल कर दिया करती थीं कि जो लोग सही क़दम उठाना चाहते थे, वह क़दम नहीं उठा सकते थे। ऐसी परिस्थितियों में हज़रत अली (अ) बड़ी परीक्षा से गुज़रे। सर्वप्रथम पैग़म्बरे इस्लाम के निधन के बाद, हज़रत अली (अ) ने उनका अंतिम संस्कार किया। ऐसा नहीं था कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के तुरंत बाद कुछ लोग एक बैठक का आयोजन कर रहे हैं, ताकि पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी को नियुक्त कर सकें।
मुसलमानों के तीन ख़लीफ़ाओं के शासनकाल में हज़रत अली (अ) की गतिविधियों के बारे में वरिष्ठ नेता कहते हैं। पहले ख़लीफ़ा के चुनाव के कुछ समय बाद ही कुछ अरब क़बीलों ने इस्लाम को त्याग दिया और पैग़म्बरे इस्लाम और मुसलमानों का नेता न होने के कारण, युद्ध एवं हिंसा को हवा दी। इस घटना को कुछ मुसलमानों के इस्लाम से पलट जाने के नाम से याद किया जाता है। वरिष्ठ नेता इस संदर्भ में उल्लेख करते हुए कहते हैं, जब हालात इस तरह के हो गए तो हज़रत अली ने देखा कि अब निष्पक्ष रहने का समय नहीं है, बल्कि मैदान में उतरना होगा और इस्लाम की रक्षा करनी होगी। वे इस स्थान पर फ़रमाते हैं, जब ख़िलाफ़ का मुद्दा उठा और अबू बक्र को ख़लीफ़ा बना दिया गया तो मैंने ख़ुद को अलग कर लिया और एक कोने में बैठ गया। मैंने देखा कि कुछ लोग इस्लाम से पलट रहे हैं, वे इस्लाम को मिटाना चाहते हैं। उसके बाद मुझे मैदान में उतरना पड़ा।
ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता हज़रत अली की अहम भूमिका के बारे में बताते हुए कहते हैं, हज़रत अली (अ) सक्रिय रूप से मैदान में उतरे। समस्त सामाजिक अहम मामलों में अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ) उपस्थित रहते थे। वे ख़ुद तीनों ख़लीफ़ाओं के 25 वर्षीय शासनकाल के दौरान अपनी भूमिका को एक मंत्री की भांति बताते हैं। तीसरे ख़लीफ़ा उस्मान के बाद जब लोग हज़रत अली (अ) के पास उन्हें ख़लीफ़ा चुनने के लिए आए तो आप ने फ़रमाया, मेरे लिए मंत्री होना इससे बेहतर है कि शासक बनूं, जैसे कि पहले था। अर्थात वे हमेशा उद्देश्यों की प्राप्ति और जनता एवं अधिकारियों की सहायता के लिए सबसे आगे रहते थे।
लेकिन साज़िशों में कोई कमी नहीं आई, बल्कि दिन प्रतिदिन इसमें वृद्धि होती गई। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के बाद से तीसरे ख़लीफ़ा उस्मान की मौत तक, साज़िशकर्ताओं ने असत्य को सत्य के भेस में पेश किया और क़ुरान की आयतों की अपने हितों के अनुसार, व्याख्या की। उन्होंने असत्य को ज़ाहिरी तौर से धोखा देने वाले रूप में पेश किया, यहां तक कि कभी उसकी पहचान करना विशिष्ट एवं विद्वानों के लिए कठिन हो जाता था।
वरिष्ठ नेता का मानना है कि हर क्रांति के लिए कठिन दौर वह होता है जब सत्य और असत्य आपस में इतने गुडमुड हो जाएं कि सत्य का मार्ग खोजना कठिन हो जाए। ऐसी परिस्थितियों में नित नए फ़ितने जन्म लेते हैं और साज़िशें रची जाती हैं। वे साज़िश को प्रदूषित वातावरण बताते हैं, कि जहां इंसान स्पष्ट वास्तविकता को भी नहीं पहचान पाता है। पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के 25 वर्ष बाद, उस दूषित वातावरण में कि जहां लोगों में भ्रष्टाचार और दौलत का नशा बढ़ रहा था, कुछ लोगों को होश आया और उन्होंने मार्गदर्शन के राजमार्ग हज़रत अली (अ) से संपर्क किया। उन्होंने हज़रत अली से आग्रह किया कि ख़िलाफ़त को स्वीकार कर लें। शुरूआत में हज़रत अली ने सख़्ती से इनकार कर दिया, लेकिन लोगों के बहुत ज़्यादा आग्रह के बाद समाज के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया।