Aug २०, २०१७ ११:३३ Asia/Kolkata
  • इस्लाम और मानवाधिकार- 48

इस्लाम धर्म ने इंसानों के व्यक्तिगत व सार्वजनिक अधिकारों को नज़र में रखते हुए कुछ मानवीय गुटों को अपने विशेष ध्यान व कृपा का पात्र बनाया है।

इन्हीं गुटों में महिलाएं शामिल हैं जो अपनी कोमल व नाज़ुक प्रवृत्ति के कारण अधिक समर्थन का पात्र बनी हैं। आज मानवीय विकास का एक मानदंड, विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति और उनकी भूमिका का अनुपात है। दूसरे विश्व युद्ध और संयुक्त राष्ट्र संघ के गठन के बाद समाज के कमज़ोर वर्गों के अधिकारों पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया। समाज का वह कमज़ोर वर्ग जिस पर हमेशा अत्याचार किया गया, महिलाओं का है।

महिलाओं के संबंध में अब तक क्षेत्र और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकारों, संगठनों और संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से बहुत सी बैठकें, सम्मेलन और कान्फ़्रेंसें आयोजित हो चुकी हैं। इसके बावजूद रिपोर्टों और समाचारों से पूरे संसार में औरतों की दयनीय, चिंताजनक और अनुचित स्थिति का पता चलता है। आज महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा, यातना, अनादर, क्रोध और इसी तरह के शब्द बड़े जाने पहचाने हैं। बहुत से समाजों में महिलाओं ने बड़ी अहम सफलताएं और उपलब्धियां अर्जित की हैं लेकिन अब भी लगभग सभी स्थानों पर महिलाओं की समस्याओं को दूसरे दर्जे की प्राथमिकता दी जाती है और प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीक़ों से उन्हें भेदभाव के साथ समाज में हाशिये पर डाल दिया गया है। बहरहाल आज अन्य सामाजिक परिवर्तनों के साथ महिला अधिकारों में आने वाले बदलाव एक ऐसे मार्ग पर बढ़ रहे हैं जिसमें महिलाओं और पुरुषों के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति मुख्य उद्देश्य है और इस मामले में विभिन्न समाज एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं।

लिंग भेद, सृष्टि की व्यवस्था की ऐसी सच्चाई है जिसका कोई भी इन्कार नहीं कर सकता। इस व्यवस्था में इंसान पैदा होते ही महिला या पुरुष जैसे दो अलग-अलग गुटों में से किसी एक में शामिल हो जाता है। यह अंतर, सृष्टि के आरंभ से ही जहां मानव जीवन के जारी रहने का कारण बना है वहीं यह हमेशा रहने वाले एक ऐसे टकराव और तुलना का मार्ग भी प्रशस्त करता है जिसका अंत कभी नहीं आने वाला है। अगर हम सृष्टि के तर्क को उसके सभी अंशों के बीच संतुलन व अनुशासन पर आधारित समझें तो यह संतुलन व अनुशासन, ईश्वर की वही छिपी हुई तत्वदर्शिता है जिसने मनुष्य, पशुओं, वनस्पतियों और जड़ वस्तुओं के भिन्न लेकिन एक दूसरे के लिए आवश्यक जोड़े बनाए हैं। यह आवश्यकता न केवल महिला व पुरुष के एक दूसरे से अलग व स्वाधीन रहने के विचार को पूरी तरह से नकार देती है बल्कि यह सभी इंसानों के बीच प्रेम, स्नेह व शांति का भी कारण बनती है। इस आधार पर एक पर दूसरे की प्राथमिकता, ईश्वरीय व्यवस्था का भाग नहीं है।

अलबत्ता इस बौद्धिक विचार के विपरीत, वास्तविकता और इतिहास का अनुभव कुछ और ही चित्र दिखाता है जिसमें महिलाओं को पुरुषों से बहुत नीचे के दर्जें में रखा जाता है और कभी भी वे अपमान और अनादर से सुरक्षित नहीं रही हैं। लिंग भेद, अन्य तत्वों के साथ हमेशा विभिन्न प्रकार के अत्याचारों के सामने आने का कारण बना है और बेजोड़ संयम व धैर्य जैसी महिलाओं की विशेषता के कारण उन पर हमेशा तरह तरह के अत्याचारों के पहाड़ तोड़े गए हैं। हक़ दिलाने के क़ानूनी तंत्रों तक अधिकतर महिलाओं की पहुंच न हो पाने के कारण उन पर अत्याचार मानो एक संस्कृति में बदल गया है।

यद्यपि वैचारिक परिवर्तन और सामाजिक प्रगति इस सीमा तक पहुंच चुकी है कि उच्च मानवीय मान्यताएं बहुत सी घृणित व्यवस्थाओं का स्थान ले चुकी हैं लेकिन अब भी महिलाओं और पुरुषों के बीच अंतर और भेदभाव इतना अधिक है कि नवीन सभ्यता के अग्रणी देशों तक में औरतों का अपमान व अनादर किया जाता है और उनके अधिकारों का हनन होता है। चौदह सदियां बीत जाने के बावजूद इस्लाम धर्म ने महिलाओं के स्थान और उनके अधिकारों पर विशेष रूप से ध्यान दिया है।

क़ुरआने मजीद अन्य मतों बल्कि आसमानी किताबों के विपरीत, पहली महिला की रचना को सम्मानीय बताता है और महिला व पुरुष की प्रवृत्ति को भिन्न नहीं समझता। ईश्वर, क़ुरआने मजीद की विभिन्न आयतों में बड़े ठोस शब्दों में कहता है कि हमने महिलाओं को पुरुषों जैसा ही और उनकी प्रवृत्ति को पुरुषों की प्रवृत्ति जैसा ही बनाया है। सूरए निसा की पहली आयत में कहा गया है। हे लोगो! अपने पालनहार से डरो जिसने तुम्हें एक जीव से पैदा किया है और उसी जीव से उसके जोड़े को भी पैदा किया और उन दोनों से अनेक पुरुषों व महिलाओं को धरती में फैला दिया। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य की रचना, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, एक ही ढंग और एक ही मिट्टी से की गई है। ईश्वर ने महिला अर्थात हव्वा को उसी मिट्टी से बनाया जिससे पुरुष अर्थात आदम को बनाया। दोनों की सृष्टि मिट्टी से ही हुई है।

कुछ दूसरी आयतों में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि महिला व पुरुष रचना में एक समान हैं और उनमें से किसी को किसी पर प्राथमिकता नहीं प्राप्त है। यह ऐसी स्थिति में है कि जब वर्तमान तौरैत के अनुसार महिला पुरुष से तुच्छ है और उसका मानना है कि महिला का अस्तित्व, पुरुष के अस्तित्व पर निर्भर है और उसकी बाईं पसली से बनाया गया है। जबकि क़ुरआने मजीद में महिला व पुरुष के बीच इस प्रकार का अंतर दिखाई नहीं देता। जैसा कि सूरए ज़ुमर में महिला व पुरुष की सृष्टि को एक समान बताया गया है और उन दोनों के बीच किसी प्रकार का अंतर या महिला या पुरुष के लिए किसी प्रकार की विशिष्टता का उल्लेख नहीं किया गया है। क़ुरआने मजीद कहता है। उसने तुम्हें एक जान से पैदा किया और उसी जान से उसका जोड़ा बनाया।

क़ुरआने मजीद की दृष्टि में सभी मनुष्यों की चाहे वे मर्द हों या औरत, संयुक्त व्यक्तित्व व प्रवृत्ति है और रचना में उनका मूल तत्व एक ही है। ईरान के समकालीन विचारक शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी महिलाओं के संबंध में इस अपमानजनक दृष्टिकोण के बारे में लिखते हैं। अतीत में जो अपमानजनक दृष्टिकोण रहे हैं और जिन्होंने संसार पर नकारात्मक और अवांछित प्रभाव डाले हैं उनमें से एक यह है कि महिला, पाप का कारण है, महिला के अस्तित्व से बुराई व उकसावा निकलता है, महिला छोटी शैतान है, कहते हैं कि पुरुषों ने जो भी अपराध या पाप किया है उसमें किसी न किसी महिला का हाथ रहा है, कहते हैं कि मर्द अपनी प्रवृत्ति में पाप से दूर और विरक्त है और यह औरत है जो उसे पाप की ओर खींच ले जाती है, कहते हैं कि शैतान सीधे पुरुष के अस्तित्व में नहीं जा सकता बल्कि वह महिलाओं के माध्यम से उन्हें धोखा देता है, शैतान औरत को उकसाता है और वह पुरुष को।

यह ऐसी स्थिति में है कि क़ुरआने मजीद ने विभिन्न स्थानों पर हज़रत आदम और हव्वा की घटना का उल्लेख किया है लेकिन उसने कभी भी औरत के शैतान होने या उसके पाप का माध्यम होने की कोई बात नहीं की है बल्कि उसका मानना है कि महिला व पुरुष में से जिस किसी ने भी कोई पाप किया वही अपने कर्म का ज़िम्मेदार माना जाएगा। क़ुरआन जहां पर शैतान के उकसावे की बात करता है वहां महिला व पुरुष दोनों की ओर संकेत करता है। जैसे उसने कहा है कि शैतान ने उन दोनों को उकसाया, शैतान ने उन दोनों को धोखे से ग़लत मार्ग दिखाया और शैतान ने उन दोनों के सामने क़सम खाई कि वह उन दोनों की भलाई के अलावा कुछ नहीं चाहता। इस प्रकार हम देखते हैं कि क़ुरआने मजीद ने औरत को उस काल के प्रचलित ग़लत विचारों व आस्थाओं से मुक्त किया और उसे पुरुष के पाप व बहकावे का कारण या शैतान की छाया बताने से विरक्त घोषित किया।