Nov १५, २०१७ १७:२६ Asia/Kolkata

आपको याद होगा कि हमने पिछले कार्यक्रम में बताया कि इस्लाम ने ज्ञान विज्ञान को बहुत अहमियत दी है।

पवित्र क़ुरआन में ऐसी बहुत सी आयतें हैं जिनसे पता चलता है कि इस्लाम में ज्ञान व ज्ञानी को कितनी अहमियत दी गयी है। पवित्र क़ुरआन में लोगों और मोमिन बंदों पर ज्ञान की प्राप्ति और सृष्टि तथा ईश्वरीय निशानियों के रहस्य के बारे में चिंतन मनन पर बहुत बल दिया गया है। हमने इसी तरह आपको बताया कि इस्लाम में ज्ञान को ईश्वर की पहचान की सीढ़ी कहा गया है लेकिन कभी कभी यही ज्ञान जो इंसान को अंधकार व गुमराही से मुक्ति दिलाता है, उसे गुमराह भी कर सकता है। दूसरे शब्दों में ज्ञान उस दोधारी तलवार की तरह है कि जो व्यक्तिगत व सामूहिक कल्याण कर सकता है और इसी तरह व्यक्ति व समाज को तबाह भी कर सकता है। इस्लाम की नज़र में सच्चा ज्ञान जिससे व्यक्ति व समाज का लोक-परलोक में कल्याण हो उसे लाभदायक ज्ञान कहेंगे।

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इस्लाम की नज़र में वह ज्ञान अच्छा नहीं है जिससे फ़ायदा न हो। यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों ने ऐसे ज्ञान से दूर रहने की बात कही है। इस्लामी रिवायत में है, “पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम एक मस्जिद में पहुंचे तो देखा कि कुछ लोग एक व्यक्ति की परिक्रमा कर रहे हैं। आपने पूछा, यह कौन है? कहा गया अल्लामा अर्थात बहुत बड़ा ज्ञानी है। आपने फिर पूछा इसे अल्लामा क्यों कहते हैं? उन लोगों ने कहा, इस व्यक्ति को अरबी शेरों, अज्ञानता के दौर की घटनाओं और अरबों के कुल का ज्ञान है।” आपने फ़रमाया कि यह ऐसा ज्ञान है कि जिससे न जानने से कोई नुक़सान नहीं हो सकता और उसे जानने से कोई फ़ायदा नहीं। जान लो कि ज्ञान तीन चीज़ों में सीमित है। पहला आयतें मोहकमा, दूसरे फ़रीज़ए आदेला और तीसरा सुन्नते क़ाएमा का ज्ञान। आयतें मोहकमा का ज्ञान अर्थात पवित्र क़ुरआन की वह आयतें जिनका अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है। जिनमें आस्था संबंधी बिन्दुओं का उल्लेख है। फ़रीज़ए आदेला का अर्थ है व्यक्तिगत व सामाजिक नैतिकता का ज्ञान हासिल करना और सुन्नतें क़ाएमा का अर्थ है, इस्लामी शरीअत में जो चीज़े हलाल अर्थात वैध और हराम अर्थात वर्जित हैं, उनका ज्ञान हासिल करना।

ईरान की इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने अपनी किताब चेहल हदीस में इस कथन को ज्ञान के प्रति इस्लाम के दृष्टिकोण का आधार कहा है। इस कथन में उस ज्ञान को श्रेष्ठ कहा गया है जो उपयोगी हो और इस उपयोगिता के तीन मानदंड बताए गए हैं आयए मोहकमा, फ़रीज़ए आदेला और सुन्नते क़ाएमा।

हदीसे क़ुद्सी नामक ईश्वर के विशेष कथन में ईश्वर ने हज़रत दाऊद से कहा, “हे! दाऊद उपयोगी ज्ञान सिखाओ।” हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उस ज्ञान को सबसे अच्छा कहा है जो उपयोगी हो। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने सबसे बड़े बेटे इमाम हसन अलैहिस्सलाम को संबोधित करते हुए कहते हैं, “जो ज्ञान उपयोगी न हो उसमें कोई भलाई नहीं और जिस ज्ञान का हासिल करना उचित नहीं उससे कोई फ़ायदा नहीं पहुंचेगा।” इसी तरह हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने ईश्वर से डर रखने वालों की एक विशेषता उपयोगी ज्ञान पर ध्यान देना व हासिल करना बताया है। एक और कथन में इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं, “वह ज्ञानी जिसका ज्ञान उपयोगी हो वह 70 हज़ार उपासकों से बेहतर है।” इसी तरह अस्र की नमाज़ के बाद पढ़ी जाने वाली दुआ में एक स्थान पर उस ज्ञान से दूर रहने की बात कही गयी है जिसमें कोई फ़ायदा न हो।

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इमाम ख़ुमैनी ने पैग़म्बरे इस्लाम के ज्ञान के बारे में इस कथन की व्याख्या में कहा है कि इंसान तीन में से एक स्थिति में होता है। एक लोक, दूसरे परलोक ओर तीसरे इन दोनों के बीच की स्थिति जिसे बर्ज़ख़ कहते हैं। इमाम ख़ुमैनी के अनुसार, इनमें से हर स्थिति में इंसान प्रशिक्षण व परिपूर्णता हासिल करता है। उपयोगी ज्ञान में तीनों वर्ग शामिल हैं। ईश्वरीय दूत और ईश्वर के नेक बंदों के पास इन तीनों वर्गों का ज्ञान होता है।

ईमान के साथ ज्ञान की प्राप्ति ज्ञान को उपयोगी बनाती है और इस ज्ञान को इस्लाम भी स्वीकार करता है। उपयोगी ज्ञान, ज्ञान के धार्मिक व ग़ैर धार्मिक वर्गीकरण को नहीं मानता। इस बारे में ईरानी विद्वान शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी ज्ञान के धार्मिक व ग़ैर धार्मिक ज्ञान में वर्गीकरण को सही नहीं मानते। उनका कहना है कि ज्ञान के धार्मिक व ग़ैर धार्मिक वर्गीकरण से मन में यह शंका पैदा होती है कि मानो इस्लाम कथित ग़ैर धार्मिक ज्ञान को स्वीकार नहीं करता। वह बल देते हैं, “इस्लाम के अंतिम ईश्वरीय धर्म होने और इसकी व्यापकता का तक़ाज़ा है कि हर वह ज्ञान जो इस्लामी समाज के लिए ज़रूरी है उसे धार्मिक ज्ञान कहें।” यह दृष्टिकोण ज्ञान को ईमान से मिला देता है और उन्हें इस्लामी समाज के दो परों की तरह मानता है जिससे लोक परलोक का कल्याण हासिल होता है।

शहीद मुतह्हरी के दृष्टिकोण के आधार पर इस्लामी समाज में ज्ञान के संबंध में दो शब्दावली का इस्तेमाल होता है और दोनों के पीछे दो अलग अलग तंत्र काम कर रहे हैं। एक आधुनिक ज्ञान जो यूनिवर्सिटियों में पढ़ाया जाता है और दूसरा इस्लामी ज्ञान जो मदरसों में सिखाया जाता है। ज्ञान के इस वर्गीकरण की जड़ आधुनिक ज्ञान से इस्लामी समाज के परिचित होने के समय से दोनों के बीच टकराव से जुड़ी हुयी है। यह दोनों ही ज्ञान एक दूसरे के नकारात्मक पहलू को देखते हैं इसलिए इन दोनों ने अपने रास्ते अलग कर लिए यहां तक कि एक दूसरे के मुक़ाबले में खड़े हो गए। आधुनिक और इस्लामी ज्ञान में टकराव, धार्मिक ज्ञान की परिधि में प्रकट होता है। धार्मिक ज्ञान के समर्थकों व विरोधियों का मानना है कि आधुनिक ज्ञान और पारंपरिक ज्ञान एक दूसरे के विरोधी हैं क्योंकि दोनों ही पक्ष ज्ञान के आधार की पहचान के संबंध में एक दूसरे से मतभेद रखते हैं। हालांकि धार्मिक व ग़ैर धार्मिक ज्ञान में विवाद की स्थिति में अगर उपयोगी ज्ञान को आधार बनाएं तो इससे धार्मिक व ग़ैर धार्मिक ज्ञान में समन्वय बन सकता है और दोनों एक दूसरे के विरोधी होने के बजाए एक दूसरे के पूरक बन सकते हैं।

शहीद मुतह्हरी आधुनिक ज्ञान के विरोधियों की आलोचना करते हुए बल देते हैं कि आधुनिक ज्ञान का मर्द और औरतों दोनों के लिए सीखना ज़रूरी है। वह कहते हैं, “इस बात में शक नहीं कि ज्ञान अकेले समाज के कल्याण की गैरंटी नहीं बन सकता। समाज के लिए धर्म और आस्था की ज़रूरत है। जिस तरह आस्था बिना ज्ञान के उपयोगी नहीं बल्कि दुर्भागी होती है।” इस्लाम न तो अधर्मी ज्ञानी चाहता है और न ही जाहिल धर्मपरायण।

इस्लाम में ज्ञान की प्राप्ति के संबंध में बहुत नर्मी दिखायी गई है और वह ज्ञान की प्राप्ति को इंसान के लिए जहां कहीं भी हो जायज़ समझता है। इसी बिन्दु का पैग़म्बरे इस्लाम के एक स्वर्ण कथन में उल्लेख है। आप फ़रमाते हैं, “ज्ञान हासिल करो चाहे वह चीन में ही क्यों न हो।” इस्लाम के उदय के समय चीन ईश्वर के इंकार का प्रतीक और बहुत दूर था और पैग़म्बरे इस्लाम ने चीन का नाम इसलिए लिया ताकि ज्ञान की प्राप्ति की अहमियत ज़ाहिर हो सके।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम नहजुल बलाग़ा में 80वें स्वर्ण कथन में कहते हैं, “तत्वदर्शिता मोमिन की खोई हुयी चीज़ है। उसे हासिल करो चाहे मिथ्याचारियों से ही क्यों न हासिल करना पड़े।” इस आधार पर इस्लाम की नज़र में हर ज्ञानी से ज्ञान हासिल कर सकते हैं चाहे उसकी धार्मिक आस्था व राजनैतिक विचार कुछ भी हो।

अगर उपयोगी ज्ञान को आधार मान लें तो समझ में आ जाएगा कि इस्लाम ने ज्ञान की प्राप्ति के लिए इतना ज़्यादा लचीला रुख़ क्यों अपनाया है। उपयोगी ज्ञान, ज्ञान और ज्ञानी के एक दूसरे से जुड़े होने पर बल देता है। इस अर्थ में कि उस समय ज्ञान ज्ञानी के लिए उपयोगी होगा जब उसकी ईश्वर पर आस्था हो और वह ज्ञान की प्राप्ति ईश्वर की नीयत से करे। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं, “जो भी ईश्वर के लिए ज्ञान हासिल और उस पर अमल करे और दूसरों को सिखाए तो उसे आसमान में फ़रिश्तों के बीच अच्छे नाम से याद किया जाता है। और वे कहते हैं, इसने ईश्वर के लिए सीखा, ईश्वर के लिए उस पर अमल किया और ईश्वर के लिए सिखाया।” उपयोगी ज्ञान को समाज की ज़रूरत कहा गया है। इस दृष्टिकोण के तहत ज्ञान की प्राप्ति हर आयाम से समाज की ज़रूरत को पूरा करने के अधीन है।

उस्ताद शहीद मुतह्हरी का मानना है, “समाज में बदलाव और उसकी जटिलता के कारण समाज में नई ज़रूरतें ज़ाहिर होती हैं और ज्ञान की प्राप्ति को ज़रूरी बनाती है। आज दुनिया की स्थिति और समाज की ज़रूरतें बदल गयी हैं। इनमें से कोई भी काम जो आज की दुनिया के अनुरूप और मानव जीवन के कारवां से समन्वित हो, ज्ञान की प्राप्ति के बिना मुमकिन नहीं है।” इस आधार पर इस्लामी समाज की यूनिवर्सिटियों को लोगों की ज़रूरत के तहत व्यवस्थित किया जाए।