डोनाल्ड ट्रम्प के काल में वाशिंग्टन और रियाज़ के संबंध
अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रम्प ने सबसे पहले सऊदी अरब की यात्रा की।
उस अवसर पर सऊदी नरेश शाह सलमान ने अरब व इस्लामी देशों के कुछ नेताओं व प्रतिनिधियों को रियाज़ में एकत्रित किया था ताकि वे डोनाल्ड ट्रम्प से भेंट कर सकें। उसके बाद अमेरिका और सऊदी अरब के मध्य 450 अरब डालर के समझौते पर हस्ताक्षर हुए जिसमें 110 अरब डालर का समझौता केवल हथियारों की खरीदारी के संबंधित था। इस समझौते से हथियारों की ख़रीदारी के संबंध में अंतरराष्ट्रीय रिकार्ड टूट गया। अमेरिका और सऊदी अरब के मध्य होने वाले समझौते के बाद सऊदी अरब का पारंपरिक तलवार का नाच हुआ जिसमें सऊदी राजकुमारों के साथ डोनाल्ड ट्रम्प भी हाथ में तलवार लेकर नाचे। ट्रम्प रियाज़ से सीधे तेलअवीव चले गये।
इस यात्रा के बाद सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान ने क़तर का आर्थिक परिवेष्टन कर दिया, उसके बाद लेबनान के प्रधानमंत्री साद हरीरी को अपने पद से त्याग पत्र देने पर बाध्य किया गया और ईरान के खिलाफ शाब्दिक युद्ध में गति प्रदान कर दी। सऊदी अरब के इस प्रकार के क्रिया- कलाप यह दर्शाते हैं कि उसने पश्चिम एशिया में अमेरिकी नीति के परिप्रेक्ष्य में यह सब किया है।
सवाल यह उठता है कि सऊदी अरब की इस नई भूमिका में कौन कौन से पहलु शामिल हैं?
इस सवाल के जवाब के लिए कुछ दशक पहले की ओर लौटना होगा। उस समय जब सऊदी अरब नामक देश का नया- नया गठन हुआ था सऊदी नरेश अब्दुल अज़ीज़ बिन सऊद ने विदेशी ख़तरों से मुकाबले के लिए अपने देश के तेल स्रोतों की रक्षा का दायित्व अमेरिका दे दिया था। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले के वर्षों में अब्दुल अज़ीज़ ने सऊदी अरब के तेल स्रोतों को अमेरिकी कंपनियों के अधिकार में दे दिया ताकि उनकी सुरक्षा के साथ आले सऊद की सरकार के जारी रहने की गैरन्टी भी अमेरिका दे सके। उस काल को बीते हुए अब लगभग 80 साल का समय हो रहा है परंतु अमरीका पर सऊदी अरब की वह निर्भरता इस समय भी जारी है यानी तेल के बदले सऊदी अरब की सुरक्षा।
अमेरिका की अगुवाई में पश्चिम की अर्थ व्यवस्था दुनिया में सबसे बड़े तेल निर्यातक देश यानी सऊदी अरब के तेल स्रोतों से लाभ उठाये बिना अपंग हो जायेगी और दुनिया के सबसे बड़े तेल स्रोतों की सुरक्षा दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति के बिना नहीं हो सकती। वर्ष 1973 में जब सऊदी नेताओं ने इस्राईल के अतिक्रमण से मुकाबले में फिलिस्तीनी राष्ट्र की आकांक्षाओं का समर्थन किया था तब भी रियाज़ और वाशिंग्टन के मध्य तेल व सुरक्षा के क्षेत्र में जो संबंध थे वे समाप्त नहीं हुए थे पर अमेरिका की ओर से थोड़ी सी धमकी मिलने के बाद सऊदी अरब ने तेल के संबंध में जो बहिष्कार कर रखा था वह उससे पीछे हट गया और अमेरिका ने भी स्वीकार किया कि वह अरब जगत की चिंताओं के एक भाग पर ध्यान देगा परंतु अमेरिका ने अपने व्यवहार से दर्शा दिया कि वह केवल ज़बान की सतह तक अरब जगत की चिंताओं पर ध्यान देगा।
बहरहाल जब तक ईरान में पश्चिम की हां में हां मिलाने वाली सरकार थी तब तक रियाज़ और वाशिंग्टन के संबंधों के आधार मुख्य रूप से आर्थिक विषय थे और तेल की मंडियों में टिकाव था पर जब वर्ष 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति के बाद पहलवी सरकार का अंत हो गया तो वर्ष 1960-70 के दशक में मध्यपूर्व के संबंध में अमेरिकी नीति के जो दो मुख्य स्तंभ थे उनमें से एक का अंत हो गया। उस समय मध्यपूर्व में अमेरिका की वर्चस्ववादी नीति के दो स्तंभ थे एक ईरान की सैनिक शक्ति और दूसरे सऊदी अरब की अर्थ व्यवस्था।
जब ईरान अमेरिका की वर्चस्ववादी नीति का विरोधी हो गया तो अमेरिका के राजनैतिक व सैनिक समर्थन का रुख सऊदी अरब की ओर मुड़ गया। वर्ष 1981 में इराक की बासी सरकार ने ईरान पर हमला किया। वह समय अमेरिका और सऊदी अरब के संबंधों को और बेहतर बनाने का एक अच्छा अवसर था। सऊदी अरब ने सद्दाम द्वारा ईरान पर थोपे गये युद्ध में तेहरान पर दबाव डालने और उसे अमेरिकी मांगों को मानने पर बाध्य कर देने के लक्ष्य से तेल युद्ध आरंभ कर दिया। उसने तेल के मूल्य को गिराकर अभूतपूर्व ढंग से प्रति बैरेल 10 डालर से भी कम कर दिया। इस नीति से ईरान, इराक और सऊदी अरब जैसे तेल का उत्पादन करने वाले देशों को न केवल क्षति पहुंची बल्कि वह यूरोप और अमेरिका की आर्थिक स्थिति के बेहतर होने का कारण बनी। तेल की कीमत कम होने से अमेरिका और यूरोप ने अपने उत्पादों में वृद्धि कर दी और रोज़गार के लाखों अवसरों को उत्पन्न कर दिया। सऊदी अरब ने तेल की कीमत को जो अभूतपूर्व ढंग से कम कर दिया था जब उस नीति का भी कोई परिणाम नहीं निकला तो उसने अमेरिका से अरबों डालर का हथियार ख़रीदा ताकि सद्दाम इन्हीं हथियारों से ईरानी जनता की हत्या कर सके। इराक द्वारा ईरान पर थोपे गये युद्ध के दौरान सऊदी अरब ने सद्दाम की जो वित्तीय सहायता की उसके कारण यह युद्ध लंबा हो गया और हथियार बनाने वाली अमेरिकी एवं यूरोपीय कंपनियों में भी जान आ गयी।
इसी प्रकार ईरान- इराक युद्ध के दौरान सऊदी अरब ने अमेरिका का आह्वान किया कि कुवैत या सऊदी अरब के तेल के जहाज़ों पर तीसरे देश का झंडा दिया जाये। सऊदी अरब के इस कार्य से पहली बार फार्स की खाड़ी में अमेरिकी जलपोतों का आना शुरू हुआ। उसके बाद फार्स की खाड़ी में अमेरिकी सैनिकों की उपस्थिति विस्तृत होती गयी यहां तक कि इराक द्वारा कुवैत के अतिग्रहण के कई साल बाद वह अपने चरम बिन्दु पर पहुंच गयी।
इराक द्वारा कुवैत पर हमला करने से पहले के समस्त वर्षों में सऊदी अरब ने प्रति वर्ष यूरोप और अमेरिका से अरबों डालर का आधुनिकतम हथियार खरीदा। इन हथियारों की खरीदारी के लिए सऊदी अरब ने अपनी सुरक्षा का बहाना बनाया। इन सबके बावजूद जिस समय सद्दाम ने आधे दिन में पूरे कुवैत का अतिग्रहण कर लिया उस समय वह सऊदी अरब के तेल के कुओं के निकट हो चुका था। सऊदी अरब ने यूरोप और अमेरिका से जो आधुनिकतम हथियार खरीदे थे उनकी सहायता से भी वह सद्दाम के सामने प्रतिरोध न कर सका।
तत्कालीन सऊदी नरेश शाह फहद ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति सिनियर बुश को एक पत्र लिखकर उनका आह्वान किया था कि वे कुछ सैनिक भेजकर उनके देश की सुरक्षा करें।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सद्दाम द्वारा कुवैत का अतिग्रहण और उसके बाद अमेरिकी सैनिकों को सऊदी अरब भेजा जाना वह सब पश्चिम एशिया और फार्स की खाड़ी पर कब्ज़ा जमाने के लिए पहले से सोची समझी योजना थी। ये विश्लेषक अपने दृष्टिकोण को सही सिद्ध करने के लिए इराक में तत्कालीन अमेरिकी राजदूत की हरी झंडी की ओर संकेत करते हैं। उस समय बगदाद में अमेरिकी राजदूत ने सद्दाम से भेंट में कहा था कि अरब देशों के जो एक दूसरे से मतभेद हैं वाशिंग्टन उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। यानी यही एक वाक्य काफी था कि सद्दाम निश्चिंत होकर कुवैत पर सैनिक चढ़ाई करे। इसके कुछ घंटे बाद फार्स की खाड़ी में आज़ादी के साथ ऊर्जा के स्थानांतरण के बहाने अमेरिका ने सऊदी अरब सहित क्षेत्र में पांच लाख सैनिकों को तनात करने का कार्यक्रम बनाया।
फार्स की खाड़ी के प्रथम युद्ध में कुवैत को सद्दाम के चंगुल से आज़ाद कराया गया। उस युद्ध में सऊदी अरब ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अगर अमेरिका सऊदी अरब की छावनियों से लाभ न उठाता तो इराक से युद्ध में सफलता मिलना बहुत कठिन हो जाता। तेल के बदले सुरक्षा का जो पुराना विकल्प था वह फार्स की खाड़ी के पहले युद्ध में एक बार फिर दिखाई पड़ा। सऊदी अरब ने तेल का निर्यात जारी रखकर और क्षेत्र में अमेरिका ने जो सैनिक चढ़ाई की थी उसकी कीमत देकर सद्दाम से अपनी सुरक्षा को सुनिश्चित बनाया था और अमेरिकियों ने भी सऊदी अरब के खर्च और उसकी सहायता से फार्स की खाड़ी के महत्वपूर्ण क्षेत्र में हमेशा के लिए अपना ठिकाना व अड्डा बना लिया।
फार्स की खाड़ी के युद्ध की समाप्ति के साथ वाशिंग्टन और रियाज़ के संबंध पहले से अधिक मज़बूत हो गये।
अमेरिका और सऊदी अरब का ध्यान एक बार फिर ईरान की ओर हो गया। सऊदी अरब ने ईरान के संबंध में अपने कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लक्ष्य से सऊदी अरब में अमेरिकी सैनिक छावनी अलखुबर में बम विस्फोट प्रकरण से लाभ उठाने का प्रयास किया ताकि ईरान से निपटने का कार्य आरंभ हो सके परंतु ईरान के तत्कालीन अधिकारियों की सोच और उनके व्यवहार से यह योजना विफल हो गयी।
इन परिवर्तनों के साथ अमेरिका और सऊदी अरब के संबंध अलक़ायदा नाम के नये संगठन से प्रभावित हुए। अलकायदा और उसका मुखिया ओसामा बिन लादेन अफगानिस्तान में पूर्व सोवियत संघ की सेना से मुकाबले के लिए अमेरिका और सऊदी अरब की संयुक्त सहकारिता की उपज थे। अफगानिस्तान से पूर्व सोवियत संघ के सैनिकों के निकाल दिये जाने के बाद अलकायदा के अस्तित्व की आवश्यकता समाप्त हो जाती परंतु सद्दाम द्वारा कुवैत का अतिग्रहण करने और तत्कालीन सऊदी नरेश की इस देश में उपस्थिति के लिए अमेरिका से आह्वान के बाद अलकायदा अमेरिका और सऊदी अरब दोनों का दुश्मन बन गया। आरंभ में अलकायदा एक चरमपंथी और आले सऊद का विरोधी गुट था परंतु धीरे- धीरे उसका कार्यक्षेत्र देश से बाहर तक हो गया और क्षेत्र में उसने अमेरिका की सैनिक उपस्थिति के लिए भूमि प्रशस्त कर दी।
अमेरिका और सऊदी अरब का जो प्राचीन संबंध है उसमें अलकायदा का विषय एक विचित्र बात है। अमेरिकी इतिहास की जो सबसे बड़ी आतंकवादी घटना है उसका ज़िम्मेदार अलकायदा को माना जाता है और उसे उस देश का व्यापक समर्थन प्राप्त है जो पश्चिम एशिया में अमेरिका का सबसे बड़ा घटक है। केवल अलकायदा नहीं है जिसे सऊदी अरब का व्यापक समर्थन प्राप्त है बल्कि आतंकवादी गुट दाइश भी है जो सऊदी शहज़ादों और इस देश की तथाकथित कल्याणकारी संस्थाओं की सहायता से बना है और उसने टीवी कैमरे के सामने अमेरिकी बंधकों का सिर कलम कर दिया। इन सबके बावजूद अमेरिका सऊदी अरब को आतंकवाद विरोधी लड़ाई में अपना सबसे निकट घटक बताता है। यह विषय इस बात का सूचक है कि अमेरिका और सऊदी अरब के संबंधों के जो आधार हैं उसे आतंकवाद और दाइश जैसे आतंकवादी गुट की हिंसा से भी नुकसान नहीं पहुंच सकता।