Mar ०३, २०१८ १४:१६ Asia/Kolkata

उपासना के महत्व के कारण उपासना स्थल भी सम्मानीय दृष्टि से देखे जाते हैं।

पूरे विश्व में हर धर्म के मानने वाले अपने धर्मस्थल को विशेष महत्व देते हैं और उसकी सफाई-सुथराई के लिए सदैव प्रयासरत रहते हैं।  मुसलमान जिस स्थान पर ईश्वर की उपासना करते हैं उसे मस्जिद कहा जाता है।  मुसलमानों में इसे ईश्वर के घर के नाम से भी जानते हैं।  उपासना स्थल के रूप में प्रयोग होने के साथ ही मस्जिद, आरंभ से शिक्षा का भी महत्वपूर्ण केन्द्र रही है।  इस्लाम के उदय के आरंभिक काल में मक्के में अत्यधिक कठिन परिस्थतियों के बावजूद पैग़म्बरे इस्लाम (स) पवित्र काबे में जाकर लोगों को एकत्रित करके उनके लिए क़ुरआन पढ़ते थे।  वहां वे लोगों को इस्लाम की शिक्षाएं देते थे।  पैग़म्बरे इस्लाम वहां पर लोगों को अलग से बिठकार इस्लाम और एकेशेवरवाद के बारे में बताया करते थे।

 

प्रचीनकाल से मस्जिदें ग़रीबों और बेघरों का शरण स्थल भी रही हैं।  जब कभी कोई व्यक्ति रास्ता भटक जाता या किसी नए शहर में अजनबी होता तो वह वहां की मस्जिद में पनाह लेता था।  इस्लाम के उदय के आरंभिक काल में जब मुसलमान, मक्के से मदीना आए तो उनके पास रहने के लिए कोई स्थान नहीं था।  ऐसे में उन्होंने मस्जिद में शरण ली थी।  एसे लोग मस्जिदुन्नबी के उत्तरी क्षेत्र में मस्जिद से सटे हुए स्थान पर शरण लेते थे।  यह जगह मस्जिद से बिल्कुल सटी हुई थी जिसे “सुफ़्फ़ा” कहा जाता था।  बाद में यह जगह “मस्दजिदुस्सुफ्फा” के नाम से मश्हूर हुई।  यहां पर रहने वाले वे लोग थे जिनके पास मदीने में रहने के लिए कोई स्थान नहीं था।  एसे लोग अपना अधिक समय ईश्वर की उपासना में लगाया करते थे।

यह लोग गर्मी से बचने के लिए सुफ़फ़ा के उस भाग का प्रयोग करते थे जिस पर छत पड़ी हुई थी।  इस प्रकार घरबार न होने के बावजूद बड़ी संख्या में मुसलमान मदीने में यहां पर रह रहे थे।  यहां पर इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि यदि आवश्यकता न हो तो मस्जिद में सोने और आराम करने से बचना चाहिए क्योंकि मस्जिद अस्ल में ईश्वर की उपासना का स्थल है आरामगाह नहीं है।  इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि जो भी व्यक्ति बिना किसी ज़रूरत के मस्जिद में सोएगा उसे ईश्वर ऐसी बीमारी में डाल देगा जिसका इलाज संभव नहीं है।  वैसे तो हर मस्जिद में सोना अनुचित है लेकिन मस्जिदुल हराम और मस्जिदुन्नबी में सोने को अधिक बुरा माना गया है।

 

विशेष बात यह है कि असहाबे सुफ्फा के बारे में जो बात हमने कही वह इससे अपवाद है।  एक बात तो यह है कि सुफ्फा वह स्थान था जो मस्जिद से बिल्कुल सटा हुआ था किंतु वह उस समय मस्जिद का भाग नहीं था।  दूसरी बात यह कि सुफ्फा में शरण लेने वाले मुसलमान एसे मुसलमान थे जो पलायन करके मदीने आए थे और मदीने में रहने के लिए उनके पास कोई भी स्थान नहीं था।  हालांकि उनमें से कुछ के पास उन स्थानों पर घर-मकान थे जहां से वे आए थे किंतु मदीने में वे बेघर थे।  एसे मुसलमानों के पास पैसे भी नहीं थे और आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति उचित नहीं थी।  इन सब बातों के बावजूद इस्लाम से हार्दिक लगाव के कारण उन्होंने सबकुछ छोड़कर मदीना आबाद किया था।

एक बात यह भी है कि मस्जिद वैसे तो ग़रीबों और बेपनाह लोगों का शरण स्थल है किंतु यह भीख मांगने का स्थान नहीं है।  मस्जिद में भीख मांगना ग़लत है।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने लोगों को भीख मांगने को रोका है।  आपके कथनों में भीख मांगने की निंदा की गई है और छिपकर या खुलेआम किसी भी प्रकार से भीख मांगने की निंदा की गई है।  विशेषकर यह काम मस्जिद में नहीं किया जाना चाहिए।  इसका कारण यह है कि मस्जिद उपासना करने क़ुरआन पढ़ने, दुआ करने और इस्लामी शिक्षाएं देने का स्थल है।

किसी के आगे हाथ फैलाने और अपनी समस्या किसी को बताने में काफ़ी अंतर है।  किसी को अपनी समस्या बताकर उससे मदद मांगने को भीख मांगना नहीं कहा जाता।  इस्लामी शिक्षाओं में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति तुमसे कोई सवाल करे और तुम उसका जवाब देने में सक्षम हो तो उसकी सहायता अवश्य करो।  इससे पता चलता है कि भीख मांगना अलग बात है और किसी से अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए सवाल करना अलग चीज़ है।  किसी मुसलमान की समस्या के समाधान को इस्लाम में प्रशंसनीय काम बताया गया है।  इस्लाम अपने अनुयाइयों को आदेश देता है कि वह ज़रूरतमंदों की मुश्किलों को आसान करने के लिए प्रयास करते रहें।

कार्यक्रम के इस भाग में हम आपको यमन की राजधानी सनआ की जामा मस्जिद के बारे में बताने जा रहे हैं।  इस मस्जिद का नाम “जामे अलकबीर” है।  एतिहासिक प्रमाणों से पता चलता है कि मक्के पर विजय प्राप्त करने से पहले पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) ने सन छह हिजरी क़मरी बराबर 630 ईसवी में इस मस्जिद के बनाने का आदेश दिया था।  आपने यमन की तत्कालीन राजधानी सनआ के प्राचीन भाग में अलकबीर मस्जिद बनानए जाने का आदेश दिया था।  इतिहासकारों का कहना है कि अपने आदेश में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मस्जिद का क्षेत्रफल भी निर्धारित कर दिया था।  इस प्रकार कहा जा सकता है कि सनआ की जामे मस्जिद, इस्लाम की प्राचीनतम मस्जिदों में से एक है।  यह मस्जिद यमन में बनने वाली पहली मस्जिद है।  प्राचीन इमारतों पर शोध करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि सनआ की जामे अलकबीर मस्जिद के प्राचीन अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है कि इसका कुछ प्राचीन हिस्सा अब भी सुरक्षित है। 

कुछ इतिहासकारों का कहना है कि सनआ की जामे अलकबीर मस्जिद, “ग़मदान” नामक महल के खण्डहर पर बनी हुई है।  ग़मदान, यमन के अति प्राचीन महलों में से एक महल है।  इस महल के बनाने वालों के बारे में इतिहास में विभिन्न कथन मिलते हैं।  कुछ इतिहासकारों का यह मानना है कि ग़मदान महल, हज़रत सुलैमान ने बनवाया था जो हज़रत दाऊद पैग़म्बर के बेटे थे।  हज़रत सुलैमान ने यह महल बिलक़ीस के लिए बनवाया था।

 

उमवी शासक वलीद इब्ने अब्दुल मलिक ने सन 79 हिजरी क़मरी बराबर 707 ईसवी में सनआ की अलकबीर मस्जिद का विस्तार किया था।  इसके बाद के कालों में भी मस्जिद का विस्तार होता रहा।  इस मस्जिद की दीवारों पर सफेद पत्थरों की एक पट्टी बनी हुई है।  इसमें कई स्तंभ हैं।  इस मस्जिद की जो वर्तमान छत है वह ग्यारहवीं शताब्दी हिजरी क़मरी में बनाई जाने वाली छतों की शैली पर आधारित है।

सनआ की जामा मस्जिद के दो मीनार हैं।  इन दोनों मीनारों की मरम्मत छठी हिजरी क़मरी में कराई गई थी।  इस मस्जिद में तीन बड़े पुस्तकालय हैं।  पहले पुस्तकालय का नाम है, “अलमक्तबतुल मशरेक़िया”।  यह, “यहया हमीदुद्दीन” के सत्ताकाल में बनाया गया था।  वे यमन में रहने वाले ज़ैदियों के सबसे प्रभावशाली इमाम थे।  सनआ की जामा मस्जिद में स्थित दूसरे पुस्तकालय का नाम “अलमकतबतुल ग़रबिया” है जिसमें प्राचीनकाल की हस्तलिखित पुस्तकों को रखा गया है। यह दोनों पुस्तकालय मस्जिद के दक्षिणी भाग में स्थित हैं।  यहां के तीसरे पुस्तकालय का नाम है, “मकतबतुल औक़ाफ़”।  इसमें दुर्लभ पांडुलिपियां मौजूद हैं।  यहां पर कुछ अति दुर्लभ पवित्र क़ुरआन भी रखे हुए हैं।  इस पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की दुर्लभ पुस्तकें रखी गई हैं जैसे भूगोल, चिकित्साशास्त्र, कृषि, खगोलशास्त्र, इतिहास, साहित्य, दर्शनशास्त्र, पवित्र क़ुरआन की व्याख्याएं, प्राचीन शब्दकोश, धर्मशास्त्र और राजनीति आदि।

विभिन्न कारणों से बहुत से इस्लामी पुस्तकालय नष्ट हो गए जिसके कारण इस्लाम के उदय की आरंभिक शताब्दी के क़ुरआन बहुत कम हैं।  सनआ की जामा मस्जिद में प्राचीनकाल के 950 पवित्र क़ुरआन हैं जो खाल पर लिखे हुए हैं।  इस पुस्तकालय में खाल पर लिखी हुई 15000 प्रतियां मौजूद हैं।  विशेष बात यह है कि इन प्रतियों के बारे में उस समय पता चला जब सन 1972 में सनआ की जामा मस्जिद के पश्चिमी भाग की मरम्मत की जा रही थी।  इससे पहले होने वाली भारी वर्षा के कारण मस्जिद का कुछ भाग क्षतिग्रस्त हो गया था।

 

इस पुस्तकालय में मौजूद पुस्तकों में से अधिकांश पुस्तकें हेजाज़ी लीपि में हैं।  हेजाज़ी लीपि, प्राचीनकाल की प्रचलित लीपियों में से एक है जो अधिकतर मक्के और मदीने में प्रचलित थी।  वर्तमान समय में इसे दुर्लभ लीपि माना जाता है।  इस समय संसार में बहुत ही कम एसे संग्रहालय या पुस्तकालय हैं जहां पर हेजाज़ी लीपि की किताबें मौजूद हों।  हालांकि सनआ की जामा मस्जिद में हेजाज़ी लीपि की बहुत अधिक पुस्तकें मौजूद हैं।  हालांकि यहां पर मौजूद किताबों में से अधिकांश कूफी लीपि की किताबें हैं।

यहां पर पाए जाने वाले पवित्र क़ुरआनों में एक ऐसा क़ुरआन भी है जिसे हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने लिखा था।  कहते हैं कि यह कूफ़ी लीपि में है जिसमें कोई नुक़्ता नहीं है।  यह क़ुरआन लगभग 150 पृष्ठों का है।  यूनेस्को ने “मेमोरी आफ द वर्ड” कार्यक्रम के अन्तर्गत एक सीडी तैयार की थी जिसमें सनआ की जामा मस्जिद के पुस्तकालयों में रखी किताबों की सूचि तैयार की गई है।  इसमें पहली शताब्दी हिजरी क़मरी में हाथ से लिखे जाने वाले 40 पवित्र क़ुरआन की प्रतियों का उल्लेख किया गया है।  इससे यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि पूर्वी मामलों के कुछ विशेषज्ञों का यह दावा ग़लत है कि पवित्र क़ुरआन में फेरबदल किया गया है।  इसका कारण यह है कि पवित्र क़ुरआन की प्राचीन प्रतियों और वर्तमान समय में प्रचलित क़ुरआन में कोई अंतर नहीं है।  इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि पवित्र क़ुरआन में अबतक कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया है।