May ०७, २०१८ ०१:०० Asia/Kolkata

इंसान का दिल और दिमाग़ किसी अर्थ को समझने के लिए आंखों का भी सहारा लेता है।

शिया मुसलमानों के चौथे इमाम हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ) आंखों के अधिकार के संबंध में फ़रमाते हैं, तुम्हारी आंखों का अधिकार है कि उन्हें बुरा देखने से रोको, आंखों से ऐसी चीज़ें देखो, जिनसे कुछ सबक़ हासिल हो सके, इसके अलावा उनका प्रयोग नहीं करो, व्यर्थ और बुरी चीज़ों को देखने से बचो, इसलिए कि आंखों से या तो अपने ज्ञान में वृद्धि करो या अपनी समझ में, इसलिए कि आंखें सबक़ हासिल करने का उपकरण हैं। 


आंख और कान, दिल और दिमाग़ के दो रास्ते हैं। इसलिए धार्मिक शिक्षाओं में इन दोनों की हिफ़ाज़त पर बल दिया गया है और उनसे सही लाभ उठाने के तरीक़ों को भी बयान किया गया है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) आंखों के अधिकारों के संबंध में फ़रमाते हैं कि हर बुरा देखने से बचो और हराम और बुराई को देखने से बचना आंख के अधिकारों के पालन का पहला क़दम है। इमाम (अ) ने यह बात क़ुरान की इस आयत के संदर्भ में कही है, मोमिनों से कह दो अपनी आंखों को नीचा रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें, इसमें उनके लिए शुद्धता है, वे जो करते हैं ईश्वर उससे अवगत है, ईमानदार महिलाओं से कह दो कि अपनी आंखों को नीचा रखें और अपनी शुद्धता की सुरक्षा करें और अपने मेकअप या गहनों को उससे ज़्यादा कि जितना सामान्य रूप से ज़ाहिर रहता है, ज़ाहिर न करें, अपने स्कार्फ़ के पल्लू को अपने सीने पर डालकर रखें। 


आंखों की कुछ ज़िम्मेदारी होती है, अगर उसे पूरा किया जाए तो उसका हक़ अदा हो जाता है। इन ज़िम्मेदारियों में से महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी यह है कि ऐसे दृश्यों न देखा जाए जिन्हें देखने से दिल और सोच भटक जाए। धार्मिक शिक्षाओं में आंखों और कानों को एक दरीचा समझा जाता है, इसलिए कि आंखें जो कुछ देखती हैं और कान जो कुछ सुनते हैं अपने भीतर उसे सुरक्षित नहीं रखते हैं, बल्कि उसे दिल और दिमाग़ में सुरक्षित कर देते हैं। अब अगर वह चीज़ पवित्र और शुद्ध होगी तो वह दिल और दिमाग़ को ताज़गी प्रदान करेगी और अगर दूषित एवं ज़हरीली होगी तो दिल और दिमाग़ को प्रभावित करेगी, जिसके नतीजे में वह निष्क्रिय हो जायेंगे। 


दुनिया के ऐसे दृश्यों को देखना अच्छा है, जिन्हें देखने से कुछ हासिल होता है। अगर अच्छे दृश्यों को देखा जाए तो जीवन में बहुत कुछ सीखने को मिलता है, लेकिन अगर बुरे दृश्य पर नज़र पड़े तो इंसान को दोबारा ऐसे दृश्य देखने से बचना चाहिए। 
हज़रत अली (अ) फ़रमाते हैं, सबक़ हासिल करने वाले और पाठ लेने वाले दृश्य बहुत हैं, लेकिन ऐसी आंखें कि जो इनसे सबक़ हासिल करें, बहुत कम होती हैं। इसलिए आंखों का यह दूसरा अधिकार है कि ऐसे दृश्यों से सबक़ हासिल किया जाए। 
इसमें कोई शक नहीं है कि ज्ञान प्राप्त करने में आंख एक महत्वपूर्ण ज़रिया है। इस संदर्भ में हज़रत अली (अ) ज्ञान प्राप्ति पर अधिक बल देते हैं। इसलिए कि ज्ञान का इस्लाम में बहुत महत्व है, लोगों के महत्व को इसी पैमाने पर तौला जाता है। 


इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) पैरों के हक़ के बारे में फ़रमाते हैं, पैरों का हक़ यह है कि जो तुम्हारे लिए उचित नहीं है, उसकी ओर जाओ, उन्हें ऐसे रास्ते पर न चलाओ जिससे तुम्बारी शख़्सियत में हल्का पन आए, इसलिए कि उनसे ईश्वर के मार्ग में क़दम उठाने हैं और इन्हीं दोनों पैरों से आगे बढ़ना है, सिरात पर चलना है, इस बात का ध्यान रखना कि यह लरज़ने न लगें और तुम्हें आग में न गिरा दें। 
पैर चलने का एक ज़रिया हैं। जैसा कि इमाम फ़रमाते हैं, तुम्हें हक़ नहीं है कि इन दो पैरों से अनुचित चीज़ों की ओर न बढ़ो, इसका अर्थ है कि हर प्रकार के हराम की ओर जाने से रोका गया है। इंसान के शरीर के यह अंग, अवैध एवं हराम अजांम देने के लिए नहीं हैं, बल्कि उन्हें उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए इंसान को प्रदान किया गया है। 
पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं, जो कोई भी ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में दो क़दम उठाएगा और दो घंटे किसी विद्वान के पास बैठेगा, ज्ञान के दो शब्द उससे सुनेगा, ईश्वर उसे दो स्वर्ग प्रदान करेगा, जिनमें से प्रत्येक इस दुनिया की बराबर बड़ी होगी। ज्ञान के मार्ग में क़दम बढ़ाने पर कि जो एक प्रकार से पैरों का हक़ है, इमाम ज़ैनुल आबेदीन ने काफ़ी बल दिया है। 
पैग़म्बरे इस्लाम एक अन्य स्थान पर फ़रमाते हैं, जो कोई भी अपने मोमिन भाई की ज़रूरत पूरी करने के मार्ग में क़दम बढ़ाता है, ईश्वर उसके हर क़दम के लिए 70 पुण्य लिखता है और 70 पापों को माफ़ कर देता है, जब तक कि यह काम पूरा नहीं हो जाता, अब अगर वह अपने मोमिन भाई की ज़रूरत को पूरा करने में सफल हो गया तो वह ऐसा ही है, जैसे कि उसने जन्म लिया हो, अर्थात वह हर गुनाह से पाक साफ़ है, अगर वह अपने मोमिन भाई की सेवा के मार्ग में दुनिया से चला जाए और वह उस ज़रूरत को पूरा नहीं कर पाए तो उसे स्वर्ग में प्रवेश मिलता है और फ़रिश्ते उससे पूछताछ नहीं करेंगे। 

 


पैग़म्बरे इस्लाम (स) के इस कथन में भी दूसरों की सेवा के मार्ग में क़दम उठाने और ज़रूरतमंदों की ज़रूत पूरा करने पर बल दिया गया है। शरीर के इस अंग के हक़ को पूरा करने का अर्थ यह है कि अच्छे कार्यों के लिए भूमि प्रशस्त की जाए और सही मार्ग में क़दम लड़खड़ाने से बचा जाए। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) के मुताबिक़, इस सीधे मार्ग पर स्थिर रहने का कारण, प्रलय के दिन सिरात पर स्थिर रहना है। इसलिए कि इस दुनिया में अडिग रहना, परलोक में सिरात पर अडिग रहने का कारण बनता है। 
हाथों के हक़ के बारे में शिया मुसलमानों के चौथे इमाम फ़रमाते हैं, तुम्हारे हाथों का हक़ यह है कि उन्हें ग़लत तरीक़े से न फैलाओ, ताकि परलोक में ईश्वर के प्रकोप का सामना न करना पड़े और दुनिया में लोगों की निंदा नहीं झेलनी पड़े, और हाथों को उन कामों से दूर नहीं रखो, जिसे तुम्हारे लिए वाजिब या अनिवार्य किया गया है। उनका सम्मान करो, क्योंकि अनेक हराम कामों से वह दूर रहे और ऐसे अनेक कार्यों में उन्हें नहीं लगाओ जो वाजिब नहीं हैं, और क्योंकि तुम्हारे हाथ इस दुनिया में हराम से दूर रहे या बुद्धिमत्ता और समझदारी से उनका प्रयोग किया, इसलिए परलोक में पुण्य प्राप्त होगा।

 

 
इंसान के शरीर के अंगों में हाथ, किसी चीज़ को उठाने और एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का काम करते हैं। हज़रत अली (अ) के कथन में इसका वास्तविक अर्थ बयान किया गया है, उदाहरण स्वरूप, दूसरों का माल छीनना, चोरी करना या बिना अनुमति के इस्तेमाल करना, किसी की इज़्ज़त पर हाथ डालना या दूसरों का कोई भी हक़ मारना हाथों का गुनाह है। इमाम अली (अ) के कथनों में हाथों के अन्य कार्यों का भी उल्लेख पाया जाता है। 

 

हाथों से किए जाने वाले पाप या ग़लत कार्य भी शरीर के अन्य अंगों की तरह बहुत हैं और उन्हें विभिन्न प्रकार से अंजाम दिया जा सकता है। एक क़लम जो हाथ से चलता है और वह आमदनी का ज़रिया होता है, या किसी का हक़ किसी दूसरे को दे देता है, जो हाथ ग़लत तरह से किसी माल की तरफ़ बढ़ता है, इसी तरह के अन्य कार्य हाथों से किए गए अपराध होते हैं। यह वही हाथ हैं जो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए प्रयोग किए जा सकते हैं, किसी अनाथ के सिर पर मोहब्बत से फेरे जा सकते हैं और रोटी के टुकड़े को किसी भूखे के मुंह में रख सकते हैं। 
इंसान को चाहिए कि अपने शरीर के अन्य अंगों की भांति, अपने हाथों की भी हिफ़ाज़त करे और उन्हें ईश्वर की प्रसन्ना और जन सेवा के अलावा इस्तेमाल न करे, ताकि शरीर के के यह अंग भी उसके सम्मान का कारण बनें और परलोक में उसे पुण्य प्राप्त हो।                         

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