May ०७, २०१८ १२:४१ Asia/Kolkata

हमने आपको यह बताया कि पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के शासन काल में बनी कुछ फ़िल्मों में श्वेतों के ख़िलाफ़ अश्वेतों के संघर्ष के इतिहास को दोहराया गया है।

ये फ़िल्में दो तरह की हैं। पहले वर्ग में वे फ़िल्में हैं जिनमें अश्वेतों के संघर्ष के इतिहास को न्यायपूर्ण ढंग से दर्शाया गया है जबकि दूसरे वर्ग में वे फ़िल्में हैं जिनमें बदले की भावना से प्रेरित इतिहास का वर्णन किया गया है। आपको याद होगा कि निष्पक्ष ढंग से इतिहास के वर्णन के नमूने के तौर पर "ट्वेल्व ईयर्ज़ अ स्लेव" जैसी फ़िल्म को पेश किया गया। हमने यह भी बताया कि इस तरह की फ़िल्मों में सभी श्वेत बुरे नहीं हैं और अच्छे व बुरे श्वेतों को साथ साथ दिखाया गया है और इसी वजह इस तरह की फ़िल्मों को निष्पक्ष वर्णन की श्रेणी में पेश किया गया।

ओबामा के राष्ट्रपति काल में बनी अन्य फिल्में जिनमें अश्वेतों के संघर्ष और नस्लभेद का निष्पक्ष रूप से चित्रण किया गया है, 2011 की ‘द हेल्प’, 2012 की ‘लिन्कन’ और 2014 की ‘सलमा’ हैं। द हेल्प  फ़िल्म श्वेत लोगों के घरों में अश्वेत काम करने वाली औरतों के बारे में है। इस फ़िल्म के श्वेत इस शैली की बनी अन्य फ़िल्मों की तरह अच्छे और बुरे दोनों तरह के हैं। अश्वेत सेवक एक श्वेत की कोशिश से अपनी मांगों को कहानी के रूप में समाज तक पहुंचाने और श्वेत आक़ाओं को उनकी कुछ मांगों से पीछे हटाने में सफल होते हैं। फ़िल्म लिन्कन अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिन्कन के जीवन के अंतिम चार महीनों पर आधारित है जिसमें लिन्कन की अमरीकी प्रतिनिधि सभा में इस देश के संविधान में तेरहवें संशोधन को पारित कराने की कोशिश को चित्रित किया गया है। इस संशोधन के पारित होने के नतीजे में अमरीका में दास प्रथा पर रोक लगी। 2014 की सलमा फ़िल्म, ओबामा के दौर में जीवनी पर आधारित बनी एक अन्य फ़िल्म है जिसमें 1965 में मार्टिन लूथर किंग जूनियर के जीवन के तीन महीने का वर्णन किया गया है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति और अलाबामा के तत्कालीन राज्यपाल जैसे श्वेतों के विपरीत, जॉन लुइस और एंड्रयू यंग जैसे संघर्षकर्ताओं के साथ अश्वेतों के मतदान के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए कोशिश करते हैं।        

जैसा कि पिछले कार्यक्रम में हमने यह बताया कि ओबामा के दौर में पहली प्रकार की बनी सभी फ़िल्मों में बड़ी हद तक नस्लभेद के ख़िलाफ़ संघर्ष की प्रक्रिया का निष्पक्ष रूप से वर्णन हुआ है। इतिहास के निष्पक्ष रूप से वर्णन का उद्देश्य इतिहास में अश्वेतों की पीड़ाओं, कठिनाइयों व अवसरों का सही तरह से चित्रण करना है। ये फ़िल्में शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के रूप में अश्वेतों के अधिकार की प्राप्ति और श्वेतों की ज़ोरज़बरदस्ती का बड़े विस्तार से चित्रण करती हैं। इन फ़िल्मों में अश्वेतों की यह कोशिश है कि वे प्रशासनिक ढांचे व समाज को इस बात के लिए तय्यार करें कि वे उन्हें प्रथम दर्जे के नागरिक की तरह स्वीकार करें और उन्हें भी श्वेतों की तरह समान अधिकार हासिल हों। इन फ़िल्मों के ज़्यादातर महानायक श्वेतों की अत्याचारपूर्ण व्यवस्था का मुक़ाबला करने के लिए बहुत सावधानी दिखाते और अपनी मांगों को धीरे धीरे पेश करते हैं।

अलबत्ता निष्पक्ष वर्णन सिर्फ़ ओबामा के दौर में बनी फ़िल्मों तक सीमित नहीं है बल्कि इससे पहले के शासन काल में  भी इस तरह की फ़िल्में बनी हैं। जैसे 1985 की ‘द पर्पल कलर’, ‘1992 की मैल्कम एक्स’, 1997 की ‘आमिस्टड’, 2001 की ‘अली’ और 2006 की ‘द पर्सूट ऑफ़ हैपिनेस’ में भी अश्वेतों के संघर्ष के इतिहास के वर्णन में निष्पक्षता को मद्देनज़र रखा गया है।

फिल्म ‘द पर्पल कलर’ जो इसी नाम के एक उपन्यास पर बनी है, एक अश्वेत नौजवान लड़की की कहानी पर आधारित है और इसमें बीसवीं शताब्दी के आरंभ में अफ़्रीक़ी मूल की महिलाओं के सामने निर्धनता, नस्लभेद और लिंग भेद जैसी मुश्किलों का चित्रण हुआ है।

1992 की मैल्कम एक्स’ भी जीवनी पर आधारित फ़िल्म है जो अमरीकी मुसलमान मैल्कम एक्स के जीवन और जीवन के अंत तक आज़ादी के लिए जारी उनके संघर्ष को पेश करती है। आमिस्टड फ़िल्म अमरीका में अश्वेतों पर हुए अत्याचार और उन्हें दासता के बंधन में बांधने की पीड़ा का वर्णन करती है। इस फ़िल्म में भावनाओं के सत्ही इज़्हार से परहेज़ किया गया और इस अमानवीय विषय पर उस समय के श्वेतों के विभिन्न दृष्टिकोण और श्वेतों से अश्वेतों के मुक़ाबले की शैली को दर्शाया गया है। 2001 की फ़िल्म ‘अली’ में बॉक्सर मोहम्मद अली क्ले के 1964 से 1974 के बीच के जीवन का चित्रण किया गया है। 2006 की फ़िल्म ‘द पर्सूट ऑफ़ हैपिनेस’ क्रिस गार्डनर के जीवन पर आधारित फ़िल्म है। क्रिस गार्डनर एक अमरीकी व्यापारी था जो 1980 के दशक में बेघर हो गया था। 

अश्वेतों के संघर्ष के इतिहास को निष्पक्ष रूप से वर्णन करने वाली फ़िल्मों के साथ साथ कुछ ऐसी फ़िल्में हैं जिनमें अश्वेतों के संघर्ष के इतिहास का बदला लेने की भावना के तहत वर्णन हुआ है। बदले की कार्यवाही का वर्णन करने वाली फ़िल्मों में अश्वेत फ़िल्म के नायक होते हैं और बदले की कार्यवाही के दौरान वे श्वेतों के अपमानजनक व्यवहार का अधिक अपमान के साथ जवाब देते दिखाए गए हैं। इन फ़िल्मों में जिन घटनाओं को चित्रित किया गया है वे ऐतिहासिक घटनाएं हैं न कि फ़िल्मों में दिखायी गयी हस्तियां। यह हस्तियां ख़याली हैं जो अश्वेतों के संघर्ष में सक्रिय वास्तविक हस्तियां नहीं हैं। हालांकि उनमें ज़्यादातर उस दौर के श्वेतों या अश्वेतों के किसी विशेष वर्ग या विशेष विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं। अगर निष्पक्ष रूप से इतिहास को दोहराने वाली फ़िल्में यह दर्शाती हैं कि अश्वेतों ने अपने अधिकार को किस तरह हासिल किया तो बदला लेने वाली फ़िल्में इतिहास की ओर पलटती हैं ताकि इतिहास के पटल पर अश्वेतों के साथ जो अत्याचार हुआ है उसका कम से कम सिनेमा जगत में बदला ले सके। इन फ़िल्मों की मुख्य अश्वेत हस्तियां ज़्यादातर श्वेतों से अधिक बुद्धिमान व शक्तिशाली दिखायी गयी हैं। वे श्वेतों के मुक़ाबले में यहां तक कि श्वेतों की सेवा करने वाले अश्वेत के साथ सावधानी भरा व्यवहार नहीं अपनाते बल्कि श्वेतों की हिंसा का अधिक हिंसा से जवाब देते हैं।

अश्वेतों के संघर्ष के इतिहास की समीक्षा करने वाली फ़िल्मों में हस्तियों की अच्छाई या बुरायी के चित्रण में अतिश्योक्ति से काम लिया गया है। यह अतिश्योक्ति उन श्वेतों के अपमान के लिए अपनायी गयी है जो अश्वेतों के अधिकारों का कुचलना चाहते हैं। इन्हीं फ़िल्मों में 2015 की फ़िल्म ‘द हेटफ़ुल एट’ भी है। यह फ़िल्म अमरीका में गृह युद्ध के बाद छिड़ी नस्लभेदी जंग को दिखाती है कि इस फिल्म का मुख्य पात्र, अश्वेत पर अत्याचार करने वाले श्वेतों से बदला लेता है जो ख़ुद को श्रेष्ठ समझते हैं। यह अश्वेत हस्ती अमरीकी गृह युद्ध के दौर के अनुभवी जनरल का अपमान करती और उसे जान से मार देती है क्योंकि उसने अश्वेतों को बहुत बुरी तरह यातनाएं दी थीं। इस फ़िल्म के निर्देशक ने इतिहास में जो ज़ुल्म अश्वेतों ने श्वेतों के हाथों सहे हैं उनको प्रतीकात्मक रूप से बदले को चित्रित किया है और यह बदला लेने वाला नायक एक अश्वेत है जो बहुत ही बुद्धिमान व शक्तिशाली है। ऐसा लगता है कि दासता के इतिहास में श्वेतों से अश्वेतों की नफ़रत व द्वेष मेजर मार्कोस के मन में भरी हुयी है और वह श्वेतों को अपमानजनक व बर्बरतापूर्ण ढंग से जान से मारने में बड़ी सावधानी व समझदारी का परिचय देता है। वह पीड़ित अश्वेतों का प्रतिनिधि है जो श्वेतों से चुन चुन कर बदला लेना चाहता है।

अगर 1915 की फ़िल्म द बर्थ आफ़ नेशन अमरीका के गृह युद्ध के बाद के दौर की समीक्षा में अश्वेतों का अपमान करती है तो इस फ़िल्म के ठीक 100 साल बाद 2015 की फ़िल्म ‘द हेटफ़ुल एट’ गृह युद्ध के बाद के काल की समीक्षा में श्वेतों का अपमान करती है।

एक और फ़िल्म जिसमें बदले की भावना से ओत प्रोत अश्वेतों के संघर्ष के इतिहास की समीक्षा की गयी है वह 2012 की ‘जान्गो अनचेन्ड’ है। इस फ़िल्म में अमरीका के गृह युद्ध से पहले के हालात को दर्शाया है जिसमें एक अश्वेत नायक है जो प्रतीकात्मक छापामार जंग में दासता की अत्याचारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ डट जाता है, अपना अधिकार उनसे ले लेता है और उन श्वेतों व अश्वेतों को एक साथ मारता जो श्वेतों की सेवा में हैं और उन्हीं की तरह सोचते हैं।

ओबामा के शासन काल में बनने वाली फ़िल्मों में एक संयुक्त बात यह है कि इनमें श्वेतों को पराजित दिखाया गया है जो नस्ली श्रेष्ठता के भ्रम का शिकार होते हैं। इन फ़िल्मों की मुख्य हस्तियां सिर्फ़ श्वेतों से चंगुल से रिहाई की कोशिश नहीं करतीं बल्कि उनके विशेष लक्ष्य व उद्देश्य हैं, वे पूरी दृढ़ता से श्वेतों का मज़ाक़ उड़ाते हैं। इन फ़िल्मों के अश्वेत नायक अश्वेतों के साथ शताब्दियों से जारी नस्लीभेदी अपमान का श्वेतों से बदला लेते हैं। हालांकि इस बदले की कार्यवाही में वह आज़ाद नहीं है क्योंकि द हेटफ़ुल एट और जान्गो अनचेन्ड दोनों ही फिल्मों में अश्वेत नायक को रास्ते में मौजूद रुकावटों को दूर करने के लिए एक श्वेत की मदद की ज़रूरत पड़ती है। ऐसा श्वेत जो अश्वेत के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करता है और अश्वेत भी बदले में श्वेत की उसके लक्ष्य तक पहुंचने में मदद करता है। दूसरे शब्दों में इन फ़िल्मों में अश्वेतों को प्रगति करने और समस्याओं से पार पाने में श्वेतों की मदद की ज़रूरत है और इस बात से पता चलता है कि ओबामा का राष्ट्रपति काल भी कम से कम सिनेमा जगत में अश्वेतों को स्वाधीन न कर सका।

 

 

 

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