Jun २६, २०१८ १४:१६ Asia/Kolkata

हमने महिला अधिकारों के बारे में पश्चिम में अपनाए जाने वाले अन्यायपूर्ण व्यवहार के बारे में चर्चा की थी।

इस बारे में हमने आयतुल्लाह ख़ामेनेई के विचार प्रस्तुत किये थे।  हमने इस महत्वपूर्ण बिंदु की ओर संकेत किया था कि पश्चिम में महिलाओं की स्थिति को समझने के लिए पश्चिमी साहित्य की जानकारी ज़रूरी है।  इस बात को समझने के लिए हमें पश्चिम में महिलाओं के बारे में वहां के राजनेताओं के लोकलुभावन नारों से बचते हुए वहां के महान लेखकों की रचनाओं को समझना होगा।  इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि पश्चिम में महिलाओं पर जो अत्याचार हुआ है और पश्चिमी संस्कृति एवं साहित्य में महिलाओं के संबन्ध में जो ग़लत सोच पाई जाती है वह पूरे इतिहास में अभूतपूर्व है।

 

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने इस बारे में कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं की ओर संकेत किया है।  हालांकि पश्चिमी देशों में एक समय तक महिलाओं को स्वामित्व का अधिकार नहीं था किंतु जब उन्हें महिलाओं की आवश्यकता हुई तो वहां पर महिलाओं के स्वामित्व की आवाज़ उठने लगी।  यह महिलाओं पर एक अन्य प्रकार का अत्याचार था।  इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि औदयोगिक क्रांति के आरंभ में जब पश्चिम में कारख़ाने लगे और नई तकनीक सामने आई तो उस समय व्यापक स्तर पर मज़दूरों की आवश्यकता हुई।  एसे में उन्होंने महिलाओं को कारख़ानों की ओर आकृष्ट करने के लिए जो नारा पेश किया वह महिलाओं के स्वामित्व के बारे में था।  हालांकि महिलाओं को बहुत ही कम मज़दूरी दी जाती थी।  पश्चिम में महिलाओं पर अत्याचार की यह नई एवं अतिवादी सोच थी।

जब ऐसे अन्यायपूर्व वातावरण में महिलाओं के हितों के लिए कोई आन्दोलन आरंभ होगा तो निश्चित रूप में उसमें अति पाई जाएगी।  यही कारण है कि पश्चिमी इतिहास के एक कालखण्ड में हम इस बात के साक्षी रहे हैं कि महिलाओं की स्वतंत्रता का दम भरने वाले गुटों ने स्वतंत्रता के नाम पर जो बुराई फैलाई उसने बहुत से पश्चिमी विचारकों को चिंता में डाल दिया।  पश्चिम में अनैतिकता इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि वहां के विचारक और बुद्धिजीवी इसे रोकने में अक्षम हैं।  महिलाओं को क्षति पहुंचाने में फ़ैमिनिज़्म गुटों ने जो भूमिका निभाई है वह बहुत ही खेदजनक है।  इन गुटों ने पूरे विश्व में महिलाओं को बहुत क्षति पहुंचाई है।  पश्चिम में नैतिक पतन इस सीमा तक हो चुका है कि वहां पर परिवारों के आधार ही हिल गए हैं।

 

लगभग पिछली दो शताब्दियों से फ़ैमिनिज़्म या नारीवादी आन्दोलन है जिसकी मांग है कि महिला को हर क्षेत्र में पूरी तरह से समानता का अधिकार होना चाहिए।  फ़ैमिनिज़्म या नारीवाद शब्द का प्रयोग पहली बार फ़्रांस में 1872 में किया गया था।  नारीवाद आन्दोलन के समर्थक चाहते हैं कि महिलाओं को हर क्षेत्र में पुरूषों के समान ही अधिकार प्राप्त होने चाहिए।  इस आन्दोलन का दूसरा चरण प्रथम विश्वयुद्ध के बाद आरंभ हुआ।  उस समय आरंभ होने वाला यह आन्दोलन अपने भीतर अति लिए हुए था।  इसके ध्वजवाहक, पूर्ण रूप में महिलाओं और पुरूषों के बीच समान अधिकार के पक्षधर थे।  वे महिलाओं के लिए हर प्रकार की स्वंतत्रता की मांग कर रहे थे।

इस काल खण्ड में नारीवादी की मांग करने वाले, महिलाओं के लिए पूरी आज़ादी की मांग कर रहे थे।  उनका कहना था कि नौकरियों, राजनीति तथा हर क्षेत्र में महिलाओं की पूरी भागीदारी होनी चाहिए।  यह मांग कई दशकों तक जारी रही।  यह आन्दोलन अति में इतना आगे आ गया था कि महिलाओं को पुरूषों पर वरीयता देने की भी बात करने लगा।

आयतुल्लाह ख़ामेनेई का यह मानना है कि पश्चिम में महिलाओं के समर्थन के बारे में जो दावे किये जाने हैं उनके बावजूद वास्तविकता यह है कि महिला को उसका वास्तविक स्थान अभी तक नहीं मिल सका।  वे कहते हैं कि महिलाओं के बारे में अपमानजनक दृष्टिकोण आज भी पाया जाता है और अंतर केवल इतना है कि इसका स्वरूप बदल गया है।  अब यह अपने आधुनिक रूप में मौजूद है।  पश्चिमी समाज में आज भी महिला को भोग-विलास की वस्तु के रूप में देखा जाता है।  इस प्रकार वहां पर वह आज भी महिला अपने वास्तविक स्थान से बहुत दूर है।

 

पश्चिमी दृष्टिकोण के विपरीत महिला के बारे में इस्लाम का दृष्टिकोण यह है कि महिला सम्मानीय है।  उसका घर तथा समाज में विशेष स्थान है।  इस्लाम के हिसाब से महिला भी पुरूष की ही भांति एक प्राणी है।  इस्लाम का मानना है कि इन्सान होने के हिसाब से महिला और पुरूष में कोई अंतर नहीं है।  दोनों को भी भले कर्मों का प्रतिफल उनके कर्मों के हिसाब से दिया जाएगा।  इस हिसाब से तो दोनों ही बराबर हैं।  हां शारीरिक बनावट के हिसाब से पुरुष तथा महिला के बीच अंतर पाया जाता है इसलिए उनके दायित्व अलग-अलग प्रकार के हैं।  इस्लाम में जिस चीज़ को बहुत अधिक महत्व प्राप्त है वह न्याय है।  अर्थात महिला और पुरूष के बीच न्याय पर विशेष ध्यान दिया जाए।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहि उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि इस्लाम, मानव की परिपूर्णता का पक्षधर है।  इस हिसाब से इस्लाम के निकट महिला और पुरूष के बीच कोई अंतर नहीं है।  उसकी दृष्टि में परिपूर्णता महत्व रखती है न कि मानव का पुरूष या महिला होना।  कहीं पर पुरुष के बारे में बात कही जाती है तो कहीं पर महिला के बारे में।  कहीं पर पुरुष की प्रशंसा की गई है तो कहीं पर महिला की।  इसका कारण यह है कि दोनो ही मानव के दो रूप हैं। एक मानवीय पहलू और दूसरा ईश्वरीय आयाम।  इस हिसाब से दोनों के बीच कोई अंतर नहीं है।

 

महिला के बारे में इस्लाम का दृष्टिकोण न तो महिलावादियों की भांति इतना अतिश्योक्तिपूर्ण है कि वह महिलावाद ही सबकुछ है और पुरूष का कोम महत्व ही नहीं है बल्कि वह एक बेकार की वस्तु है।  दूसरी ओर वह महिला को इतना अधिक कमज़ोर मानता है कि उसके अधिकार को अनदेखा कर दिया जाए।  इस्लाम ने महिला के बारे में संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है।  वह महिलाओं पर अत्याचार करने से मना करता है।  यह ईश्वरीय धर्म कहता है कि मानव समाज से संबन्धित गतिविधियों में महिला और पुरुष एक समान हैं।  महिलाएं, शारीरिक क्षमता के अनुसार सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह कर सकते हैं।  इस्लाम का कहना है कि महिला का दायित्व, यह है कि वह परिवार के वातावरण को एसा आध्यात्मिक बनाए कि वहां के लोग परिपूर्णता के मार्ग पर आगे बढ़ सकें।  इस प्रकार वह परिवार और समाज में अपनी भूमिका निभा सकती है।

 

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहि उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई, इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों के महत्व के बारे में कहते हैं कि इस्लाम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा में कहता है कि महिलाओं पर अत्याचार न किया जाए और पुरूष स्वयं को महिला के स्वामी के रूप में न देखे।  हर परिवार के कुछ अधिकार हैं जिनमें से कुछ पुरुष से तो कुछ महिला से संबन्धित हैं।  इन अधिकारों को न्याय एवं संतुलन के साथ पेश किया गया है।  अब अगर इस्लाम के नाम पर कुछ ग़लत किया जाता है तो वह वैध नहीं है और हम उनका समर्थन नहीं करते।

 

 

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