Aug १५, २०१८ १३:३१ Asia/Kolkata

हमने कहा था कि उपासना, शिक्षा व प्रशिक्षा, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में मस्जिद की अपरिहार्य भूमिका है और इन समस्त क्षेत्रों और समाज के मार्गदर्शन में मस्जिद की भूमिका को भली-भांति देखा जा सकता है।

इसी प्रकार पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि पूरे इतिहास में इस पवित्र स्थल का प्रयोग केवल उपासना के लिए नहीं हुआ है क्योंकि मुसलमानों की दृष्टि में हर वह कार्य उपासना है जिसे महान ईश्वर की प्रसन्नता के लिए अंजाम दिया जाये और यह केवल धार्मिक कार्यों तक सीमित नहीं है। इस मध्य मस्जिद का एक कार्य लोगों में राजनीतिक जागरुकता उत्पन्न करना है और यह मस्जिद का वह कार्य है जिसे आज की तानाशाही सरकारें और तकफीरी व वहाबी गुट इस्लाम के नाम पर खराब व कमज़ोर करने की चेष्टा में हैं। आज मस्जिदों की रचनात्मक भूमिका को खराब करने में तकफीरी एवं आतंकवादी गुट दाइश ध्यानयोग्य भूमिका निभा रहे हैं। हालिया कुछ वर्षों के दौरान इन आतंकवादी गुटों का प्रयास अपनी विध्वंसक कार्यवाहियों और बहुत सी अत्याचारी व युद्धोन्मादी सरकारों के समर्थन से इस्लाम की छवि को खराब करना रहा है। इसी संबंध में आतंकवादी गुट दाइश का एक असली कार्य विशेषकर इस्लामी समाजों में मस्जिदों की भूमिका को कमज़ोर करना रहा है। यह आतंकवादी गुट अब तक केवल दो इस्लामी देशों इराक और सीरिया में कई सौ मस्जिदों को ध्वस्त कर चुका है।

यहां इस बात को जानना रोचक होगा कि मस्जिद के ख़िलाफ़ गतिविधियां केवल उसे घिराने या विध्वंसक गतिविधियां तक सीमित नहीं है बल्कि एसे गुट भी हैं जो मस्जिद के मूल उद्देश्य से मुकाबला कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर जर्मनी के बर्लिन नगर में इस समय एक मस्जिद है जो पूरी तरह इस्लामी आदेशों के खिलाफ काम कर रही है। इस मस्जिद का एक ज़िम्मेदार इस संबंध में कहता है” यह मस्जिद एक लिबरल स्थान होगी, इस मस्जिद में हर व्यक्ति का स्वागत किया जायेगा, इसमें सबको समान अधिकार प्राप्त होगा। महिलाएं इस मस्जिद में स्कार्फ पहनने और हिजाज करने के लिए बाध्य नहीं होंगी। वे इस मस्जिद में अज़ान दे सकतीं हैं, नमाज़ पढ़ा सकती हैं। इस मस्जिद में हर व्यक्ति उपासना कर सकता है चाहे वह शीया हो या सुन्नी समलैंगिक हो या ग़ैर समलैंगिक” इस मस्जिद का नाम “इब्ने रुश्द गोटे” है। दो व्यक्तियों के नामों के एक- एक भाग को लेकर इस मस्जिद का नाम रखा गया है। एक मध्ययुगीन शताब्दी के दर्शनशास्त्री का नाम मोहम्मद बिन अहमद बिन रुश्द अंदलोसी है जबकि दूसरे का नाम यूहान वुल्फगांग गोटे है और यह जर्मनी के एक लेखक का नाम है। रोचक बात यह है कि इस मस्जिद का एक जिम्मेदार इसे आतंकवाद से मुकाबले के मार्ग का आरंभिक बिन्दु बताता है। इसी प्रकार मस्जिद का यह ज़िम्मेदार इसे संस्कृतियों के आदान- प्रदान का केन्द्र बताता है। यह उस स्थिति में है जब न केवल इस्लाम बल्कि समस्त ईश्वरीय धर्मों विशेषकर इब्राहीमी धर्म में समलैंगिता की गणना बड़े पापों में होती है और इस्लाम धर्म में इसके लिए दंड निर्धारित है। इसी प्रकार इस्लाम एक सामाजिक धर्म है। जीवन के समस्त क्षेत्रों में उसके नियम हैं। जैसे सामूहिक रूप से पढ़ी जाने वाली जुमा और गैर जुमा की नमाज़ें और इसी प्रकार हज। ये सब इस बात के नमूने हैं कि इस्लाम एक सामाजिक धर्म है। 

इसी प्रकार इस्लाम में हिजाब एक ज़रूरी चीज़ है और उसका खयाल न करना वह भी मस्जिद में पाप है। इसी तरह महिलाएं पुरुषों के लिए इमाम जमाअत नहीं बन सकतीं। यानी वे पुरुषों को नमाज़ नहीं पढ़ा सकतीं। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि बर्लिन जैसी मस्जिदें न केवल इस्लाम के प्रचार- प्रसार, अध्यात्म और ईमान में सहायक नहीं हैं बल्कि मस्जिद के उद्देश्यों के खिलाफ कार्य कर रही हैं। बर्लिन नगर की मस्जिद वास्तव में मस्जिद नहीं है बल्कि मस्जिद विरोधी कार्यवाहियों का केन्द्र है और इस जैसी मस्जिदें अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों में हैं। दूसरे शब्दों में इस प्रकार की मस्जिदें पैग़म्बरे इस्लाम के काल में जो मस्जिदे ज़ेरार थी उससे भी बदतर हैं। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने इस मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था और मदीनावासियों ने इस मस्जिद के स्थान को कूड़ा- करकट फेंकने के स्थान में बदल दिया था। पवित्र कुरआन के सूरे तौबा की 107वीं आयत के अनुसार मस्जिदे ज़ेरार को कुफ्र के प्रचार -प्रसार और मुसलमानों के मध्य फूट डालने के लक्ष्य से बनाया गया था। आज जर्मनी के बर्लिन नगर में और दूसरे स्थानों पर उस जैसी जो दूसरी मस्जिदें हैं उनका लक्ष्य कुफ्र के प्रचार -प्रसार और इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं के विरोध के अलावा कुछ और नहीं है।

कार्यक्रम के इस भाग में हम आपको तुर्की की सुलैमानिया मस्जिद से परिचित करायेंगे। यह मस्जिद तुर्की की सुन्दर मस्जिदों में से एक और इस्तांबोल नगर की दूसरी बड़ी मस्जिद है।

इस मस्जिद का निर्माण “मेमार सिनान” नाम के प्रसिद्ध वास्तुकार ने उसमानी शासक सुल्तान सुलैमान प्रथम या सुल्तान कबीर के आदेश से किया था। सुल्तान सुलैमान प्रथम या सुल्तान कबीर उसमानी साम्राज्य के सबसे धनी शासक थे। इस मस्जिद का निर्माण 1550 में आरंभ हुआ और 3500 मजदूरों व कलाकारों ने उस पर काम किया और सात सालों में उसका निर्माण कार्य पूरा हो गया।

इस मस्जिद के वास्तुकार “मेमार सिनान” ने “अयासूफिया” मस्जिद की अपेक्षा इसका निर्माण सादे ढंग से किया और उसमें कम साज- सज्जा की है। इस मस्जिद की सादगी लोगों को अधिक प्रभावित करती है। इस मस्जिद में तुर्की के इज़नीक नगर की टाइलों के प्रयोग ने इसे विशेष मौन, समन्वय और सुन्दरता प्रदान कर दी है। इस मस्जिद का निर्माण उस समय किया गया था जब चीनी निर्माण की शैली अपने शिखर पर थी और उसके मेहराब की दीवारों पर चीनी मरमर के पत्थरों को लगाया गया है। अलबत्ता मस्जिद के अंदर की जो साज- सज्जा है वह सादी होने के अलावा बहुत रोचक, प्रभावी और मनोहर है विशेषकर उस समय जब 200 खिड़कियों से सूरज का प्रकाश मस्जिद के भीतर जाता है तो वह मस्जिद के वातावरण को विशेष सुन्दरता प्रदान कर देता है। इस मस्जिद का निर्माण अपने समय की प्रचलित परम्परा और शैली में किया गया है और वास्तुकला में किसी प्रकार के अतिवाद के बिना इसे विशेष प्रकार से सुसज्जित किया गया है।

 

जिस तरह अधिकांश शासकों द्वारा निर्माण करायी गयी मस्जिदें केवल  नमाज़ पढ़ने के लिए नहीं होती थीं उसी तरह सुलैमानिया मस्जिद का भी निर्माण केवल नमाज़ के लिए नहीं किया गया है। इस मस्जिद की जो असली इमारत है उसे कामी कहा जाता है। मस्जिद की असली इमारत के अलावा पवित्र कुरआन की शिक्षा के लिए चार मदरसे, एक प्रांगड़, एक स्नानगृह, एक अस्पताल, एक कारवां सराय और एक रसोईघर है। इस रसोईघर में मुसलमान, ईसाई और यहूदी भिखारियों व दरिद्रों के लिए खाना बनाया जाता था और सब मस्जिदे सुलैमानिया से लगी हुई इमारतें हैं। इस प्रकार की इमारतों को “कुल्लिये मस्जिद” कहा जाता है जबकि उसमानी तुर्की में “जामी कुल्लिये सी” कहा जाता है।

इस मस्जिद के निर्माण की एक विशेषता यह है कि इसके निर्माण में तुर्की के विभिन्न क्षेत्रों से लाये गये सामान हैं। इसी प्रकार इस मस्जिद में कुछ ऐसे भी स्तंभ हैं जिन्हें उनके असली स्थान से उखाड़ कर इस्तांबोल लाया गया है। मिसाल के तौर पर मस्जिद के चार असली स्तंभों में एक स्तंभ को इस्कंदरिया से, दो को कुस्तुनतुनिया की प्राचीन इमारत से और एक को लेबनान के बालबक्क से लाया गया है।

सुलैमानिया मस्जिद में एक असली और दो आधे गुंबद हैं जो असली गुंबद से सटे हुए हैं। गुंबद की डिजाइनिंग इस तरह से की गयी है कि उसके अंदर एकोस्टिक के नियमों को ध्यान में रखा गया है और अच्छी तरह उसे महसूस किया जाता है। इसी तरह यह गुंबद मस्जिद के अंदर हवा की निकासी का कारण बना है। मस्जिदे सुलैमानिया के वास्तुकार मेमार सिनान ने मस्जिद के अंदर हवा की निकासी का भी प्रबंध किया है। वास्तव में जिस समय इस मस्जिद का निर्माण किया गया था उस वक्त विद्दुत का प्रयोग ऊर्जा के रूप में नहीं होता था और कोई विद्दुत जानता भी नहीं था और मस्जिद के भीतर 275 चेराग़ जलते थे इसलिए मस्जिद के भीतर की हवा दूषित हो जाती थी। इस दूषित हवा को दूर करने और मस्जिद को क्षति पहुंचने से रोकने के लिए मस्जिद के प्रवेश द्वार के ऊपर एक छोटा कमरा बना दिया है। मेमार सिनान ने मस्जिद के विभिन्न भागों व कोनों पर  हवा के जो झरोखे बना दिये हैं उनकी वजह से चेराग़ का धुआं इसी छोटे कमरे में एकत्रित होता है। एक रोचक बिन्दु यह है कि मेमार सिनान ने जो छोटा कमरा बनाया है उसे धुएं वाले कमरे के नाम से जाना जाता है और उसमें उन्होंने हवा को नम करने का एक सिस्टम बनाया है और बूंद- बूंद करके धुआं इसी कमरे में एकत्रित होता है और उस एकत्रित धुएं से वह बड़ी अच्छी स्याही बनाते थे और इस मस्जिद में कला की जो बहुत सी चीज़ें हैं उनमें इसी स्याही का प्रयोग किया गया है।

सुलैमानिया मस्जिद के भूमिगत भाग में कई छोटी- छोटी नहरें खोदी गयी हैं जिनके ज़रिये से मस्जिद और उससे लगी इमारतों में पानी की जो आवश्यकता है वह पूरी होती है। इस मस्जिद के वास्तुकार मेमार सिनान ने इन छोटी- छोटी नहरों को खोदकर और उनकी हवा के निकासी के मार्ग को मस्जिद के अंदर खोल दिया है जिससे गर्मी में मस्जिद का आंतरिक भाग ठंडा और ठंडक में गर्म रहता है।

 

इस मस्जिद में चार मीनारें हैं जिनकी ऊंचाई 72 मीटर है और इन पर सादे और सूक्ष्म दोनों तरीके से काम किया गया है और इन मीनारों ने मस्जिद की सुन्दरता में चार- चांद लगे दिये हैं। इन मिनारों में अज़ान देने के 10 स्थान हैं जो इस बात के सूचक हैं कि सुल्तान सुलैमान उसमानी शासन श्रंखला का दसवां शासक था। इस्तांबोल नगर की सुलैमानिया मस्जिद का जो गुंबद है वह 53 मीटर ऊंचा है और उसकी गोलाई 25 मीटर से अधिक है और इस गुंबद के जो स्तंभ हैं उन्हें बड़ी सूक्ष्मता से इस प्रकार बनाया गया है कि उन्हें दीवार का भाग बना दिया गया है और वे दीवार में ही छिप गये हैं। इस मस्जिद में जो बड़ा गुंबद है उसके किनारे 24 छोटे- छोटे गुंबद हैं और इसी संख्या में बेलनाकार स्तंभ भी हैं। दो स्तंभ मस्जिद के प्रवेश द्वार के निकट हैं और वे लाल रंग के पत्थर के हैं जबकि 10 दूसरे स्तंभ पीले मरमर के हैं। इसी प्रकार 10 स्तंभ सफेद मरमर के हैं। इन समस्त स्तंभों का निर्माण वास्तुकला की जवाहेरी शैली में किया गया है और इनके बीच में जो खाली स्थान थे उन सबको सफेद मरमर के पत्थरों से भर दिया गया है। सुलैमानिया मस्जिद की मीनारों और गुंबद में जो तालमेल है उसने इस मस्जिद को विशेष सुन्दरता प्रदान कर दी है।

मस्जिद का जो फर्श है उस पर सफेद मरमर का पत्थर बिछाया गया है। मस्जिद का जो प्रवेश द्वार है केवल उसके सामने एक बड़ा काला पत्थर लगाया गया है जिसकी गोलाई दो वर्गमीटर है इस प्रकार से मस्जिद में प्रवेश करने वाला हर व्यक्ति इस पत्थर को पार करके ही मस्जिद में जा सकता है।

दूसरी ऐतिहासिक इमारतों की भांति सुलैमानिया मस्जिद को भी बहुत सी आपदाओं का सामना करना पड़ा है। वर्ष 1660 में इस मस्जिद में आग लग गयी जिसके बाद सुल्तान मोहम्मद ने उसकी मरम्मत का आदेश दिया। इसी प्रकार 1766 में आने वाले भूकंप में गुंबद का कुछ भाग क्षतिग्रस्त हो गया जिसका 19वीं शताब्दी के मध्य में आवश्यक पुनरनिर्माण किया गया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मस्जिद में दोबारा आग लगी जिससे मस्जिद के अंदर रखे कुछ सामान जल गये और वर्ष 1956 में मस्जिद के जले हुए भाग का दोबारा पुनरनिर्माण किया गया और वर्ष 2008 में इसका और अधिक निर्माण किया गया।