इस्लाम में बाल अधिकार- 3
हमने बच्चा शब्द की गइराई से समीक्षा करते हुए इसके आरंभिक काल अर्थात भ्रूण की चर्चा की थी।
हमने इस बारे में विभिन्न देशों में भ्रूण के अधिकारों के बारे में बात की थी।
इस्लामी शिक्षाओं में बच्चों के बारे में विशेष रूप से चर्चा की गई है। जो लोग शादी करने जा रहे हैं उनके लिए इस्लाम का संदेश यह है कि वे उचित जीवनसाथी का चयन करके संतान का सही प्रशिक्षण करें। इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके पवित्र परिजनों के बहुत से कथन किताबों में मौजूद हैं। इस्लाम ने जीवनसाथी के चयन पर जो बहुत अधिक बल दिया है उसका उद्देश्य यह है कि शादी के बाद पैदा होने वाले बच्चे का प्रशिक्षण माता और पिता पूरे ध्यान के साथ करें। ऐसे में समाज में अच्छे लोग होंगे। जिस समाज में लोग अच्छे होंगे वह बहुत तेज़ी से विकास करेगा। इस प्रकार इस्लाम के हिसाब से विवाह का मुख्य उद्देश्य संतान प्राप्ति के बाद उसका उचित प्रशिक्षण करना है।
जिस समय बच्चा अपने सबसे पहले चरण में होता है उसे भ्रूण कहा जाता है। भ्रूण के लिए भी इस्लाम ने अधिकारों का उल्लेख किया है। गर्भपात से बचने का आदेश इसी का एक उदाहरण है। इसके अतिरिक्त ख़तरे की स्थिति में भ्रूण की सुरक्षा का आदेश भी बताता है कि इस्लाम इसको महत्व देता है। इस प्रकार पता चलता है कि मनुष्य के जीवन का आरंभ भ्रूण के रूप में होता है।
भ्रूण की सुरक्षा के संदर्भ में इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का एक कथन है। उनका यह कथन उस महिला के बारे में है जो दवा खाकर गर्भपात कराना चाहती थी। ऐसी महिला के बारे में इमाम ने कहा था कि उसको इस प्रकार से गर्भपात कराने का अधिकार नहीं है क्योंकि वह भ्रूण की हत्या करना चाहती है। अबी उबैदा का कहना है कि एक बार इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से एक महिला के बारे में पूछा जो अपने पति की अनुमति के बिना दवा खाकर गर्भपात कर चुकी थी। उसके बारे में इमाम बाकिर ने कहा कि भ्रूण की हड्डियों पर अगर गोश्त आ चुका हो तो फिर इस महिला को अपने पति को "दिया" या हर्जाना देना पड़ेगा। उसके बाद आपने कहा कि महिला को अपने बेटे के "दिये" या हर्जाने से (इर्स) नहीं मिलती क्योंकि वह बच्चे की हत्यारी है।
भ्रूण के महत्व के बारे में "ज़रीफ़ बिन नासेह" का कहना है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अनुसार भ्रूण, मानव के समान है। इस बारे में वे कहते हैं कि जैसे ही भ्रूण में रूह डाली जाती है वह एक मानव जैसा है। अब अगर वह मेल है तो इसका "दिया" 1000 दीनार और अगर स्त्रीलिंग है तो 500 दीनार होगा। गर्भपात के लिए "दिया" या हर्जाना देना उस समय से ज़रूरी है जबसे उसका आरंभ होता है।
इन बातों से पता चलता है कि इस्लामी दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य का आरंभ भ्रूण के रूप में होता है और भ्रूण के लिए भी अधिकार नियुक्त किये गए हैं। अब यदि भ्रूण को नुक़सान पहुंचाया जाता है तो उसके लिए दंड निर्धारित किया गया है। भ्रूण को अरबी भाषा की कुछ किताबों में "वलद" या संतान भी कहा गया है। भ्रूण के अस्तित्व में आने के कुछ महीनों के बाद वह एक बच्चे के रूप में दुनिया में आता है। इस संसार में क़दम रखने के बाद से नवजात के लिए जो काल आरंभ होता है उसे बचपन करते हैं। आयु के जिस पड़ाव पर बचपन सामप्त होता है और एक नया चरण आरंभ होता है उसे बालिग़, वयस्क या अडल्ट कहा जाता है। अब हम क़ुरआन की दृष्टि से वयस्कता के बारे में चर्चा करेंगे।
इस विषय का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इस्लामी आदेशों के पालन करने के लिए जिस आयु की शर्त बताई गई है वह बालिग़ होना है। बालिग़ होने के बाद हरएक मुसलमान पर, चाहे वह महिला हो या पुरुष, इस्लामी नियमों का पालन करना अनिवार्य हो जाता है। ऐसे में पहले यह समझना होगा कि बच्चा कब बालिग़ होता है जिसके साथ ही उसके लिए समस्त इस्लामी नियमों का पालन करना ज़रूरी हो जाता है। पिछले कार्यक्रम में हमने मनुष्य की सृष्टि के आरंभि चरण के बारे में बात की थी जिसे भ्रूण कहा जाता है। भ्रूण का पहला अधिकार यह है कि उसकी हत्या नहीं की जा सकती अर्थात गर्भपात नहीं कराया जा सकता। भ्रूण ही बाद में एक नवजात के रूप में संसार में आता है और अपने जीवन का आरंभ करता है। भ्रूण के संसार में बालक या बालिका के रूप में आने के काल को बचपन कहा जाता है। बचपन के बाद किशोरावस्था आरंभ होती है जिसके बाद बच्चे बालिग़ होते हैं और यहां से उनके वास्तविक जीवन का आरंभ होता है। अभी फिलहाल हम बालिग़ होने या वयस्क होने के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।
जिस काल में बचपना समाप्त होता और एक नया काल आरंभ होता है उसे पवित्र क़ुरआन में तीन नामों से पुकारा गया है। "बुलूग़े होलोम" "बुलूग़ुन्नेकाह" और बुलूग़े अशद"। अब हम इन्ही तीनों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। पवित्र क़ुरआन के सूरे नूर की आयत संख्या 58 और 59 में बचपन के समाप्त होने वाले काल को बुलूग़े हुलुम के नाम से याद किया गया है। बच्चे जब होलोम अर्थात बुलूग़ को पहुंचे तो उन्हें घरों के भीतर आने के लिए अनुमति लेनी चाहिए। होलुम को यहां पर वयस्क होने के अर्थ में प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ यह है कि बच्चा जब वयस्क होने लगता है तो उसके भीतर शारीरिक रूप से कुछ परिवर्तन होने लगते हैं। उसके भीतर यौन इच्छा उत्पन्न होने लगती है। पवित्र क़ुरआन के बहुत से व्याख्याकारों के अनुसार आयतों में होलोम शब्द का प्रयोग वयस्क शब्द को समझाने के लिए किया गया है।
साधारण शब्दों में बालिग़ की परिभाषा इस प्रकार से की जा सकती है कि जब किशोर के भीतर यौन इच्छा जन्म लेती है और वह विवाह करने तथा सामाजिक दायित्वों के निर्वाह में सक्षम हो जाता है। वैसे क़ुरआन में वयस्क के लिए बालिग़ या बुलूग़ शब्द का भी प्रयोग किया गया है।
क़ुरआन के जानेमाने व्याख्याकार अल्लामा तबातबाई का मानना है कि जब किशोर के भीतर यौन शक्ति का आरंभ हो जाए बस उस समय से उसका बचपन सामप्त माना जाएगा। उन्होंने पवित्र क़ुरआन की व्याख्या की अपनी किताब अलमीज़ान में दो स्थानों पर बालिग़ होने की आयु 18 वर्ष बताई है। वे कहते हैं कि यह आयु का एसा दौर है जिसमे बच्चा युवाकाल में प्रविष्ट कर हो जाता है।
वैसे यह कहा जा सकता है कि पवित्र क़ुरआन में बालिग़ होने के संबन्ध में जिन तीन शब्दों "बुलूग़े हुलुम" "बुलूग़ुन्नेकाह" और बुलूग़े अशद" का प्रयोग किया गया है उनसे बालिग़ होने के लिए किसी भी प्रकार की आयु का निर्धारण नहीं किया जा सकता बल्कि कुछ शर्तों के अनुसार बच्चे या बच्ची को बालिग़ कहा जाएगा। वास्तव में बालिग़ होने के लिए कुछ शर्तों का पाया जाना ज़रूरी है अगर इनमें से कोई एक शर्त भी पाई जाए तो फिर बच्चे या बच्ची को बालिग़ कहा जाएगा।