Jul ०३, २०१९ १५:०० Asia/Kolkata

आपको याद होगा कि पिछले कार्यक्रमों में हमने इस बात की समीक्षा की थी कि मानवाधिकार के दस्तावेज़ों और बाल अधिकार के कन्वेन्शन में वर्णित कितनी बातें, बाल अधिकार के बारे में इस्लामी शिक्षाओं में वर्णित बिन्दुओं से मेल खाती हैं।

बाल अधिकार कन्वेन्शन के अनुच्छेदों और इस्लामी धर्मशास्त्र में कुछ अंतर के बावजूद, कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बाल अधिकार के समर्थन में दोनों पक्षों ने संयुक्त कोशिश की है।

इस्लाम ने आरंभ से ही बाल अधिकार के मामलों पर विशेष रूप से ध्यान दिया है। इस्लाम ने संतान की हत्या से रोका और पैग़म्बरे इस्लाम ने भी इस कृत्य की बुराइयों को लोगों को पवित्र क़ुरआन की आयतों की व्याख्या के ज़रिए समझाया। पवित्र क़ुरआन में श्रेष्ठता का मानदंड सदाचारिता और ईश्वर से डर को बताया गया है। इस्लाम ने लिंग को श्रेष्ठता का आधार नहीं माना है जैसा कि उस समय के लोग लिंग को श्रेष्ठता का आधार समझते थे। जैसा कि ईश्वर पवित्र क़ुरआन के हुजरात सूरे की आयत नंबर 13 में फ़रमाता हैः "हे लोगो! हमने तुम्हें पुरुष और स्त्री से पैदा किया और तुम्हें विभिन्न क़बीलों व राष्ट्रों में बांट दिया ताकि एक दूसरे को पहचानो। वास्तव में ईश्वर के निकट तुममे से सबसे ज़्यादा सम्मानीय वह है जो सबसे ज़्यादा सदाचारी है।"

इसी तरह पवित्र क़ुरआन के इसरा सूरे की आयत नंबर 31 में ईश्वर कह रहा हैंः "निर्धनता के डर से अपने बच्चों को जान से न मारो। हम उन्हें और तुम्हें रोज़ी देते हैं। निःसंदेह उन्हें जान से मारना महापाप है।"

 

आज यह हक़ीक़त साबित हो चुकी है कि बच्चों को कम उम्र में न सिर्फ़ शारीरिक दृष्टि से देखभाल की ज़रूरत होती है बल्कि सामाजिक, भावनात्मक, बौद्धिक और व्यक्तित्व की दृष्टि से भी देखभाल की ज़रूरत होती है। इंसान के बच्चों में बचपन से ही सामाजिक जीवन स्थापित करने की क्षमता होती है। इस बीच मां-बाप का रोल बहुत ही निर्णायक अहमियत रखता है। बच्चे अपने मां-बाप से सामाजिक संबंध सीखते हैं। अगर हम बच्चे का ऐसा प्रशिक्षण करना चाहते हैं कि वह समाज में सक्रिय रहे तो उसकी ज़रूरतों को शुरु से ही पूरा करें और इस लक्ष्य के लिए उसकी सामाजिक ज़रूरतों को पहचानें।

आम तौर पर बच्चा सामाजिक होने की प्रक्रिया में मां बाप में ख़ास तौर पर मां को आदर्श क़रार देता है और इसलिए बच्चे की ज़रूरत की पहचान और उसके व्यवहार में सुधार का बच्चे के व्यक्तित्व के सामाजिक पहलू पर बहुत असर पड़ेगा।                    

इस्लाम में मानव जाति के लिए परिवार को सामाजिक आधार कहा गया है। इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम फ़रमाते हैः "ईश्वर के निकट इस्लामी संस्थाओं में शादी और परिवार से अधिक पसंददीदा कोई संस्था नहीं है।"

यही वजह है कि परिवार को बाल अधिकार कन्वेन्शन की प्रस्तावना में मूल गुट की संज्ञा दी गयी है जिसके दायरे में बच्चे का विकास हो क्योंकि परिवार में ही बच्चे के विकास के अनुकूल स्वाभाविक वातावरण मुहैया होता है। बच्चे का व्यक्तित्व भौतिक व आत्मिक ज़रूरतों की पूर्ति होने पर विकसित होता है। बच्चे के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार उसका मूल अधिकार है। यह अधिकार उसे परिवार और समाज की ओर से मिलना चाहिए ताकि जब वह समाज में सक्रिय हो तो अच्छे व्यक्तित्व के साथ आए। उसमें दूसरों के साथ किसी तरह का भेदभाव या अपमान करने की भावना न हो।

बच्चों को पैदाइश के समय से ही मां-बाप के विशेष ध्यान की ज़रूरत होती है ताकि उनकी अच्छी तरह परवरिश हो। बच्चों के विकास का एक अहम आयाम उनका भावनात्मक विकास और मानिसक स्वास्थ है। बच्चे में पैदाइश के आरंभ में भावना सुकून व बेचैनी के रूप में प्रकट होती है। फिर बाद के महीनों में बच्चे में ख़ुशी, हंसी, दुख, डर और क्रोध जैसी दूसरी प्रकार की सकारात्मक व नकारात्मक भावनाएं पैदा होती हैं। नवजात में रूचि, नफ़रत और ख़ुद को मजबूर समझने की भावना पैदाइश के समय से होती है। नवजात जब 3 से 4 महीने का होता है तो वह क्रोध, दुख और हैरत का अनुभव करता है। बच्चा 5 से 7 महीने के बीच डर का अनुभव करता है। इसी तरह बच्चे में शर्म की भावना 6 से 8 महीने की उम्र में पैदा होती है। बच्चे में शर्मिन्दगी और गुनाह की भावना दूसरे साल के आरंभ में जागृत होती है।

नवजात को पैदाइश के आरंभ से मां के साथ शारीरिक संपर्क की बहुत ज़रूरत होती है इसलिए उसे पूरे दिन कई घंटे तक मां से अलग नहीं होना चाहिए। शोध दर्शाते हैं कि 6 महीने से 3 साल की उम्र तक मां की औलाद के पास मौजूदगी का उसके भावनात्मक, बौद्धिक और शारीरिक विकास में बहुत असर पड़ता है।

वास्तव में मां-बाप द्वारा बच्चे की परवरिश की सही शैली का उसके विकास और मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत असर पड़ता है। विशेष कर जीवन के आरंभिक साल में मां बाप बच्चे में आत्म-सम्मान की भावना के विकास का मूल स्रोत होते हैं। इसी तरह बच्चा मां बाप से दूसरों को रोकने-टोकने का तरीक़ा सीखता है। इसी तरह बच्चा दूसरों से संपर्क बनाने की सही शैली मां-बाप से सीखता है। जो मां-बाप बच्चों से हमेशा मोहब्बत से पेश आते हैं, उनके साथ तर्कपूर्ण व संतुलित व्यवहार अपनाते हैं, वे अपने बच्चों में सही सामाजिक व्यवहार को प्रकट करने का शौक़ पैदा करते हैं। इसी तरह वे अपने बच्चों में क्षमताओं को निखारने की पृष्ठिभूमि मुहैया करते हैं। इसके विपरीत जो मां-बाप अपने बच्चों पर बहुत पाबंदी लगाते और उन्हें झिड़कते हैं, वे अपने बच्चों को क्षमताओं के निखारने से वंचित करते हैं। इस तरह के बच्चों के मन में समय बीतने के साथ साथ यह विचार जड़ पकड़ लेता है कि वह अपने मां-बाप के बिना अपने जीवन के मामलों व विषयों का सामना नहीं कर सकते। ऐसा विचार उनमें डर व बेचैनी को जन्म देता है। इसी तरह बच्चे का अपमान, बार बार उसकी आलोचना व डांट डपट, अपमानजनक शब्दों से उसे पुकारना वे तत्व हैं जो उसके मन में द्वेष व घृणा की भावना को जन्म देते हैं।

जो कुछ बातें इस्लामी शिक्षाओं, क़ुरआनी आयतों, पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों और उनके पवित्र परिजनों के आचरण से पता चलती हैं वे बच्चों में नैतिक दृष्टि से बहुत ही कोमल भावनाएं होती हैं जो समय के साथ चरणबद्ध रूप में विकसित होती हैं। इस विकास के लिए शिक्षा व परवरिश के माहौल का उचित व स्वस्थय होना ज़रूरी है ताकि धीरे-धीरे निहित क्षमता प्रकट हो। जिस तरह बच्चे के शरीर को स्वस्थ रहने के लिए नाना प्रकार के खाने की ज़रूरत होती है, उसके वैचारिक विकास के लिए भी उचित माहौल व संसाधन का मुहैया होना ज़रूरी है।

इस्लाम बाल अधिकार को व्यापक आयाम और बच्चे के व्यक्तित्व को गहरी नज़र से देखता है। व्यक्तित्व ऐसे गुणों व विशेषताओं का समूह होता है जिससे एक व्यक्ति दूसरों से भिन्न नज़र आता है। पवित्र क़ुरआन में इंसान के व्यक्तित्व के बारे में व्यापक बहस है। पवित्र क़ुरआन में इंसान को बहु आयामी प्राणी कहा गया है। अर्थात इंसान के व्यक्तित्व के भौतिक और आध्यात्मिक आयाम होते हैं। ये दोनों आयाम पूरे इतिहास में किसी व्यक्ति के सामाजिक व्यक्तित्व और उसमें मानवीय पहलू को स्वरूप देते हैं।

जिस चीज़ पर समजाशास्त्री और धर्मशास्त्री बल देते हैं वह यह कि बच्चों के लिए शैक्षिक कार्यक्रम ज़रूरी है जिससे उसके व्यक्तित्व का सामाजिक आयाम विकसित हो और वह वैचारिक परिपक्वता तक पहुंचे।         

बाल अधिकार को बच्चे की परवरिश में मूल विचार और उसके स्वस्थ आत्मिक व मानसिक विकास में बहुआयामी मददगार समझा जाता है। बुरे नौजवानों के हालात की समीक्षा से पता चलता है कि बचपन में उनके अधिकारों का हनन हुआ या उन्होंने आत्मिक व मानसिक यातना को अपनी आंखों से देखा।

ईश्वरीय धर्मों में ख़ास तौर पर इस्लाम में एक स्वस्थ समाज के ढांचे के लिए बच्चे के जिन अधिकारों पर बल दिया गया है, बाल अधिकार कन्वेन्शन में बहुत जगहों पर उन्हीं बिन्दुओं का उल्लेख है जिसके लिए विश्व समुदाय को प्रेरित किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय समाज के नियमों व क़ानून को बदलाव की नज़र से देखना और उसकी बाल अधिकार के हित में व्याख्या से यह ख़ुशख़बरी मिलती है कि विश्व जनमत को एकमत बनाने का उद्देश्य उन ख़तरों को रोकना है जो बच्चों के उनके क़ानूनी व वास्तविक अधिकार तक पहुंचने में बाधा बनते हैं।

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