इस्लाम में बाल अधिकार- 26
इस्लाम में बालाधिकार की अंतिम कड़ी के साथ आपकी सेवा में हाज़िर हैं।
आपको अवश्य याद होगा कि इस कड़ी के आरंभ में हमने बच्चे के महत्व तथा विश्व में उसके अधिकारी के इतिहास के बारे में बताया था। उसके बाद हमने अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज़ों, कंवेन्शनों और इस्लाम में बच्चों को दिये गये अधिकारों की चर्चा की थी।
यह बात किसी से नहीं छिपी है कि बच्चों से ही इंसानों की नस्लें चलती हैं। हर समाज के विकास के लिए बच्चे इंसान की सबसे मूल्यवान पूंजी होते हैं। दुनिया में पति- पत्नी को संतान बढ़ाने लिए बहुत अधिक प्रेरित किया जाता है परंतु जनसंख्या के अधिक होने के साथ यह बात स्पष्ट है कि संतान के अच्छा और सही होने के लिए उसका सही प्रशिक्षण ज़रूरी और महत्वपूर्ण चीज़ है। इंसानों की तरह बच्चों के भी अधिकार हैं। उम्र कम होने जैसी चीज के कारण बच्चों को अपनी आवश्यकता की आपूर्ति के लिए माता-पिता और अभिभावकों की ज़रूरत होती है और अगर उनका कानूनी व प्रभावी समर्थन न किया जाये तो बच्चे समाज के वे वर्ग हैं जिन्हें सबसे अधिक आघात पहुंचता है। इस आधार पर बच्चों के सही प्रशिक्षण के लिए उनका हर प्रकार से समर्थन हर समाज का महत्वपूर्ण व परम दायित्व है चाहे वह समर्थन नैतिक हो, आध्यात्मिक हो या शारीरिक।
ईश्वरीय धर्म इस्लाम बच्चों को बहुत महत्व देता है। इस्लाम धर्म के उदय से पहले अरबों के मध्य एक ग़लत व बुरी परम्परा यह थी कि वे लड़कियों को ज़िन्दा दफ्न कर देते थे परंतु इस्लाम के उदय के आरंभ से ही पैग़म्बरे इस्लाम ने अज्ञानता के काल की इस गलत व बुरी परम्परा से संघर्ष किया। इस्लाम से पहले अज्ञानता के काल में अरब समाज में व्याप्त कुरीतियों के अनुसार परिवार में बच्चों का कोई सम्मान नहीं था इस ग़लत परम्परा के अनुसार इस्लाम ने बच्चों के अधिकार के लिए कार्यक्रम बनाये और इसके साथ कुछ बातों की सिफ़ारिश की जो बच्चों के मूल्य, महत्व और स्थान को दर्शाता है। धर्म की दृष्टि में उसे सुन्नत कहते हैं। सुन्नत उस कार्य को कहते हैं जिसका करना अनिवार्य नहीं है और अगर उसे अंजाम दिया जाये तो इसके बदले में पुण्य मिलेगा परंतु अगर उसे छोड़ दिया जाये तो इंसान प्रकोप का पात्र नहीं होगा। मिसाल के तौर पर जब संतान पैदा होती है तो उसके जन्म की शुभसूचना देना सुन्नत है। इसी प्रकार उस परिवार को भी मुबारकबाद देना और माता- पिता के लिए दुआ करना सुन्नत है जिसे महान ईश्वर ने संतान प्रदान की है।
महान ईश्वर ने जब हज़रत ज़करिया को बेटा प्रदान किया तो वह इस घटना को पवित्र कुरआन के सूरे आले इमरान की 39वीं आयत में बयान करते हुए कहता है कि फरिश्तों ने ज़करिया को उस समय आवाज़ दी और कहा कि ईश्वर तुम्हें यहिया की शुभसूचना देता है जबकि वह मेहराब में खड़े नमाज़ पढ़ रहे थे"
इसी प्रकार महान ईश्वर सूरे मरियम की 7वीं आयत में कहता है" हे ज़करिया हम तुम्हें एक बेटे की शुभसूचना देते हैं कि उसका नाम यहिया होगा और उससे पहले किसी का यह नाम नहीं था"
इसी प्रकार बच्चा पैदा होने पर लोगों की दावत करना, उन्हें खाना खिलाना और दान देना भी सुन्नत है। बच्चा पैदा होने के 17वें दिन अक़ीक़ा कराना यानी कुर्बानी कराना भी सुन्नत है। अक़ीक़े में भेड़, बकरी या उस जानवर की कुर्बानी कराई जा सकती है जो कुर्बानी के लायक हो। दूसरे शब्दों में बच्चे के पैदा होने की शुभ सूचना देना, मुबारकबाद देना, खाने के लिए दावत देना और अक़ीका कराना सामाजिक और पारिवारिक संबंधों की मजबूती का कारण बनता है। इससे परिवार और इस्लामी समाज को यह सीख मिलती है कि महान ईश्वर ने इंसान को जो संतान प्रदान की है ईश्वर के निकट उसका कितना महत्व है।
बच्चों के अधिकार कंवेन्शन में आया है कि बच्चों के अधिकारों पर ध्यान देने की सबसे अधिक ज़िम्मेदारी मां- बाप की है। जैसाकि इस कंवेन्शन के 18वें अनुच्छेद में कंवेन्शन के समर्थक देश इस बात के प्रति कटिबद्ध हैं कि वे इस सिद्धांत पर अमल करेंगे और उसे मान्यता देने की दिशा में प्रयास करेंगे कि बच्चे के पालन- पोषण और उसके विकास की ज़िम्मेदारी सबसे अधिक माता- पिता पर है। माता- पिता और कानूनी अभिभावकों पर बच्चों के भरण- पोषण और प्रगति की ज़िम्मेदारी है और उनकी मूल ज़िम्मेदारी बच्चों के उच्च हितों की रक्षा करना है।
इस्लामी शिक्षाओं में भी आया है कि बच्चों के अधिकारों के संबंध में सबसे अधिक ज़िम्मेदारी माता- पिता की है क्योंकि बच्चा घर की बरकत, नेअमत और अच्छाई है जिसे महान ईश्वर ने बच्चे के माता- पिता को प्रदान किया है। बच्चों के अधिकारों की रक्षा के संबंध में जो रवायतें आई हैं उनमें बच्चों के अधिकारों की रक्षा पर ध्यान माता- पिता के अधिकारों की तरह देने की बात कही गयी है। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं" जिस तरह संतान को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने माता- पिता का अनादर करे उसी तरह माता- पिता को भी चाहिये कि वे अपनी संतान का अपमान न करें" इसी तरह एक अन्य स्थान पर आया है जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं" अपने बच्चों का सम्मान करो और उनका प्रशिक्षण करो।"
बच्चों का एक अधिकार उनके लिए अच्छे नाम का चयन है। बच्चों के अधिकार कंवेन्शन के सातवें अनुच्छेद के अनुसार बच्चों के पैदा होने के तुरंत बाद उनके नाम का पंजीकरण होना चाहिये। इस्लामी शिक्षाओं में भी आया है कि माता- पिता की एक ज़िम्मेदारी नवजात शिशु के लिए अच्छे नाम का चयन है। हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम इस संबंध में फरमाते हैं" पहली चीज़ नाम का चयन है जिसके माध्यम से बाप अपने बेटे के लिए भलाई करता है तो तुममें से हर एक अपनी संतान के लिए अच्छे नाम का चयन करे।
बच्चों के लिए उचित भोजन उपलब्ध करना उनका एक निश्चित अधिकार है। बच्चों के अधिकार कंवेन्शन के 24वें अनुच्छेद में आया है कि जो देश इस कंवेन्शन के समर्थक व पक्षधर हैं उन्हें बीमारियों से मुकाबला करने, उचित व पौष्टिक भोजन का प्रबंध करने और शुद्ध पेयजल का प्रबंध करने की दिशा में प्रयास करना चाहिये। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं" बाप पर संतान का अधिकार यह है कि वह पवित्र और अच्छे भोजन के अलावा उसे कुछ न दे।"
जब मां बच्चे को दूध पिलाती है तो उस दौरान भी जो भोजन बच्चे को दिया जाता है वह भी बहुत महत्वपूर्ण है इस प्रकार से कि महान ईश्वर ने पवित्र कुरआन के सूरे तलाक़ की छठी आयत में बल देकर कहा है कि बच्चे को दूध पिलाने के संबंध में माता- पिता के मध्य सलाह- विचार विमर्श और वैचारिक समरसता होनी चाहिये।
इसी प्रकार महान ईश्वर ने पवित्र कुरआन के सूरे अहक़ाफ़ की 15वीं आयत में भी दूध पिलाने की अवधि के पूरा करने को आवश्यक व अनिवार्य करार दिया है क्योंकि बच्चे के विकास और उसके व्यक्तित्व के पूरा होने में इस अवधि की बुनियादी भूमिका है।
शिक्षा ग्रहण करना मुसलमान बच्चे का एक अन्य अधिकार है। ईश्वरीय धर्म इस्लाम में ज्ञान अर्जित करना हर मुसलमान महिला और पुरुष पर अनिवार्य है। इस्लाम धर्म के इस आदेश में बच्चा भी शामिल है। यानी बच्चे को पढ़ाना- लिखाना मां- बाप पर अनिवार्य है।
बालाधिकार कंवेन्शन के 28वें अनुच्छेद में आया है कि जो देश इस कंवेन्शन के प्रति वचनबद्ध हैं उन्हें चाहिये कि शिक्षा के अधिकार को मान्यता प्रदान करें और इसे व्यवहारिक बनाने की दिशा में प्रयास करें।
शायद बच्चों का एक महत्वपूर्ण अधिकार बच्चों के साथ बच्चा बनकर उनके साथ खेलना है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” बच्चे का आरंभिक सात वर्ष खेल- कूद और शारीरिक गतिविधियों में बीतना चाहिये।“ यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम सिफारिश करते हैं कि बच्चों के साथ बच्चा बनकर खेलने में भी उनकी सहायता करनी चाहिये। जैसाकि पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं” जिसके पास बच्चा है उसे बच्चे के साथ बच्चे जैसा व्यवहार करना चाहिये।“
बच्चे बहुत कोमल भावना के स्वामी होते हैं। कमज़ोर होने और सबसे अधिक प्रभावित होने की वजह से उनके साथ हिंसा व ज़ोरज़बरदस्ती नहीं की जानी चाहिये। बालाधिकार कंवेन्शन के 19वें अनुच्छेद के अनुसार इस कंवेन्शन के प्रति वचनबद्ध देशों को चाहिये कि वे बच्चों के साथ होने वाली हर प्रकार की शारीरिक व मानसिक हिंसा को रोकें। ईश्वरीय धर्म इस्लाम में इस विषय पर भी गम्भीर रूप से ध्यान दिया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं” ईश्वर किसी भी चीज़ से उस तरह से क्रोधित नहीं होता है जिस तरह महिलाओं और बच्चों के साथ की जाने वाली हिंसा से क्रोधित होता है।“
इसी प्रकार जिस समय एक व्यक्ति ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से अपने बच्चे की शिकायत की तो इमाम ने फरमाया” उसे न मारो बल्कि उससे नाराज़ हो जाओ परंतु अधिक देर तक नहीं।“
इस आधार पर एक ओर जहां शारीरिक दंड देने से मना किया गया है तो वहीं दूसरी ओर बच्चे से नाराज़गी लंबी नहीं होनी चाहिये। क्योंकि अधिक देर तक नाराज़गी से बच्चे की कोमल भावना पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है और उसके अंदर मानसिक बीमारियों की भूमि प्रशस्त हो सकती है। दूसरी ओर नाराज़गी के लंबा खिंचने की वजह से बच्चे पर प्रशिक्षा का प्रभाव भी कम हो जायेगा।
पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं” अपने बच्चों से प्रेम करो, उन पर दया करो और उनसे किये गये वादों को पूरा करो।“ इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर फरमाते हैं” जब अपने बच्चों का नाम लेते हो तो उनका सम्मान करो और उसे बैठने के लिए जगह दो और उससे रुखेपन से पेश न आओ। इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम एक अन्य स्थान पर फरमाते हैं” अगर कोई अपने बच्चे को चूमता है तो उसके नाम एक पुण्य लिखा जायेगा।“
ईश्वरीय धर्म इस्लाम ने बहुत ही सूक्ष्म ढंग से बच्चे की शारीरिक ,मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं पर ध्यान दिया है। इस आधार पर बच्चे का सम्मान माता- पिता पर ज़रुरी है और यह वह चीज़ है जिस पर बल दिया गया है।
रोचक बात यह है कि इस्लाम धर्म में बच्चों के अधिकारों पर उस समय ध्यान दिया गया जब संसार में किसी प्रकार की संस्था, संगठन या कंवेन्शन नहीं थे। इस्लाम धर्म ने बच्चे की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक समस्त प्रकार की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखकर उनके विकास व प्रगति की भूमि प्रशस्त कर दी है।