Dec २५, २०१८ १४:३४ Asia/Kolkata

हमने इस बात की ओर संकेत किया था कि मस्जिद वह जगह है जिसकी बुनियाद पैग़म्बरे इस्लाम ने सबसे पहले मदीना में रखा था और गत 1400 सालों के दौरान उसने बहुत उतार- चढ़ाव देखे हैं।

मस्जिद का विदित रूप इतना सुन्दर बनाया गया कि वह राजा महाराजाओं के महलों की भांति हो गयी परंतु मस्जिद का जो वास्तविक स्थान है यानी

 

महान ईश्वर की उपासना व बंदगी, वह कभी भी न तो समाप्त हुआ और न समाप्त होगा। समाज में जो प्रचलित सुन्दता है इस्लाम उसका विरोधी नहीं है परंतु इस्लाम धर्म की जो शिक्षाओं हैं वे सादे जीवन को महत्व देती हैं यानी जीवन के हर क्षेत्र में सादगी से काम लेने को महत्व दिया गया और उसकी सराहना की गयी है और यही सादगी इस बात का कारण बनी है कि जो मस्जिदें इस्लाम के आरंभिक काल में बनाई गयी थीं उन्हें विस्तृत किया जाये। इसी प्रकार दुनिया की बहुत सी मस्जिदों के निर्माण के बाद उनमें विस्तार किया गया ताकि अधिक से अधिक लोग उनमें नमाज़ पढ़ सकें।

आरंभ में मस्जिदों का निर्माण बहुत सादे ढंग से किया जाता था। उनकी छतें भी लकड़ी की होती थीं। धीरे- धीरे एसी मस्जिदों का निर्माण किया गया जिनमें खुले प्रांगड़ और हाल होते थे। मस्जिदों के निर्माण में अधिकतर कच्ची ईंटों का प्रयोग होता था और उनके जो स्तंभ होते थे वे एक जैसे होते थे। धीरे- धीरे उनके निर्माण में परिवर्तन आया और कच्ची ईंटों के स्थान पर पक्की ईंटों का प्रयोग होने लगा और उनके  स्तंभों को विभिन्न ढंग से बनाया जाने लगा और मस्जिद के दूसरे भागों को पवित्र कुरआन की आयतों आदि से सुसज्जित किया जाने लगा, सुन्दर टाइलें लगाई जाने लगीं, तथा कूफी और नस्ख़ लिपी में शिलालेख लगाये जाने लगे। यही नहीं बाद में राजाओं और शासकों ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए बड़ी- बड़ी गुंबदों वाली मस्जिदों का निर्माण कराया। इन मस्जिदों में सुन्दर टाइलें लगाई गयीं, प्लास्टर आफ़ पेरिस का काम किये गये और इसी तरह इन मस्जिदों में कूफी और नस्ख़ लिपी में सुन्दर शिलालेख लगाये गये। इस प्रकार की मस्जिदें स्वयं कला के नमूनों में परिवर्तित हो गयीं। इस प्रकार मस्जिदों को मुसलमानों के कला प्रदर्शन के एक स्थल के रूप में देखा जाने लगा। इस समय मस्जिद के निर्माण को इस्लामी कला का भाग समझा जाता है। दूसरे शब्दों में यह ऐसी कला है जिसमें अध्यात्म, ईमान और पवित्र कुरआन की शिक्षाओं का प्रतिबिंबन होता है और कलाकार अपनी इस्लामी आस्था व कलाबोध के साथ अपनी कला का प्रदर्शन मस्जिदों में करता है। इस्लामी कलाकार पूरे ब्रह्मांड को महान ईश्वर की रचना मानता है जो कला और सुन्दरता का प्रतीक है और कलाकार मस्जिद का निर्माण इस प्रकार करता है कि वह कला एवं सुन्दता का नमूना हो।    

                    

मस्जिदों में जो चार कोने होते हैं उसका भी एक कारण व रहस्य है। इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” काबे के चौकोर होने की वजह यह है कि बैते मामूर अर्थात विशेष ईश्वरीय स्थान चौकोर है और बैते मामूर के चौकोर होने की वजह यह है कि ईश्वरीय अर्श चौकोर है। ईश्वरीय अर्श के चौकोर होने की वजह यह है कि इस्लाम के चार आधार हैं और वह तस्बीहाते अर्बआ है यानी सुब्हान ल्लाह वलहम्दो लिल्लाह व ला इलाहा इल्लल्लाहो वल्लाहो अकबर।

जब कोई नमाज़ी मस्जिद में प्रवेश करता है तो वह यह सोचता है कि इस दुनिया में जीवन बहुत सीमित है और जब उसकी नज़र मस्जिद के मेहराब आदि पर पड़ती है तो वह स्वयं को भौतिक संसार से अलग करने की कोशिश करता है। पैग़म्बरे इस्लाम का एक कथन है। आप फरमाते हैं” जब मैं मेराज अर्थात आसमान की यात्रा पर था तो मैंने बहुत बड़ा गुंबद देखा जो पूरा सफेद था और वह चार बेलनाकार स्तंभों पर था और चारों स्तंभों पर कुरआन के सूरये फातेहा का पहला वाक्य अर्थात बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम लिखा हुआ था।“

बहरहाल मस्जिद की वास्तुकला अर्शे इलाही की याद दिलाती है।               

         

            

दिल्ली की जामा मस्जिद या जहां नुमा भारतीय मुसलमानों की उपासना का एक महत्वपूर्ण स्थल है। 20वीं शताब्दी के अंत तक इस मस्जिद को विश्व की सबसे बड़ी  मस्जिद समझा जाता था। मोरक्को के प्रसिद्ध पर्यटक इब्ने बतूता ने अपने एक यात्रावृतांत में दिल्ली की जामे मस्जिद को विश्व की सबसे बड़ी मस्जिद बताया है। इस सुन्दर मस्जिद के निर्माण में लाल पत्थरों, मरमर के पत्थरों और मोरंग का प्रयोग बहुत अधिक किया गया है। इन तीनों चीज़ों के मिश्रण ने मस्जिद को विशेष सुन्दरता प्रदान कर दी है।

 

दिल्ली की मस्जिद को जामा मस्जिद कहा जाता है क्योंकि भारत की सबसे बड़ी नमाज़े जुमा इसी मस्जिद में होती है। “नक्शे पारसी बर अहजारे हिन्द” नाम की पुस्तक में लिखा है कि इस मस्जिद का निर्माण 1650 से 1656  अर्थात 1060 हिजरी कमरी से 1066 के मध्य भारत में मुगल शासक शाह जहां के आदेश से हुआ था। सन 1066 हिजरी कमरी में ईद के अवसर पर इसका उदघाटन हुआ। यह मस्जिद पुरानी दिल्ली में है और वह धार्मिक लोगों के बहुत भीड़ भाड़ वाले इलाके में स्थित है। इस मस्जिद के निर्माण में 5 हज़ार मज़दूरों ने 6 साल से अधिक अवधि तक कार्य किया है। दिल्ली की जामा मस्जिद भारत में मस्जिदे जहां नुमा के नाम से प्रसिद्ध है। इस मस्जिद का बाद में शाहजहां ने और विस्तार कराया। शाह जहां ने 31 वर्षों तक भारत में शासन किया। उसे कला, वास्तुकला, शेर और फारसी साहित्य से बहुत लगाव था। भारत में जितनी इमारतों और कला के चिन्ह शाह जहां ने छोड़े हैं उतना किसी भी शासक ने नहीं छोड़ा है। दिल्ली की जामा मस्जिद के अतिरिक्त उसने ताज महल, दिल्ली का लाल किला, आगरा के किले का बड़ा भाग, लाहौर की वज़ीर खान मस्जिद और मस्जिदे शाह जहां का निर्माण करवाया है।

 

दिल्ली की जामा मस्जिद के तीन तरफ एसे हाल हैं जिनमें ताक़ बने हुए हैं। इस मस्जिद के पूरे क्षेत्र की लंबाई लगभग 800 मीटर है जबकि चौड़ाई 27 मीटर है और उसमें तीन गुंबद हैं और हर गुंबद में काले और सफेद रंग के मरमर के पत्थर का प्रयोग किया गया है। इस मस्जिद में चालिस मीटर ऊंची दो मीनारें हैं और ऊपर जाने के लिए 130 सीढ़ियां हैं जिनका निर्माण सफेद रंग के संग मरमर और लाल रंग के मोरंग से किया गया है। इस मस्जिद के पीछे का जो प्रांगड़ है उसमें चार छोटी मीनारें हैं जो मस्जिद के सामने की दो मीनारों की भांति हैं।

दिल्ली की जामा मस्जिद का जो गुंबद है उसके नीचे सात ताक़नुमा दरवाज़ें हैं जो मस्जिद के पश्चिमी भाग में हैं। जामा मस्जिद की जो दीवारें हैं कमर की ऊंचाई तक वे मरमर के पत्थरों से ढ़की हैं। इसके अलावा नमाज़ पढ़ने का दूसरा हाल भी है जो लगभग 60 बाइ 27 है और उसमें ताक़ नुमा सात दरवाज़े हैं और इन दरवाज़ों के ऊपर संग मरमर के पत्थर का ताक़नुमा शिलालेख है जिसकी लंबाई एक मीटर 20 सेन्टीमीटर और चौड़ाई 76 सेन्टीमीटर है। इस शिलालेख में मस्जिद के निर्माण की तिथी और शाह जहां की प्रशंसा लिखी हुई है।

 

दिल्ली की जामा मस्जिद का जो फर्श है वह सफेद और काले रंग के पत्थरों से ढ़का है और संग मरमर के पत्थरों से उस स्थान को स्पष्ट किया गया है जहां नमाज़ी खड़ा होता है। प्रत्येक नमाज़ी के खड़ा होने का स्थान 91 सेन्टीमीटर लंबा और 50 सेन्टीमीटर चौड़ा है। इस प्रकार के नमाज़ पढ़ने के काले मरमर पत्थर के 899 स्थान हैं।

 

दिल्ली की जामा मस्जिद में दूसरी मस्जिदों की भांति फारसी भाषा में शिलालेख मौजूद हैं। इस मस्जिद के प्रवेश द्वार पर जो दालान हैं उन पर फारसी भाषा में 10 शिलालेख हैं। इन शिलालेखों को शुद्ध और सफवी काल की फारसी भाषा में नस्ख लीपि में लिखा गया है। इन शिलालेखों के लिए 10 वर्गाकार और आयताकार बाक्स बनाये गये हैं और हर बाक्स में चार लाइने हैं और इनमें पवित्र कुरआन की आयतें लिखी हुई हैं। इसी प्रकार कुछ शिलालेखों को सुल्स लिपी में 1060 हिजरी क़मरी में लिखा गया है। इन शिलालेखों को लिखने की शैली ताजमहल में लिखे शिलालेखों जैसी है। इसी प्रकार दिल्ली की जामा मस्जिद में कुछ प्राचीन धरोहरें भी हैं। इस मस्जिद में जो धरोहरें हैं उनमें से उस कुरआन की ओर संकेत किया जा सकता है जिसे हिरन की खाल पर लिखा गया है।

 

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