इस्लाम में बाल अधिकार- 4
बच्चे समाज की एक इकाई हैं और उनके बचपने को मानव जीवन का बहुत संवेदनशील समय समझा जाता है।
इस कारण हमने बच्चों के अधिकारों की अलग से समीक्षा की है और उनके अधिकारों के विषय को अलग से पेश किया है। दूसरे शब्दों में जैसाकि हमने आरंभ में कहा कि बच्चे भी इंसान है जिसकी वजह से इनके भी कुछ अधिकार हैं। इस आधार पर दुनिया में इस समय बड़े पैमाने पर बच्चों के अधिकारों की बात की जाती है।
दुनिया में बच्चों के अधिकारों के अतीत की समीक्षा करने के बाद हमें यह ज्ञात होता है कि आरंभिक शताब्दियों में बच्चों को महिलाओं की तरह बहुत कठिन दौर से गुज़रना पड़ा है। दूसरे शब्दों में बच्चों के साथ हिंसात्मक व्यवहार किया जाता था। बड़ी उम्र के लोग बच्चों के साथ हिंसात्मक व्यवहार करते थे और कुछ अवसरों पर उनकी हत्या तक कर देते थे।
जिस तरह अतीत में बच्चों के साथ हिंसात्मक व्यवहार हुए हैं उसी तरह अतीत में उनके अधिकारों को जानने की प्रक्रिया को भी कठिन चरणों से गुज़रना पड़ा है। 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से हम एसे समय और बदलाव तक पहुंचते हैं जिसे बच्चों के अधिकारों की पहचान काल का कह सकता है। लिओड डिमास ने बच्चों का इतिहास नाम की जो किताब लिखी है उसके आधार पर हम 6 दौर में बच्चों के अधिकारों की समीक्षा करेंगे।
पहला दौर बच्चों की हत्या का दौर है। यह वह दौर है जब बच्चों के साथ बहुत बुरा व्यवहार होता था और बच्चों के साथ यह रवइया चौथी शताब्दी तक जारी था। बच्चों का इतिहास नामक किताब के लेखक का मानना है कि बच्चों के संबंध में बड़ी उम्र के लोगों में जो सोच पाई जाती थी वह यह थी कि बच्चों से कोई लाभ नहीं है और उन्हें पालना एवं बड़ा करना पड़ता है जबकि बड़ी उम्र के लोगों के साथ ऐसा नहीं करना पड़ता।
एक मनोवैज्ञानिक इस बात की पुष्टि करते हुए लिखता है” वास्तव में गर्भपात करना और बच्चों की हत्या कर देना समाज को सुरक्षित और उसे बाकी रखने का एक रास्ता था। अलबत्ता इसमें कुछ अपवाद भी था। यह उस वक्त था जब महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण बच्चों की मौत हो जाती थी।
प्रतीत यह होता है कि इस प्रकार की सोच का कारण यह था कि लोग बच्चों को धन- सम्पत्ति की तरह अपना माल समझते थे और उनके साथ हर प्रकार के व्यवहार को अपना अधिकार समझते थे। प्राचीन रोम में “बाप की सोच” शक्ति का बोलबाला था और यह सोच बाप को यह अधिकार देती थी कि वह अपने बच्चों के साथ दासों जैसा व्यवहार कर सकता है। इस सोच के अनुसार बाप उन्हें ज़िन्दगी और मौत का अधिकार देता था और इस अधिकार को वह वापस भी ले सकता था। इसी अधिकार के बहाने लोग बच्चों की हत्या का औचित्य भी दर्शाते थे। अरस्तू का मानना था कि बच्चा जब तक बड़ा नहीं हो जाता तब तक वह अपने बाप की संपत्ति है। अलबत्ता अफलातून सहित कुछ यूनानियों की आस्था के अनुसार जो महिलाएं चालिस साल से अधिक की हो चुकी हों और जिन मर्दों की उम्र 55 साल से अधिक हो चुकी हो उन्हें बच्चा पैदा करने का अधिकार नहीं होता था। उसने सरकार से कह रखा था कि अगर कोई इस कानून की खिलाफवर्ज़ी करता है तो उसे गर्भपात करना होगा या जिस तरह से भी संभव हो जन्म ले चुके बच्चे को मारना होगा।
बच्चों का इतिहास नामक पुस्तक का लेखक आस्ट्रेलिया के बारे में लिखता है” आस्ट्रेलिया में बच्चों की हत्या करना कानूनी था। इस तरह कि एक औरत को एक से अधिक बच्चा पैदा करने का अधिकार नहीं था और अगर दूसरा बच्चा पैदा हो गया तो हर हालत में उसकी हत्या करना होता था। जो बच्चे जोड़ुआं पैदा होते थे उनका अंजाम अधिक बुरा होता था। उनमें से किसी एक को या दोनों को या सब को मार दिया जाता था। वह इसी प्रकार लिखता है कि कुछ दूसरे क्षेत्रों में उन बच्चों को भी मार दिया जाता था जो अपंग पैदा होते थे क्योंकि उनकी अधिक या विशेष देखभाल करनी पड़ती थी। जो बच्चे अपंग पैदा होते थे कभी उनकी मांओं से कहा जाता था कि वे अपने अपंग बच्चों के शरीर के कुछ मांस खायें ताकि उनके गर्भ में रहने के कारण जो शक्ति कम हो गयी है उसकी भरपाई हो सके।
बच्चों को हेय व गिरी हुई दृष्टि से देखना उनकी स्थिति का दूसरा काल है। चौथी से चौदहवीं शताब्दी तक लोग आग्रह करते थे कि बच्चा एक अपवित्र अस्तित्व है और इस अपवित्र अस्तित्व से मुकाबले का एक मात्र मार्ग उसे शारीरिक यातना देना व प्रताड़ित करना है। इस गलत सोच की वजह यह थी कि लोग उस समय बच्चों और बच्चों की वास्तविकता को नहीं समझते थे और इसी कारण लोग बच्चों से उन कार्यों की अपेक्षा रखते थे जो उनकी क्षमता से बाहर होते थे और बच्चों को हर प्रकार का दंड देने को कानूनी एवं वैध चीज़ समझते थे। इस आधार पर अबोध बच्चों से वह काम कराना सामान्य बात थी जो उनकी क्षमता से बाहर होते थे। वास्तव में बच्चे कमज़ोर हालत में थे और वे बड़ों से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थे इसलिए उन्हें बहुत कठिन हालात का सामना करना और विभिन्न प्रकार की यातनाओं को सहन करना पड़ता था।
तीसरा आश्चर्य व असमंजस का दौर था। यह दौर चौदहवीं से 17वीं शताब्दी तक जारी रहा। यह नई विचारधारा के अस्तित्व में आने का दौर था और यह दौर चौदहवीं शताब्दी से पहले वाले दौर से विरोधाभास रखता था। अलबत्ता इस दौर का दूसरे दौर पर यानी बच्चों को यातना देने के दौर पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि बच्चों को यातना देना काफी समय तक जारी रहा और उस समय भी बच्चों को मौत जैसी कड़ी सज़ा का सामना था। बच्चों का इतिहास नामक किताब के लेखक लिओड डिमास के अनुसार इस दौर में जो यह धारणा पाई जाती थी कि बच्चे अपवित्र हैं उस पर गम्भीर रूप से प्रश्न चिन्ह लगाया गया। इसी प्रकार इस काल में कुछ एसी पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं जिसमें किसी सीमा तक उस विचारधारा को रद्द किया गया था जिसमें बच्चों को अपवित्र अस्तित्व की संज्ञा दी गयी थी। इन पत्रिकाओं में जो बातें प्रकाशित की गयीं उनसे किसी सीमा तक लोगों की उस सोच में बदलाव एवं परिवर्तन की हालत उत्पन्न हो गयी जिसके अनुसार बच्चों को अपवित्र प्राणी समझा जाता था और यही चीज़ शायद इस दौर के नामकरण का कारण बनी और इसी वजह से इस दौर का नाम परिवर्तन रख दिया गया। क्योंकि एक ओर पूरी तरह वह सोच समाप्त नहीं हुई थी जिसमें बच्चों को अपवित्र प्राणी समझा जाता था और दूसरी ओर वह विचार धारा पूरी तरह व्याप्त नहीं हुई थी और सब लोग उसे स्वीकार नहीं किये थे कि बच्चों को अपवित्र समझना कल्पना से अधिक कुछ और नहीं है।
चौथे दौर का नाम सरलता रखा गया है। यह वह दौर है जब बच्चों के साथ कड़ाई के बजाये सरलता का बर्ताव किया जाता था। 17वीं और 18वीं शताब्दी वह दौर है जिसमें बच्चों के साथ कड़ाई से व्यवहार करने की सोच पर विराम लग गया और बच्चों के माता- पिता ने इस वास्तविकता को स्वीकार कर लिया कि बच्चे बुरे प्राणी नहीं हैं बल्कि वे एसे इंसान हैं जिन पर अगर सही तरह से ध्यान दिया जाये तो भविष्य में समाज के लिए बहुत लाभदायक हैं। जब से बच्चों के बारे में इस प्रकार की सोच प्रचलित हो गयी और हिंसा के बजाये उनके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाने लगा तो माता- पिता और बच्चों के बीच जो गहरी दूरी थी वह समाप्त हो गयी। लिओड डिमास के अनुसार 17वीं और 18वीं शताब्दी के दौरान जो रिपोर्टें इस बात की सूचक हैं कि इस दौरान बच्चों की मृत्यु दर कम रही है वे इसी सोच का परिणाम हैं। इस काल की एक महत्वपूर्ण विशेषता समाज और परिवार में बच्चों के संबंध में पाई जाने वाली सोच का पूर्णरूप से परिवर्तित हो जाना है। अलबत्ता बच्चों के बारे में पाई जाने वाली सोच में परिवर्तन बहुत अच्छी व प्रभावी चीज़ है परंतु प्रतीत यह हो रहा है कि उसके व्यवहारिक होने का यह अर्थ नहीं है कि समाज के लोगों के मध्य बच्चों के संबंध में जो हिंसा एवं कठोर बर्ताव पाया जाता था वह पूरी तरह से समाप्त हो गया। क्योंकि आज भी आधुनिकतम तरीके से बच्चों के अधिकारों का हनन होता है।
आज की मशीनी दुनिया में परिवार के आधारों के कमज़ोर होने, सामाजिक संबंधों के जटिल होने, वर्गभेद और केवल लाभों को दृष्टि में रखने के कारण आज भी बच्चे नई दुनिया के हितों की भेंट चढ़ रहे हैं। इसी तरह आज की दुनिया में बच्चों के साथ व्यवहार भी परिवर्तित हो गया है। बच्चों का यौन शोषण, आर्थिक लाभ के लिए उनका दुरुप्रयोग, उनके विरुद्ध हिंसा, उनके साथ भेदभाव और युद्धों आदि के कारण उनका बेघर हो जाना उनके अधिकारों के हनन के कुछ नमूने हैं। इसी प्रकार इंटरनेट के गलत प्रयोग से विनाशकारी व अपराधी तत्वों के लिए यह अवसर उपलब्ध हो गया है कि वे बच्चों का यौन शोषण बड़ी आसानी से कर लें।