इस्लाम में बाल अधिकार- 6
बाल अधिकार मानवाधिकार का ही हिस्सा है।
मानवाधिकार को समझने के लिए ज़रूरी है कि इंसान को समझा जाए और बच्चे की विशेष स्थिति के मद्देनज़र उसकी पहचान की अहमियत बढ़ जाती है। बच्चे के अधिकार हैं लेकिन वह उनकी रक्षा में सक्षम नहीं होता। इसलिए बच्चे और परिणाम स्वरूप उसके अधिकार को पहचानने के लिए ईश्वरीय संदेश वहय की मदद बहुत प्रभावी है क्योंकि ईश्वरीय संदेश वहय बाल अधिकार को समझने के लिए व्यापक क्षितिज हमारे सामने खोलती है। इस विषय में हर चीज़ का ध्रुव ईश्वर की हस्ती है जिसने इंसान को पैदा किया और वही इंसान के वजूद के विभिन्न पहलुओं और उसकी ज़रूरतों से पूरी तरह अवगत है।
इस्लामी शरीआ में इंसान और उसके अधिकार को विशेष अहमियत दी गयी है। मानवाधिकार और इंसान की मर्यादा को अहमियत देना इस्लाम का अहम उद्देश्य है। मानव जीवन के आरंभ का सबसे अहम व मूल चरण बचपन है। इस्लामी शिक्षाओं में सभी बच्चों को चाहे लड़का हो या लड़की, निर्धारित अधिकार दिए गए हैं और सभी को उनके साथ हिंसक व निर्दयी व्यवहार से मना किया गया है। इस्लाम जिस दौर में आया है वह दौर इंसानों और उसके नतीजे में बच्चों के लिए बहुत ही हिंसा का दौर था। अरब प्रायद्वीप में ऐसी स्थिति में इस्लाम का उद्य हुआ कि उस अंधकारमय दौर में अरब बेटियों के वजूद को अपने लिए कलंक समझते और उन्हें जीवित क़ब्र में दफ़्न कर देते थे। पवित्र क़ुरआन की कुछ आयतों से तो यह अर्थ भी निकलता है बेटों की भी निर्धनता के डर से हत्या कर देते थे।
इस्लाम से पहले अरब और दूसरी जातियों के बीच बच्चों की स्थिति उचित नहीं थी और वे न्यूनतम अधिकार से भी वंचित थे। वे निर्धनता और जीवन निर्वाह के ख़र्च के डर से बच्चों को मार डालते थे। इस बीच बेटियों की स्थिति अधिक दयनीय थी। अरब में कुलीन वर्ग के लोग भी बेटियों के वजूद को अपने लिए कलंक समझते थे और उन्हें ज़िन्दा दफ़्न कर देते थे। जैसा कि इस बारे में ईश्वर पवित्र क़ुरआन के नहल सूरे की आयत नंबर 58 और 59 में कहता हैः "और जब उनमें से किसी को बेटी की शुभसूचना मिलती है तो उसके चेहरे का रंग काला पड़ जाता और वह क्रोध में डूबा रहता है। लोगों से छिपता फिरता है कि इस बुरी ख़बर के बाद किसी को क्या मुंह दिखाए, सोचता है कि अपमान के साथ बेटी को लिए रहे या मिट्टी में दबा दे, देखो कितना बुरा फ़ैसला है जो वे करते हैं।"
इस्लाम ने आकर न सिर्फ़ यह कि लोगों की इस बुरी आदत से रोका बल्कि समाज में बच्चों की अहमियत को बढ़ाया और मां बाप को बच्चों की हत्या से रोका और उन्हें बच्चों के साथ हमदर्दी करने पर बल दिया। पवित्र क़ुरआन के इसरा सूरे की आयत नंबर 31 में आया हैः "ग़रीबी के डर से अपनी संतानों की हत्या मत करो, हम उन्हें और तुम्हें रोज़ी रोटी देते हैं। जान लो कि उनकी हत्या करना बड़ा अपराध है।"
जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम फ़रमाते हैः "वह हम में से नहीं है जो छोटों पर दया न करे।"
बाल अधिकार के संबंध में पवित्र क़ुरआन में अनेक आयतें मौजूद हैं जो चिंतन मनन के लिए प्रेरित करती हैं। एक अहम बिन्दु जो बाल अधिकार के विषय पर चर्चा का मूल बिन्दु बन सकतो है। और जिसे इस्लाम ने बाल अधिकार कन्वेन्शन व बाल अधिकार घोषणापत्र से सैकड़ों साल पहले बयान किया है, वह निसा नामक सूरे की आयत नंबर 9 में है जिसमें ईश्वर मां बाप से कह रहा है कि वे ऐसा काम न करें जिससे बच्चा बीमार पड़ जाए, मुसीबत में घिरे, विक्लांग या मानसिक पिछड़ेपन का शिकार हो जाए। ईश्वर निसा सूरे की आयत नंबर 9 में कह रहा हैः "और उन लोगों को इस बात से डरना चाहिए कि वे अगर अपने बाद कमज़ोर व अक्षम संतान छोड़ जाते तो कितना परेशान होते, इसलिए ईश्वर से डरे और सीधी बात कहें।"
इस्लाम ने बच्चे के हर तरह के हित को सुनिश्चित बनाने के लिए कर्तव्य व नियम निर्धारित किए हैं। इन नियमों का पालन बच्चे के दुनिया में आने से बहुत पहले शुरु होता है। इस्लाम ने समाज को योग्य संतान हवाले करने के लिए जीवनसाथी के चयन के लिए नियम बताए हैं। इसी तरह मां के पेट में पलने वाले भ्रूण की रक्षा, स्वास्थ्य व विकास के लिए नियम निर्धारित किए हैं।
इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार, मां बाप के व्यवहार व शिष्टाचार का बच्चे की नैतिक विशेषताओं पर बहुत प्रभाव पड़ता है। क़ुरआन के कुछ व्याख्याकारों के अनुसार, पवित्र क़ुरआन ने इस तथ्य को ईश्वरीय दूत हज़रत नूह की ज़बान से बयान किया है। "और नूह ने कहा कि हे पालनहार! धरती पर किसी नास्तिक को रहने न दे क्योंकि अगर तूने उसे रहने दिया तो वे तेरे बंदों को गुमराह करेंगे और बुराई के सिवा कुछ नहीं करेंगे।"
इस्लाम ने गर्भधारण के लिए भी नागरिक अधिकार व नियम निर्धारित किए हैं और इस दौरान बच्चे का समर्थन किया और मांओं के अधिकार पर भी पूरा ध्यान दिया है। भ्रूण को जीने का अधिकार और उसका समर्थन, गर्भाधारण के लिए अनुशंसा, गर्भ में पल रहे बच्चे का मीरास पाना, गर्भवती महिला को दंड देने में विलंब करना ये सब बाल अधिकार हैं। गर्भवती महिला को दंड देने में विलंब पर इसलिए बल दिया गया है ताकि भ्रूण को किसी तरह का नुक़सान न पहुंचे।
इसी तरह इस्लाम में बच्चों की शारीरिक व मानसिक परवरिश पर भी बहुत बल दिया जुया है। जैसा कि विवाह की भावना, गर्भाधारण के समय मां के खान पान की शैली और बच्चों के शीरीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बहुत अनुशंसाएं की हैं। इस्लाम बल देता है कि परिवार का गठन सही आधार पर होना चाहिए ताकि स्वस्थ संतान की परवरिश में सफल हों।
अच्छे व सदाचारी संतान के पालन पोषण के लिए ज़रूरी है कि धर्मपरायण व नैतिक गुणों से सुशोभित जीवन साथी का चयन करे जो धार्मिक व सदाचारी परिवार में परवरिश पाया हो। भावी जीवन साथी के चयन में इन विशेषताओं को मद्देनज़र रखना, जीवन साथी के चयन के अहम बिन्दु हैं। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमायाः "चार बातों को मद्देनज़र रख कर जीवन साथी का चयन होता है। धन संपत्ति, कुल व परिवार, सौंदर्य और धर्मपरायणता। तुम लोग सदाचारी व धर्मपरायण जीवन साथी का चयन करो क्योंकि इससे बर्कत होगी।"
चूंकि बच्चा अपने अधिकार की रक्षा और उसकी प्राप्ति में सक्षम नहीं होता, इस्लाम ने मां, बाप, शासन और शासक पर बाल अधिकार की रक्षा पर बल दिया है। इस्लाम ने अनाथ बच्चों पर भी ध्यान दिया है और उनके लिए व्यवहारिक कार्यक्रम पेश किया है। अनाथ बच्चों की हालत पर धर्म में अहमियत, लोगों को अनाथ बच्चों के साथ अच्छे व्यवहार और उनके प्रशिक्षण के लिए प्रेरित करना, ऐसा समर्थन है जो इस तरह के बच्चों को बुरे रास्ते पर जाने से बचाता है।
एक जुमले में अगर बाल अधिकार के बारे में इस्लाम के उद्देश्य को बयान करना हो तो यह कहेंगे कि इस्लाम ने बच्चों के उच्च हितों को सुनिश्चित बनाया है। धार्मिक दृष्टि से मां बाप का कर्तव्य है कि बच्चों से संबंधित हर फ़ैसले में उनके हितों को मद्देनज़र रखें।
इस बिन्दु का उल्लेख भी ज़रूरी है कि इस्लाम ने 1400 साल पहले बाल अधिकार को अहमियत दी और इस संबंध में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पवित्र क़ुरआन में 216 आयतें मौजूद हैं। इसी तरह बाल अधिकार के संबंध में 3000 से ज़्यादा रवायतें मौजूद हैं। इसी तरह इस्लामी धर्मशास्त्र में बाल अधिकार के 60 विषयों पर चर्चा हुयी है। यह विशेषता इस्लाम को हासिल है कि उसने बाल अधिकार के संबंध में इतने विस्तार से चर्चा की है और इन सभी विषयों को स्पष्ट तरीक़े से बयान किया जाए तो यह बाल अधिकार को व्यवहारिक बनाने के लिए बहुत लाभदायक होगा।
इस्लाम ने उस समय बाल अधिकार का विषय उठाया जब न तो किसी तरह के संगठन या अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन का वजूद था कि बाल अधिकार की रक्षा करता। इस्लाम ने बच्चे की सभी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक ज़रूरतों के मद्देनज़र, बच्चों के बहुआयामी विकास की पृष्ठिभूमि मुहैया की है।