Jan २७, २०१९ १४:१७ Asia/Kolkata

आज की कड़ी में हम ईरान में तीसरी शताब्दी हिजरी क़मरी के मशहूर सूफ़ी हुसैन बिन मंसूर हल्लाज के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने अपने जीवन, अपनी बातों यहां तक कि अपनी मौत से दुनिया में बड़ी हलचल पैदा कर दी और शताब्दियों का समय बीत जाने के बावजूद आज भी ईरानी व पश्चिमी शोधकर्ता उनके बारे में लिख रहे हैं।

ईश्वर की याद में लीन रहने वाली इस हस्ती ने ईरान, भारत, तत्कालीन तुर्किस्तान, चीन और माचीन के शहरों में बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित किया।

प्राचीन फ़ारसी में मौजूदा चीन के सिन कियांग राज्य के अलावा क्षेत्रों को माचीन कहते थे।

पश्चिम एशिया के विशेषज्ञों सहित दूसरे विशेषज्ञों ने हुसैन बिन मंसूर हल्लाज को पहचनवाने के लिए बड़ी कोशिश की परंतु उसके बावजूद अभी भी उनकी वास्तविक शख़्सियत बहुत से आयाम स्पष्ट नहीं है। हल्लाज की शख़्सियत को समझने में मुश्किल की वजह यह है कि वह ईश्वर के प्रेम इतना डूबे हुए थे कि इस प्रेम के नतीजे में उनके सामने आत्मज्ञान व अध्यात्म के नए क्षितिज खुल गए थे। उन्हें ऐसे गूढ़ रहस्यों का पता चल गया था जिसकी वजह से उन्हें हल्लाजुल असरार अर्थात गूढ़ बातों की गुत्थियां सुलझाने वाला कहा गया। ऐसे रहस्यों के चिन्हों को भली-भांति उनके जीवन, उनकी बातों और उनके सद्कर्मों में देखा और समझा जा सकता है।

हुसैन बिन मंसूर हल्लाज के बारे में बहुत से शोधकर्ताओं ने शोध किए हैं लेकिन फ़्रांसीसी पूर्वविद लुई मासिन्यून ने उनके बारे में सबसे गहन शोध किया और इस बारे में उनकी रचनाएं बहुत महत्व रखती हैं।

हल्लाज का अस्ली नाम हुसैन और उनके पिता का नाम मंसूर था। प्राचीन किताबों व स्रोतों में हल्लाज की पैदाइश का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इस्लामी इनसाइक्लोपीडिया में उनके जन्म का साल 244 हिजरी क़मरी बराबर 858 ईसवी बताया गया है। फ़्रांस के तीन पूर्व विद लुई मासिन्यून ने अपनी किताब "हल्लाज की मुसीबतें", हेनरी कॉर्बिन ने इस्लामी दर्शनशास्त्र के इतिहास में और रोजे ऑर्नल्ड ने हल्लाज का मत नामक किताब में हल्लाज के जन्म का साल 244 या इसके आस- पास माना है परंतु इनमें से किसी भी किताब में इस दावे की सच्चाई में कोई दस्तावेज़ पेश नहीं किए गये हैं। ऐसा लगता है कि हल्लाज के जन्म का साल अनुमान पर आधारित है जिसके ज़रिए शोधकर्ताओं ने हल्लाज के जीवन की घटनाओं का अनुमान लगाया है। कुछ स्रोतों जैसे जामी की नफ़हातुल उन्स किताब और हल्लाज के बारे में की गयी शायरी में हल्लाज के जन्म का साल 248 हिजरी क़मरी बताया गया है।    

                  

                                      

हल्लाज का जन्म फ़ार्स प्रांत के बैज़ा शहर के उपनगरीय भाग में स्थित तूर नामक गांव में हुआ था। वह बचपन में ही अपने परिवार के साथ इराक़ के वासित नगर पलायन कर गए। हल्लाज शब्द का अर्थ रूई को बीज से अलग करने वाले या रूई धुनने वाले के हैं। शुरू में उनकी यही उपाधि थी और धीरे- धीरे उनका अस्ल नाम उनकी उपाधि के सामने दब गया।

हुसैन बिन मंसूर हल्लाज ने युवाकाल में ही इराक के वासित नगर को छोड़ दिया और प्रसिद्ध ईरानी परिज्ञानी सहल बिन अब्दुल्लाह का शिष्य बनने के लिए ईरान के दक्षिण में स्थित अहवाज़ नगर चले गये और वहां वह सहलिया विचारधारा के अनुयाई बन गये और वहां उन्होंने सूफावाद के सिद्धांतों को सीखा। इसके कुछ समय के बाद उन्होंने अहवाज़ को भी छोड़ दिया और सूफीवाद की परंपरा के खिलाफ अम्र बिन उसमान मक्की की शिष्यता ग्रहण करने की चाह में 262 हिजरी कमरी में वह बसरा चले गये और डेढ़ वर्षों तक वहां रहे और जो कुछ अपने ईरानी उस्ताद सहल बिन अब्दुल्लाह तुस्तरी से सीखा था वहां उसे अपने नये उस्ताद अम्र बिन उसमान मक्की की देख रेख में परिपूर्णता तक पहुंचाया। हुसैन बिन मंसूर हल्लाज के बारे में कहा गया है कि उन्होंने अपने नये उस्ताद को आश्चर्य चकित कर दिया था। उनके नये उस्ताद अम्र बिन उसमान मक्की ने अपने युवा शिष्य हुसैन बिन मंसूर हल्लाज के चेहरे में भलाई के चिन्ह देखे और अध्यात्म के क्षेत्र में उनके प्रसिद्ध होने की भविष्यवाणी की। यह वही समय था जब हुसैन बिन मंसूर हल्लाज ने अबू याकूब अकतअ की बेटी से विवाह कर लिया था। इस विवाह से उनके उस्ताद अम्र बिन उसमान मक्की प्रसन्न नहीं थे और यह विवाह उनके विरोध के बावजूद हुआ था जो उस्ताद और शिष्य के बीच मतभेद का कारण बना।

कहा जाता है कि अबू याकूब अकतअ और अम्र बिन उसमान मक्की के मध्य बसरा के सूफियों की अभिभावकता को लेकर प्रतिस्पर्धा चलती थी और उनमें से हर एक यह चाहता था कि हुसैन बिन मंसूर हल्लाज केवल उनका अनुसरण करे। हुसैन बिन मंसूर हल्लाज उन दिनों बसरा की जामेअ मस्जिद में पड़े रहते थे वहां वह उपासना करते और पवित्र कुरआन की तिलावत करते थे। वह अम्र बिन उसमान मक्की और अबू याकूब अकतअ के मध्य मतभेद से दुःखी थे और बसरा को छोड़ कर बगदाद चले गये और वहां वह प्रसिद्ध ईरानी परिज्ञानी जुनैद के शिष्यों में शामिल हो गये।

जुनैद की ख्याति दूर- दूर तक फैली हुई थी और हुसैन बिन मंसूर हल्लाज के दिमाग़ में बहुत सारे सवाल थे जिनके जवाब की वे खोज में थे। बहरहाल हुसैन बिन मंसूर हल्लाज जुनैद के शिष्यों में शामिल हो गये और जुनैद ने अपने नये युवा शिष्य को मौन धारण करने और एकांत में रहने का आदेश दिया और हल्लाज ने भी कुछ समय तक वैसे ही जीवन बिताया जैसे उनके उस्ताद जुनैद ने कहा था। यह वही समय था जब बगदाद और बसरा में ज़ंगियों का आंदोलन चल रहा था। इसी आंदोलन के कारण हुसैन बिन मंसूर हल्लाज ने इस नगर को भी छोड़ दिया और वह धार्मिक दायित्व हज के निर्वाह के लिए पवित्र नगर मक्का रवाना हो गये। एक वर्ष तक वह काबे के निकट रहे और मक्का के पहाड़ों के मध्य कठिन उपासना की। कहा जाता है कि इस दौरान वह केवल एक रोटी और एक घूंट पानी पर ही गुज़ारा करते थे और धूप से छाया में नहीं जाते थे। इसी प्रकार कहा जाता है कि यह वही समय था जब मक्का के सूफियों से उनकी दोस्ती हो गयी और वहां बहुत से लोग उनके अनुयाई हो गये। एक वर्ष के बाद हुसैन बिन मंसूर हल्लाज मक्का के अपने कुछ सूफी साथियों के साथ बगदाद और अपने उस्ताद जुनैद के पास लौट आये। इस आध्यात्मिक यात्रा के बाद लोगों ने उन्हें एक महान हस्ती के रूप में स्वीकार किया। कहा जाता है कि इस यात्रा के बाद हुसैन बिन मंसूर हल्लाज और उनके उस्ताद जुनैद के बीच परिज्ञान की दो परिभाषा सुकर और सहव को लेकर शास्त्रार्थ हुआ।  

 

कश्फुल महजूब और क़ैशरिया किताबों सहित कुछ प्राचीन किताबों में आया है कि सुकर और सह्व तीसरी शताब्दी हिजरी क़मरी में सूफीवाद की महत्वपूर्ण बहस थी। प्रसिद्ध ईरानी परिज्ञानी बायज़ीद बास्तामी सुकर के पक्षधर थे। उनका 261 हिजरी कमरी में निधन हो गया था जबकि जुनैद सह्व विचारधारा के पक्षधर थे। 297 हिजरी कमरी में जुनैद का भी निधन हो गया था। सुकर या मस्ती वह हालत है जिसका अनुभव विशेष परिस्थिति में परिज्ञानी करता है और सह्व या होशियारी वह हालत है जब परिज्ञानी निश्चेतना की हालत से सामान्य हालत में वापस आता है। इन दोनों परिभाषाओं के मध्य चर्चा चौथी हिजरी कमरी शताब्दी में सूफियों के मध्य अपने चरम पर थी और उसके नतीजे में तिफुरिया और जुनैदिया नाम की दो विचार धारायें अस्तित्व में आ गयीं। जो लोग बायज़ीद तीफूर बिन ईसा बस्तामी की सुकर विचारधारा का अनुसरण करते थे उन्हें तिफूरिया कहा जाने लगा जबकि जो लोग जुनैद की सह्व विचार धारा का अनुसरण करते थे उन्हें जुनैदिया कहा जाने लगा। बाइज़ीद बस्तामी की समाधि ईरान के शाहरूद नगर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बस्ताम उपनगर में है।

 

हुसैन बिन मंसूर हल्लाज सुकर विचार धारा के मानने वाले थे जबकि उनके उस्ताद जुनैद सह्व विचारधारा के पक्षधर थे। कहा जाता है कि इन दोनों विचार धाराओं को लेकर हुसैन बिन मंसूर हल्लाज और उनके उस्ताद जुनैद के मध्य जो शास्त्रार्थ हुआ वह हुसैन बिन मंसूर हल्लाज के दुःखी होने और बगदाद छोड़ने का कारण था। हुसैन बिन मंसूर हल्लाज को अपने उस्ताद से दुख पहुंचा था इसलिए हल्लाज अपने उस्ताद की अनुमति के बिना ईरान के दक्षिण में स्थित तुस्तर चले गये और वह एक साल तक वहां रहे। लोग उनसे प्रेम और उनका अनुसरण करने लगे। लोगों में यही उनका सम्मान इस बात का कारण बना कि अहवाज़ और तुस्तर में रहने वाले कुछ सूफी उनसे ईर्ष्या करने लगे। कहा गया है कि इसी ईर्ष्या के कारण उनके उस्ताद अम्र बिन उसमान मक्की ने उनके बारे में पत्र लिखा और ख़ुज़िस्तान में रहने वालों की नज़र में उन्हें बुरा बनाकर पेश किया। इस प्रकार के व्यवहार से हल्लाज बहुत क्षुब्ध व दुःखी थे। इसी प्रकार अपने अनुयाइयों के बर्ताव से भी हल्लाज का दिल टूट गया था। इन सब बातों से तंग आकर उन्होंने अपने शरीर से सूफी वस्त्र को उतार दिया और क़बा नाम का एक विशेष मोटा वस्त्र धारण करके सामान्य लोगों में रहने लगे और परिज्ञान एवं सूफीवाद को तिलांजलि दे दी परंतु ईर्ष्यालू लोगों ने इसके बावजूद उनका पीछा नहीं छोड़ा और उनके खिलाफ पत्र भी लिखते रहे। इससे वह तंग आकर पांच वर्षों तक लापता रहे और इस दौरान वह कुछ समय तक खुरासान और सेसोपोटामिया में रहे जबकि कुछ समय तक सीस्तान और फिर अहवाज़ आ गये और वहां लोगों से बात की तो बहुत से लोग उनके पास एकत्रित हो गये और उन सबने उन्हें हल्लाजुल असरार की उपाधि दी।