वाशिंग्टन ब्रिक्स से क्यों डरता है?
(last modified Tue, 08 Jul 2025 12:43:15 GMT )
Jul ०८, २०२५ १८:१३ Asia/Kolkata
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    वाशिंग्टन ब्रिक्स से क्यों डरता है?

पार्स टुडे - ब्रिक्स के निरंतर विस्तार और वैश्विक दक्षिण के प्रमुख देशों को शामिल करने के साथ, अमेरिका ने एक बार फ़िर इस गठबंधन को धमकी दी है।

व्हाइट हाउस की प्रवक्ता "कैरोलिन लेविट" ने स्पष्ट किया कि अमेरिका अब ब्रिक्स को केवल एक आर्थिक समूह के रूप में नहीं देखता बल्कि इसे अमेरिकी नेतृत्व वाले अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए ख़तरा मानता है।

 

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'ट्रूथ सोशल' पर एक पोस्ट में चेतावनी दी है कि कोई भी देश जो ब्रिक्स सदस्यों की अमेरिका-विरोधी नीतियों का समर्थन करेगा उस पर 10% अतिरिक्त टैरिफ़ लगाया जाएगा। इस नीति का कोई अपवाद नहीं होगा।"

 

व्हाइट हाउस के प्रवक्ता के बयान और अमेरिकी राष्ट्रपति के सोशल मीडिया पोस्ट वास्तव में वाशिंगटन की गहरी चिंता को दर्शाते हैं - एक नए बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के उदय की चिंता। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो अब पश्चिमी शक्तियों, विशेष रूप से अमेरिका के एकतरफा नियमों को स्वीकार नहीं करती, बल्कि दुनिया के उन देशों की आवाज़ को प्रतिबिंबित करना चाहती है जिन्हें अब तक नज़रअंदाज़ किया गया है।

 

लेकिन अमेरिका चिंतित क्यों है? दशकों से वैश्विक व्यवस्था अमेरिकी वित्तीय और राजनीतिक प्रभुत्व के तहत संचालित हुई है जहां छोटे देशों को वाशिंगटन द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर ही खेलना पड़ता था। इस पृष्ठभूमि में ब्रिक्स जैसे संगठनों का उदय, जो अमेरिकी प्रभुत्व से राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता पर आधारित हैं, स्वाभाविक रूप से अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देता है और वाशिंगटन की तीखी प्रतिक्रिया को जन्म देता है। ब्रिक्स के विस्तार के प्रति ट्रम्प की हालिया प्रतिक्रियाएं न केवल ताक़त की स्थिति से हैं, बल्कि एक गहरे डर को प्रकट करती हैं। एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के पतन और एक बहुध्रुवीय व्यवस्था के उदय का डर, जहां अमेरिकी इच्छाओं का पालन करना अब अनिवार्य नहीं रह जाएगा।

 

ब्रिक्स जो शुरुआत में केवल ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका से मिलकर बना था, आज एक विस्तारशील और प्रभावशाली भू-राजनीतिक गुट बन चुका है। यह समूह निम्नलिखित प्रमुख क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है:

 

डॉलर के प्रभुत्व का मुक़ाबला - अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन में डॉलर की निर्भरता कम करने के प्रयास

संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में सुधार - वैश्विक संस्थानों में अधिक समतामूलक प्रतिनिधित्व की मांग

स्वतंत्र वित्तीय संस्थानों का निर्माण - न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) जैसी संस्थाओं के माध्यम से

दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा - विकासशील देशों के बीच सीधे सहयोग को प्रोत्साहन

ब्रिक्स पारंपरिक पश्चिम-केंद्रित संस्थानों जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के विकल्प के रूप में उभर रहा है। हाल के रियो डी जनेरियो शिखर सम्मेलन में सदस्यों ने अमेरिकी डॉलर से स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली की आवश्यकता पर बल दिया।

 

व्यापारिक लेन-देन में स्थानीय मुद्राओं के उपयोग को बढ़ाने की मांग की

मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों का समूह में शामिल होना इसके प्रभाव क्षेत्र के विस्तार और पारंपरिक भौगोलिक-राजनीतिक सीमाओं के अतिक्रमण का प्रमाण है।

ब्रिक्स का यह विस्तार और विकास वाशिंगटन की चिंताओं को और बढ़ा रहा है।

विशेष रूप से विशाल ऊर्जा संसाधनों और महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक स्थिति वाले देशों के शामिल होने से।

 

अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में ब्रिक्स की सौदेबाजी की शक्ति में वृद्धि

संयुक्त राष्ट्र सुधार की मांग:

सुरक्षा परिषद के ढाँचे में बदलाव की मांग

वैश्विक मतदान प्रणाली में संशोधन की आवश्यकता

अमेरिका और उसके सहयोगियों के पारंपरिक वर्चस्व के लिए सीधी चुनौती

वैचारिक टकराव: अमेरिका: आर्थिक उदारवाद पर ज़ोर

ब्रिक्स: वर्तमान प्रणाली को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का अप्रासंगिक ढाँचा मानता है

 

ट्रम्प प्रशासन ब्रिक्स को अमेरिका-विरोधी गठबंधन के रूप में देखता है

शायद अब समय आ गया है कि वाशिंगटन दूसरों के आगे बढ़ने के डरने के बजाय, वैश्विक व्यवस्था में अपनी भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करे। यह नई व्यवस्था अब किसी एक महाशक्ति के प्रभुत्व में नहीं, बल्कि राष्ट्रों के बीच सहयोग और संतुलन पर आधारित होगी। mm