इस्लाम में बाल अधिकार- 7
जब बात बच्चों और उनके अधिकार की आती है तो इस विषय को दो दृष्टि से देखा जा सकता है।
एक यह कि बच्चा बच्चा होने के नाते कुछ अधिकार रखता है तो दूसरी ओर बच्चा होने के नाते कुछ अधिकार से वंचित होता है जैसे वोट देने का अधिकार।
चूंकि बच्चा भी समाज के अन्य लोगों की तरह मानवाधिकार से संपन्न है, इसलिए सवाल यह उठता है कि बच्चों के लिए विशेष अधिकार क्यों हो? दूसरे शब्दों में बाल अधिकार के आधार क्या हैं? इस विषय की समीक्षा के लिए ज़रूरी है कि बच्चा और परिवार व समाज में बच्चे के स्थान को पहचानें।
इस्लाम ने बच्चे की ज़रूरत के मद्देनज़र उसके समर्थन में विशेष नियम व क़ानून बनाए हैं ताकि बच्चे को उसके अधिकार मिल सकें, जैसे गर्भाधारण के समय बीवी का विशेष रूप से ध्यान रखना ताकि गर्भ में पलने वाला भ्रूण सही तरह विकसित हो, गर्भवती महिला का तलाक़ होने की स्थिति में पति पर उसके ख़र्च की ज़िम्मेदारी, पैदाइश के बाद उसे दूध पिलाने का अधिकार, बच्चे का मां बाप के साए में पलने के अधिकार से संपन्न होना, सही शिक्षा व प्रशिक्षण हासिल करने का अधिकार, उचित खान पान और स्वास्थ्य सेवा से संपन्न होने सहित और दूसरे बहुत से अधिकार, इन सब बातों से पुष्टि होती है कि सृष्टि के रचयिता ने बच्चों के बाल्यकाल की ज़रूरतों को पूरी तरह मद्देनज़र रखा है।
बाल्यकाल का बच्चे के लालन पालन और विकास में बहुत बड़ा रोल होता है इसलिए इस काल में बच्चों पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि बाल्यकाल में ही बच्चे का शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक व सामाजिक विकास होता है। बच्चे के विकास के लिए विशेष पृष्ठिभूमि का मुहैया होना उसके और समाज के लिए बहुत अच्छा परिणाम रखता है।
इस्लाम ने बच्चे के लिए बाल्यकाल के बहुत अधिक अहम होने की वजह से, मुसलमानों को अनेक निर्देश दिए हैं। यह विषय इतना अहम है कि इस्लाम ने उन पुरुषों व महिलाओं से जो शादी करना चाहते हैं, बहुत सी अनुशंसाएं की हैं क्योंकि परिवार का बच्चे के व्यक्तित्व बनने में बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इस्लाम की नज़र में मां बाप के व्यवाहर और उनकी पैदाइशी विशेषताओं का उनके बच्चों के व्यवहार पर बहुत अधिक असर पड़ता है क्योंकि बच्चों में मां बाप की अच्छी और बुरी बातें जन्मजात रूप से स्थानांतरित होती हैं।
पवित्र क़ुरआन में इस संदर्भ में अनेक सुबूत मौजूद हैं मिसाल के तौर पर ईश्वरीय दूत हज़रत नूह ने ईश्वर से प्रार्थना की कि किसी नास्तिक को धरती पर जीवित मत रख क्योंकि अगर वे बाक़ी रह गए तो तेरे बंदों को गुमराह करेंगे और उनकी नस्ल से सिर्फ़ बुरे व अवज्ञाकारी ही पैदा होंगे। हज़रत नूह की इस दुआ का पवित्र क़ुरआन के नूह सूरे की आयत नंबर 27 में वर्णन है। इसी तरह हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की पैदाइश की घटना, उस दौर के लोगों की ज़बान से मर्यम सूरे की आयत नंबर 28 में पेश किया है। जहां हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम पैदा हुए थे, वहां के लोगों ने उनकी मां हज़रत मर्यम को संबोधित करते हुए कहा थाः "हे हारून की बहन न तो तुम्हारा बाप बुरा था और न ही तुम्हारी मां चरित्रहीन थी।"
इस्लामी रवायत में भी बाल्यकाल की अहमियत पर बहुत अधिक बल दिया गया है। जैसा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम के 31वें पत्र में जिसमें उन्होंने अपने बेटे इमाम हसन अलैहिस्सलाम से फ़रमाया हैः "शिशु का दिल ख़ाली ज़मीन की तरह होता है, उसमें जो बीज बो दो उसे क़ुबूल कर लेती है। इसलिए मैंने इससे पहले कि तुम्हारा मन दूसरे मामलों में लगता और तुम्हारा प्रशिक्षण कठिन होता, मैंने तुम्हारा प्रशिक्षण किया।"
इसी तरह एक अन्य स्थान पर फ़रमाते हैः "बाल्यकाल में शिक्षा देना, पत्थर पर लकीर खींचने के समान है।"
गर्भाधारण के दौरान मां के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल और उसकी ज़रूरतों को पूरे करने पर बल दिया जाना, बाल्यकाल की अहमियत को दर्शाता है। बच्चों के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की अनुशंसाएं, बच्चे का नाम रखने से लेकर उनकी ज़रूरतों को पूरा करने तक और इसी तरह बच्चे के भविष्य पर विशेष रूप से ध्यान देने पर बल दिया जाना, बच्चे के बाल्यकाल के लिए इस्लाम के संपूर्ण व विस्तृत कार्यक्रम को दर्शाती हैं जिनमें बच्चे की पैदाइश के बाद, उसके लालन पालन और उसके उच्च हितों को दृष्टिगत रखा गया है।
बच्चों को अपेक्षाकृत लंबे समय तक देखभाल व मदद की ज़रूरत होती है। बच्चों की ज़रूरतों की आपूर्ति बस खाने पीने और कपड़े तक सीमित नहीं है बल्कि सुरक्षित वातावरण, अभिभावक विशेष रूप से मां बाप की ओर से प्रेम व स्नेह, उनके शिक्षा व प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान, वे मौलिक अधिकार हैं जिन्हें व्यवहारिक बनाने पर सृष्टि के रचयिता ने बल दिया है और ईश्वर ने संतान से प्रेम मां बाप की प्रवृत्ति में रखी है।
बाल्य अधिकार का एक और आधार, बाल्काल में बच्चे का सुरक्षित न होना है। बच्चे कम उम्र होने की वजह से सुरक्षित नहीं होते और उन्हें दूसरों ख़ास तौर पर मां बाप की मदद की ज़रूरत होती है। इसलिए बच्चे से विशेष नियम बनाकर उनके शारीरिक व मानसिक विकास व स्वास्थ्य के लिए कोशिश करनी चाहिए। शायद यह कहना ग़लत न होता कि मानव समाज के विभिन्न वर्गों में बच्चे कम उम्र होने की वजह से सबसे ज़्यादा असुरक्षित होते हैं। हर समाज में सबसे ज़्यादा असुरक्षित गुट महिला, वृद्ध और बच्चों का होता है कि इनमें से हर एक की मदद के लिए विशेष क़ानून की ज़रूरत है।
जब यह बात स्पष्ट हो गयी कि बच्चे को सबसे ज़्यादा ख़तरा होता है, तो ज़रूरी है कि उसके विकास के लिए उचित वातावरण मुहैया करें जिससे उसका अच्छी तरह विकास हो। बच्चों को इसी बात के मद्देनज़र शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक दृष्टि से सुरक्षित वातावरण देना चाहिए।
आम तौर पर जो बच्चे विभिन्न प्रकार के ख़तरों से असुरक्षित होते हैं वे या तो अनाथ होते हैं या फिर उनके अभिभावक बुरे होते हैं। अभिभावक के होने की वजह से बच्चे गंभीर ख़तरों की ज़द पर होते हैं। परिवार हर बच्चे के लिए संतोषजनक शरण स्थली हो सकता है। मां बाप से अलग होने की वजह से समाज में बहुत सी मुश्किलें पैदा होती हैं। जैसे मां बाप से अलग बच्चे सड़कों पर मारे मारे फिरते हैं। कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जिनके अभिभावक बुरे होते हैं। इस वजह से भी बच्चों को गंभीर नुक़सान पहुंचता है जिसकी भरपायी नहीं हो सकती। जो बच्चे क़ानूनी अधिकार से संपन्न नहीं होते, वे विभिन्न प्रकार की हिंसा, दुरुपयोग व शोषण का शिकार होंगे। इसलिए उचित क़ानूनी प्रावधान के ज़रिए इस असुरक्षित वर्ग को बड़ी सीमा तक सुरक्षा प्रदान की जा सकती है।
बच्चों की ज़रूरतें बड़ी उम्र के लोगों से अलग होती हैं। स्वाभाविक सी बात है कि बाल्यकाल की विशेष स्थिति के लिए विशेष तय्यारी की ज़रूरत होती है। मनोविज्ञान की दृष्टि से बच्चों की दुनिय बड़ी उम्र के लोगों से अलग होती है। बच्चे उन चिंताओं से दूर होते हैं जिनसे बड़े ग्रस्त होते हैं और वे ऐसे खेलों से आनंदित होते हैं जो बड़ों के खेल से भिन्न होते हैं। बच्चे ऐसी दुनिया में जीते हैं जो बड़ों की दुनिया से अलग होती है और उसका विशेष स्वरूप होता है। वे अलग माहौल में ख़ुद को और अपने आस पास के लोगों को पहचानते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि बच्चा बचपन को सही ढंग से बिताए ताकि उसका सही प्रशिक्षण हो और वह बड़े होकर सफल जीवन बिताए।
बचपन की विशेष ज़रूरतों पर ध्यान न देने से बच्चों को ऐसा नुक़सान पहुंचता है जिसकी भरपायी नहीं हो सकती जिसके नतीजे में उसका प्रभाव उसके भविष्य और समाज पर पड़ेगा। आज यह बात साबित हो चुकी है कि कम उम्र के बच्चों को सिर्फ़ शारीरिक देखभाल की ज़रूरत नहीं होती बल्कि उनके वजूद के सभी आयाम पर जैसे सामाजिक, भावनात्मक, व्यक्तित्व और बौद्धिक आयाम पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
इंसान का बच्चा जब पैदा होता है तो बहुत ही कमज़ोर होता है। उसे बड़ों की तुलना में अधिक देखभाल की ज़रूरत होती है। इस देखभाल का दायरा मां बाप से शुरु होकर, आस पास और फिर समाज तक पहुंचता है। यह देखरेख लालन पालन की सही शैली की जानकारी और सैद्धांन्तिक उपायों के इस्तेमाल सहित ज़रूरी संभावनाओं के बिना मुमकिन नहीं है। मनोविज्ञान की नज़र से बच्चे का विकास कई आयामी होना चाहिए, जैसे शारीरिक, भाषाई, भावनात्मक, सामाजिक और व्यक्तित्व की दृष्टि से विकास ज़रूरी है। इन आयामों और उनके अनुकूल उपायों के ज़रिए बच्चे की ज़रूरत को पूरा किया जा सकता है ताकि वह इस चरण से अच्छी तरह गुज़र जाए।
इसी तरह बच्चों की उम्र के अलग अलग साल की अलग अलग तरह की ज़रूरतें होती हैं कि इनमें से हर साल की एक या कई ज़रूरत होती है। मिसाल के तौर पर पैदाइश के समय से दो साल की उम्र तक बच्चे की शारीरिक ज़रूरतों को प्राथमिकता हासिल होती है जबकि लड़कपन में वह व्यक्तिगत आज़ादी उसकी मूल ज़रूरत होती है।