इस्लाम में बाल अधिकार- 8
परिवार हर समाज की मूल इकाई होते हैं और इनकी सबसे महत्वपूर्ण उपज और पैदावार वे बच्चे होते हैं जो हर समाज का भविष्य होते हैं।
इस्लाम में परिवार का गठन विभिन्न दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। स्वस्थ परिवार समाज की बका को सुनिश्चित बनाते हैं, परिवार का गठन जहां बच्चों के पालन- पोषण का केन्द्र होता है वहीं उससे मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकता की पूर्ति भी होती है। इसी तरह परिवार प्रेम का केन्द्र होता है। महिला और पुरुष का मानसिक दृष्टि से सुकून में होना बहुत ज़रूरी है विशेषकर उस समय जब वे बच्चा पैदा करने का इरादा रखते हैं। मानसिक दृष्टि से माता का सुकून में होना अधिक ज़रूरी है खासकर जब बच्चा गर्भ में हो। इसी तरह उस समय भी मां का मानसिक दृष्टि से सुकून में होना बहुत ज़रूरी है जब मां बच्चे को दूध पिला रही हो। बहरहाल एक स्वस्थ बच्चे को अस्तित्व में लाने के लिए माता- पिता का सुकून में वह चीज़ है जिसकी भूमिका व महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता।
इस संबंध में एक बात जो हैरत में डालती है वह यह है कि मानवाधिकार का घोषणा पत्र परिवार के गठन के संबंध में ख़ामोश है। अलबत्ता जो नागरिक और राजनीतिक अधिकार कन्वेन्शन है उसमें इस बात का उल्लेख किया गया है कि परिवार समाज का बुनियादी आधार है और समाज एवं सरकार को चाहिये कि उसका समर्थन करें। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि इस्लाम ने महिला के गर्भधारण से पहले ही इस पर ध्यान दिया है जबकि किसी भी अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज़ व घोषणापत्र में इस महत्वपूर्ण बिन्दु पर ध्यान नहीं दिया गया है यही नहीं बल्कि इस बात का भी उल्लेख नहीं किया गया है कि बचपने की शुरुआत कब से होती है।
समाज में अच्छे लोग हों और विवाह के परिणाम में अच्छे बच्चे पैदा हों इसके लिए इस्लाम धर्म ने जीवन साथी के चयन में बहुत सिफारिशें की हैं। साथ ही इस्लाम ने परिवार के सही होने और अच्छी पीढ़ी के अस्तित्व में आने के लिए सही विवाह पर बहुत बल दिया है।
बच्चों के अधिकारों के कन्वेन्शन और अंतरराष्ट्रीय घोषणा पत्र में इस बात का वर्णन ही नहीं किया गया है कि बचपने का आरंभ कब से होता है और अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज़ में केवल इस बात का उल्लेख है कि 18 साल की उम्र में बचपना समाप्त हो जाता है और वह भी इस शर्त के साथ कि अगर किसी देश में बचपना खत्म होने की उम्र इससे कम हो तो उसी कम उम्र को ही बचपना खत्म होने का मापदंड व समय समझा जायेगा। दूसरे शब्दों में इस अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज़ में भी यह बयान नहीं किया गया है कि बचपने की शुरुआत कब से होती है। इस आधार पर यह संभव है कि बचपने की शुरुआत उसी समय से हो जाती हो जब मां गर्भधारण करती है या बच्चा इस दुनिया में आता है।
चूंकि बच्चे के अस्तित्व में आने के लिए माता- पिता दोनों का अस्तित्व बहुत ज़रूरी है इसलिए इस्लाम ने जीवन साथी के चयन में बहुत बल दिया है ताकि स्वस्थ बच्चे अस्तित्व में आयें। जीवन साथी के चयन में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों की सिफारिशों में महत्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर संकेत किया गया है कि जिन पर ध्यान देकर शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित किया जा सकता है। क्योंकि बच्चों में वही सारी विशेषताएं व गुण होते हैं जो माता -पिता में होते हैं। पवित्र कुरआन ने इस गूढ़ बिन्दु को हज़रत नूह की ज़बान से बयान किया है। हज़रत नूह ने कहा कि हे पालनहार किसी भी काफिर को ज़मीन पर न रखना। क्योंकि अगर तू उनको बाकी रखेगा तो वे तेरे बंदों को गुमराह करेंगे।
दूसरी ओर पवित्र कुरआन माता -पिता को चेतावनी देता है कि वे इस प्रकार का कार्य न करें जिससे वे बच्चे के पिछड़ेपन, बीमारी और उनके दुर्भाग्य का कारण बनें। क्योंकि जैसाकि हमने कहा कि शारीरिक और मानसिक दृष्टि से बच्चों में वही विशेषताएं व गुण होते हैं जो उनके माता- पिता में होते हैं। परिणाम स्वरूप उन्हें अपने बच्चों के भविष्य के प्रति संवेदनशील होना चाहिये, सतर्कता से काम लेना चाहिये और व्यवहार में तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय व न्याय को ध्यान में रखना चाहिये।
बच्चे शारीरिक दृष्टि से मज़बूत हों इसके लिए इस्लाम ने निकट संबंधियों में विवाह करने की सिफारिश की है। इस संबंध में धर्मशास्त्र में दो दृष्टिकोण पाये जाते हैं और दोनों परस्पर विरोधी बाते करते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि निकट संबंधियों में विवाह करना एक अच्छा कार्य है जबकि कुछ दूसरे इस बिन्दु पर बल देते हैं कि बच्चों को शारीरिक दृष्टि से मजबूत होने के लिए निकट संबंधियों में विवाह नहीं करना चाहिये। अलबत्ता चूंकि अगर विवाह निकट संबंधियों में किया जाता है तो जेनेटिक बीमारियों की संभावना अधिक है इसलिए चिकित्सक भी दूसरे दृष्टिकोण का समर्थन करते और कहते हैं कि निकट संबंधियों में विवाह न किया जाये तो बेहतर है।
जीवन साथी का योग्य होना और पारिवारिक प्रतिष्ठा वह चीज़ है जिसकी इस्लाम धर्म ने अनुशंसा की है। चूंकि बच्चा, माता- पिता की विशेषताओं व गुणों का प्रतीक होता है इसलिए इस्लाम ने जीवन साथी के चयन पर बहुत बल दिया है। महान ईश्वर सूरे बकरा की 221वीं आयत में कहता हैः अनेकेश्वरवादी महिलायें जब तक ईमान न लायें तब तक उनसे विवाह न करो, निश्चित रूप से ईमानदार दासी अनेकेश्वरवादी महिला से बेहतर है यद्यपि उसकी सुन्दरता तुम्हें पसंद ही क्यों न हो और अनेकेश्वरवादी पुरुषों के साथ अपनी महिलाओं का विवाह न करो जब तक कि वे ईमान न लायें। निश्चित रूप से ईमानदार दास स्वतंत्र अनेकेश्वरवादी पुरुष से बेहतर है यद्यपि वह तुम्हें अच्छा ही क्यों न लगे, वे तुम्हें आग की ओर आमंत्रित कर रहे हैं और ईश्वर तुम्हें स्वर्ग और क्षमा की ओर बुला रहा है और वह अपनी आयतों को लोगों के लिए बयान करता है कि याद करें।
अच्छे व योग्य जीवन साथी के चयन के लिए पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों ने भी बहुत सिफारिशें की हैं। चूंकि महिला और पुरुष दोनों की विशेषताएं बच्चों में स्थानांतरित होती हैं इसलिए एक मिसाल महिला की जबकि दूसरी पुरुष की दी है। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं” उस हरियाली से परहेज़ करो जो कूड़ा करकट फेंकने की जगत पर उगती है। लोगों ने पैग़म्बरे इस्लाम से पूछा कि जो हरियाली कूड़ा करकट फेंकने के स्थान पर उगती है इससे आपका तात्पर्य क्या है? इस पर पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया” वह सुन्दर महिला है जो बुरे परिवार में जन्मी हो।
पुरुषों के बारे में भी इस बात पर बल दिया गया है कि एसे व्यक्ति से विवाह करें जो योग्य व अच्छा हो। अली बिन असबात नाम का व्यक्ति इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम के नाम पत्र में लड़कियों के विवाह के बारे में पूछते हैं। इमाम मोहम्मद बाकिर अलैहिस्सलाम उनके जवाब में पैग़म्बरे इस्लाम के एक कथन का हवाला देते हुए कहते हैं” जब कोई व्यक्ति मंगनी करे और उसका व्यवहार अच्छा हो और तुम उसके धार्मिक होने से संतुष्ट हो तो लड़की का विवाह उसके साथ कर दो और अगर एसा नहीं करोगे तो तुम ज़मीन में यानी समाज में बहुत बड़े फित्ने और बुराई का कारण बनोगे।
इस्लाम धर्म की शिक्षाओं में कुछ मर्दों और औरतों से विवाह करने से मना किया गया है। कुछ रवायतों में शराबी से विवाह करने से मना किया गया है क्योंकि उसका बच्चे पर सीधा प्रभाव पड़ता है। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं” अगर कोई अपनी भली लड़की का विवाह शराबी से करता है तो वह अपने इस कार्य से सिलये रहम अर्थात भलाई व संबंध का नाता तोड़ लेता है।
इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने यहां तक सिफारिश की है कि अगर किसी ने शराबी से विवाह कर भी दिया है तो कम से कम नशे की हालत में शारीरिक संबंध न बनाये। क्योंकि इस कार्य का सीधा प्रभाव पैदा होने वाले बच्चे पर पड़ता है। एक पश्चिमी विद्वान के शब्दों में मर्द या औरत के नशे की हालत में शारीरिक संबंध बनाना वास्तविक अपराध है क्योंकि जो बच्चे इस प्रकार की परिस्थिति में पैदा होते हैं उनमें से अधिकांश को निदान न होने वाली मानसिक एवं ग़ैर मानसिक समस्याओं का सामना रहता है। इसी प्रकार कुछ रवायतों में उस व्यक्ति से विवाह करने से मना किया गया है जिसका व्यवहार अच्छा न हो और वह अवगुणों का स्वामी हो। पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों और पवित्र कुरआन में भी आया है कि धर्मभ्रष्ट, बदअखलाक और उस व्यक्ति से विवाह करने से परहेज़ करो जो व्यभिचार में प्रसिद्ध हो और मंद बुद्धि का हो। कभी मासूम की सिफारिश इस प्रकार की है कि कुछ लोगों से विवाह करने से जो मना किया है उसका कारण वह बच्चा है जो इस प्रकार के संबंध से पैदा होता है। उदाहरण के तौर पर इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम एक मुसलमान मर्द का एक धर्मभ्रष्ट महिला से विवाह के बारे में फरमाते हैं” विवाह करने में कोई बात नहीं है परंतु इस संबंध से जो बच्चा पैदा होगा पत्नी से अधिक उसका ध्यान रखना पड़ेगा।“
इसी प्रकार जीवन साथी के चयन में दूसरी बहुत सारी सिफारिशें हैं जिनका ध्यान रखना चाहिये परंतु समय की कमी के कारण हम यहां उनका उल्लेख नहीं कर रहे हैं।
परिवार गठन करने का एक लक्ष्य मानव पीढ़ी को बाकी रखना है। जिस समय विवाह होता है उस समय पति- पत्नी ही परिवार के दो मूल स्तंभ होते हैं परंतु जब उनसे कोई बच्चा पैदा होता है तो वह परिवार का तीसरा स्तंभ हो जाता है। चूंकि माता- पिता की जो विशेषताएं व गुण होंते हैं विशेषकर माता की तो वही बच्चे में आते हैं इसलिए माता- पिता को कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहियि।
पहली बात यह है कि पति- पत्नी को उस समय बच्चा पैदा करना चाहिये जब दोनों बहुत बड़ी व संवेदनशील ज़िम्मेदार उठाने के लिए तैयार हों। दूसरे शब्दों में मानसिक और वैचारिक दृष्टि से भी वे बालिग़ हो चुके हों और उसके बाद बच्चा पैदा करने का फैसला लें और इस संबंध में कदम उठायें। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि वे यह देखें कि वे क्यों बच्चा पैदा करना चाहते हैं। पवित्र कुरआन की दृष्टि से परिवार का तीसरा स्तंभ यानी बच्चा ईश्वरीय उपहार है। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर ने उसके अंदर बड़ा होने की क्षमता व योग्यता रखी है और माता- पिता का दायित्व है कि वे अपने बच्चों का दिशा- निर्दरेशन इस मार्ग की ओर करें।