हुसैन बिन मंसूर हल्लाज- 4
ईश्वर की याद में लीन रहने वाली इस हस्ती के व्यक्तित्व से ईरान, भारत, तत्कालीन तुर्किस्तान, चीन और माचीन के शहरों में बड़ी संख्या में लोग प्रभावित हुए।
प्राचीन फ़ारसी में मौजूदा चीन के सिन कियांग राज्य के अलावा क्षेत्रों को माचीन कहते थे।
पश्चिम एशिया के विशेषज्ञों सहित दूसरे विशेषज्ञों ने हुसैन बिन मंसूर हल्लाज को पहचनवाने के लिए काफी प्रयास किया परंतु उसके बावजूद अभी भी उनकी वास्तविक शख़्सियत बहुत से आयाम से स्पष्ट नहीं है।
हल्लाज का अस्ली नाम हुसैन और उनके पिता का नाम मंसूर था। प्राचीन किताबों व स्रोतों में हल्लाज की पैदाइश का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इस्लामी इनसाइक्लोपीडिया में उनके जन्म का साल 244 हिजरी क़मरी बराबर 858 ईसवी बताया गया है। फ़्रांस के तीन पूर्व विद लुई मासिन्यून ने अपनी किताब "हल्लाज की मुसीबतें" हेनरी कॉर्बिन ने इस्लामी दर्शनशास्त्र के इतिहास में और रोजे ऑर्नल्ड ने हल्लाज का मत नामक किताब में हल्लाज के जन्म का साल 244 या इसके आस- पास माना है परंतु इनमें से किसी भी किताब में इस दावे की सच्चाई में कोई दस्तावेज़ पेश नहीं किए गये हैं। ऐसा लगता है कि हल्लाज के जन्म का साल अनुमान पर आधारित है जिसके ज़रिए शोधकर्ताओं ने हल्लाज के जीवन की घटनाओं का अनुमान लगाया है। कुछ स्रोतों जैसे जामी की नफ़हातुल उन्स किताब और हल्लाज के बारे में कहे गए शेर में हल्लाज के जन्म का साल 248 हिजरी क़मरी बताया गया है।
हल्लाज का जन्म फ़ार्स प्रांत के बैज़ा शहर के उपनगरीय भाग में स्थित तूर नामक गांव में हुआ था। वह बचपन में ही अपने परिवार के साथ इराक़ के वासित नगर पलायन कर गए। हल्लाज शब्द का अर्थ रूई को बीज से अलग करने या रूई धुनने के हैं। शुरु में उनकी यही उपाधि थी और धीरे- धीरे उनका अस्ल नाम उनकी उपाधि के सामने दब गया।
हल्लाज ने ज्ञान अर्जित करने के लिए युवाकाल से ही यात्रा आरंभ की और सहल बिन अब्दुल्लाह तुस्तरी, अम्र बिन उसमान मक्की और प्रख्यात ईरानी परिज्ञानी जुनैद नेहावंदी जैसे अपने समय के बड़े गुरूओं की शिष्यता ग्रहण की और उन सब के निकट एक होनहार शिष्य के रूप में विशेष स्थान प्राप्त किया। उसी समय उन्होंने पवित्र नगर मक्का की यात्रा की। ईरान के अहवाज़ और तुस्तर नगरों में बहुत से लोग उनके अनुयाई हो गये थे। कहा जाता है कि इसी चीज़ के कारण कुछ सूफी उनसे ईर्ष्या करने लगे और हल्लाज के खिलाफ पत्र लिखने लगे। सूफियों के इस कार्य से हल्लाज का दिल बहुत टूट गया और अपने शरीर से उन्होंने सूफी का वस्त्र उतार दियाउ और आम लोगों की तरह रहने लगे और सूफीवाद को तिलांजली दे दी।
हल्लाज ने सूफीवाद को तिलांजली देने के बाद बगदाद को छोड़ दिया और शुस्तर चले गये और वहां दो वर्षों तक रहे परंतु इसके बाद वहां भी वह न रहे और खुरासान और फार्स चले गये। इन यात्राओं के दौरान हल्लाज का कार्य लोगों को उपदेश देना और किताबों का लिखना रहा। कुल मिलाकर यह यात्राएं पांच वर्षों तक लंबी खींची और हल्लाज दूसरी बार 291 हिजरी कमरी में पवित्र नगर मक्का काबे के दर्शन के लिए गये। काबे का दर्शन करने के बाद वह बग़दाद चले गये और वहां वह एक वर्ष तक रहे। उसके बाद वह तीसरी बार काबे के दर्शन के लिए पवित्र नगर मक्का गये। इस बार वह समुद्र के रास्ते सबसे पहले भारत गये और वहां से तुर्किस्तान और फिर अंत में मक्का गये और दो वर्षों तक वहां रहे। मक्का के अरफात नामक मैदान में जिस तरह समस्त हाजी अपने सगे- संबंधियों का नाम लेते हैं ताकि महान ईश्वर उन पर अपनी दया व कृपा करे उसी तरह हल्लाज चिल्लाते और कहते थे” हे ईश्वर मुझे इससे अधिक निर्धन कर दे। मेरे पालनहार मुझे अपमानित कर ताकि लोग मुझ पर लानत करें। हे पालनहार! लोगों को मुझसे विरक्त कर दे ताकि मेरी ज़बान से आभार और शुक्र के लिए जो शब्द निकलें वह केवल तेरे लिए हों और मुझे तेरे अलावा किसी का एहसान नहीं चाहिये। इस यात्रा के बाद 296 हिजरी कमरी में हल्लाज बगदाद चले गये और वहां वह लोगों को उपदेश देने लगे।
कुछ शोधकर्ताओं ने यह सवाल किया है कि इन दस वर्षों में जब हल्लाह यात्रा पर थे और उन्होंने सूफियों से संबंध विच्छेद कर लिया था तो उनकी ज़िन्दगी कैसी थी और उनके विचार क्या थे? इस संबंध में बहुत रवायतें हैं। जैसाकि हमने पहले कहा था कि यह दौर मीठी और कड़वी घटनाओं से भरा है और इसी वजह से वास्तवकिता को समझना कठिन हो गया है। अध्ययनकर्ता ज़र्रीनकूब का मानना है कि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जिन चीज़ों ने हल्लाज पर मुकद्दमा चलाने, कारावास और उनकी मौत की भूमिका तैयार की उनमें से अधिकांश का संबंध उसी काल से है। उनका मानना है कि इन यात्राओं के दौरान हल्लाज का जो संबंध दूसरे धर्मों, संप्रदायों व मतों के लोगों से था वह उनके भविष्य के निर्धारण में प्रभावहीन नहीं था।
हल्लाज जब मक्का से बग़दाद लौटे तो वह तस्तरीन नामक क्षेत्र में रहने लगे और मस्जिदों एवं बाज़ारों में लोगों को उपदेश देना आरंभ किया और बहुत जल्द कुछ लोग उनके अनुयाई हो गये। कहा जाता है कि जब वह लोगों को उपदेश देते थे तो उनके उपदेश में सूफीवाद की विचारधारा की झलक दिखाई देती थी और और साथ ही वह महामुक्तिदाता इमाम महदी अलैहिस्सलाम के बारे में भी बात करते थे और चूंकि बगदाद में ख़लीफा के निकटवर्ती कुछ लोग भी हल्लाज के अनुयाई हो गये थे इसलिए हल्लाज के विरोधी और उनसे ईर्ष्या करने वाले भयभीत हो गये और उन्होंने उनकी गतिविधियों को रोके जाने और उनकी गिरफ्तारी की भूमि प्रशस्त कर दी। रोचक बात यह है कि बगदाद में खलीफा की मां भी हल्लाज के अनुयाइयों में थी। वास्तव में हल्लाज की जो बातें होती थीं उसके कारण बहुत से लोग उनके अनुयाई बन गये थे यहां तक कि कुछ अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि जादू और हाथ की सफ़ाई की तरह नज़र आने वाले हल्लाज के क्रियाकलाम की वजह से बहुत से आम लोग हल्लाज के अनुयाई बन गये थे। कहा जाता है कि जो विचित्र कार्य हल्लाज अंजाम देते थे वह परिज्ञानियों के विपरीत लोगों के सामने, सार्वजनिक स्थानों और बाज़ारों में अंजाम देते थे जिसे आज की भाषा में नज़रबंदी कहा जाता है। मासिन्यून और ज़र्रीनकूब जैसे अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि लोगों के ध्यान को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हल्लाज विचित्र कार्यों को अंजाम देते थे ताकि लोग उनकी बातों को सुनें। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि उनकी अधिकांश बातें महान ईश्वर के प्रेम और ईश्वर एवं इंसान के संबंध के बारे में होती थीं। हल्लाज जो लोगों को उपदेश देते थे उसका अंदाज भी लोगों के लिए नया था। वह एक बार अचानक क़तईया के बाज़ार में दिखाई दे पड़ जाते थे और रोने और चिल्लाने लगते थे और कहते थे कि हे लोगो ईश्वर से मुझे बचाओ! ईश्वर ने मुझे मुझसे छीन लिया है और वह मुझे लौटा नहीं रहा है। उसकी उपस्थिति को मैं सहन नहीं कर पा रहा हूं, उसके दूर होने से भयभीत हूं। धिक्कार हो उस पर जो उसके हाज़िर होने के बाद ग़ायब हो जाये और मुलाकात के बाद दूर हो जाये। लोग जब हल्लाज की इस प्रकार की बाते सुनते थे तो रोने लगते थे और मस्जिद में पहुंचने के तक उनके पीछे चलने लगते थे। जब वह मस्जिद में पहुंच जाते थे तो भाषण देना आरंभ करते थे और उनका कुछ भाषण लोगों की समझ में आता था और कुछ नहीं। इसी तरह वह दूसरे समय मस्जिद में खड़े हो जाते और भाषण देते और कहते थे” हे लोगो जब सत्य दिल पर विजयी हो जाता है तो ईश्वर के अलावा हर चीज़ उसमें मिट जाती है। जब ईश्वर किसी बंदे को दोस्त रखता है तो वह दूसरे बंदों को उसका दुश्मन बना देता है ताकि वह केवल उसकी ओर ध्यान दे और उससे प्रेम करे और उसके समीप हो जाये परंतु मेरी क्या हाल है? मैंने ईश्वर को समझा ही नहीं, मैं एक क्षण के लिए भी उसके समीप नहीं हुआ इसके बावजूद लोग मुझसे दुश्मनी करते हैं। उसके बाद वह रोने लगते थे और बाज़ार में जो लोग उनके पास होते थे और उनका भाषण सुन रहे होते थे वे भी रोने लगते थे पर हल्लाज अचानक हंसने लगते थे और ऊंची आवाज़ में शेर पढ़ने लगते थे। इसी प्रकार हल्लाज कभी मंसूर की जामेअ मस्जिद में हाज़िर हो जाते थे और लोगों से अपनी बात सुनने के लिए कहते थे और लोग भी उनकी बात सुनने के लिए एकत्रित हो जाते थे। उस वक्त वह लोगों को संबोधित करते हुए कहते थे” दोस्तो जान लो कि ईश्वर ने मेरे खून बहाने को तुम पर वैध कर दिया है तो मेरी हत्या कर दो। कुछ लोग हल्लाज की यह बात सुनकर रोने लगते थे। कोई कहता था कि हे महापुरूष किस तरह तेरी कोई हत्या कर सकता है जबकि तू नमाज़ पढ़ते है, रोज़ा रखता है और कुरआन पढ़ता है? तो हल्लाज कहते थे कि जिस चीज़ के लिए मेरा ख़ून बहाया जायेगा वह नमाज़- रोज़ा से उपर की चीज़ है और वह कुरआन पढ़ने से ऊपर की चीज़ है। मुझे मार दो तुम्हें इसका इनाम मिलेगा और मुझे आराम व शांति।
बहरहाल जो चीज़ें हल्लाज के बारे में बयान की गयी हैं वे सूफीवाद और अतिशयोक्ति से खाली नहीं हैं परंतु धार्मिक प्रचार-प्रसार में हल्लाज की विचित्र शैली उनके परिज्ञान की सूचक है।