शौर्य गाथा- 7
अस्सी का दशक ईरान के इतिहास में मूल व अमर परिवर्तनों का दशक है।
सत्तर के दशक के अंत में ईरान की इस्लामी क्रांति सफल हुई और अस्सी के दशक के अंत में सद्दाम शासन द्वारा इस्लामी गणतंत्र ईरान पर थोपा गया युद्ध समाप्त हुआ। यह युद्ध, अतिक्रमण के मुक़ाबले और क्रांति व देश की रक्षा के लिए ईरानी जनता के सभी वर्गों विशेष कर युवाओं के प्रतिरोध, शौर्य व बलिदान का प्रतीक बन गया और पवित्र प्रतिरक्षा के नाम से ईरानी जनता के मन में अमर हो गया। सद्दाम के बासी शासन द्वारा इस्लामी गणतंत्र ईरान की धरती पर हमले के आरंभिक दिन व महीने भी ईरानी जनता के शौर्य से भरे इतिहास में अमिट क्षण हैं। देश के पश्चिम व दक्षिण के अनेक गांव व शहर, इस हमले के आरंभिक दिनों में सद्दाम की सेना के अतिग्रहण में आ गए।
सद्दाम की सेना का हमला, इस्लामी क्रांति की सफलता के 19 महीने बाद शुरू हुआ था और इसी लिए ईरान की सेना इस हमले का जवाब देने की स्थिति में नहीं थी। यही कारण था कि जनता के सभी वर्ग सद्दाम के हमले का मुक़ाबला करने के लिए देश की सेना की मदद के लिए बाहर निकल आए। सद्दाम की सिर से पैर तक हथियारों से लदी सेना के मुक़ाबले में जिन शहरों के लोगों विशेष कर युवाओं ने प्रतिरोध का बेजोड़ उदाहरण पेश किया, उनमें से एक दक्षिणी नगर ख़ुर्रमशहर है। सद्दाम की सेना इस शहर की जनता के 34 दिनों के कड़े प्रतिरोध के बाद सितम्बर 1981 में ख़ुर्रमशहर पर क़ब्ज़ा कर पाई थी और 24 मई सन 1982 को ईरानी युवाओं द्वारा देश व क्रांति की रक्षा में अनुदाहरणीय शौर्य के प्रदर्शन से यह शहर आज़ाद हो गया था। यही कारण है कि ईरानी कैलेंडर में ख़ुर्रमशहर की आज़ादी के दिन को "प्रतिरोध दिवस" का नाम दिया गया है।
न्यूनतम सैन्य सुविधाओं के बावजूद ख़ुर्रमशहर के जियालों ने अपने प्रतिरोध से इराक़ की सेना को इस शहर के दरवाज़े पर रोके रखा। इराक़ी सेना यह सोच रही थी कि वह तीन दिन में पूरे ख़ूज़िस्तान प्रांत पर क़ब्ज़ा कर लेगी। सद्दाम के कमांडरों ने ख़ुर्रमशहर के लोगों के प्रतिरोध को तोड़ने के लिए इस शहर की घेराबंदी तंग करना शुरू कर दी। शहर के अंदर से हो रहे प्रतिरोध के कारण इराक़ के बहुत से सैनिक मारे गए और इराक़ी सेना की बढ़त बहुत धीमी हो गई लेकिन ख़ुर्रमशहर के लोगों को बाहर से मदद न मिलने और सैन्य उपकरणों व हथियारों की कमी के कारण इराक़ी सेना कारून नदी को पार करते समय ईरानी सेना के हमलों से बची रही और उसने यह नदी पार करके ख़ुर्रमशहर की घेराबंदी कड़ी कर दी।
इसके बाद दुश्मन के सैनिक शहर के अंदर घुस आए और शहर के केंद्र में स्थित जामा मस्जिद के निकट पहुंच गए। उस समय तक सभी समस्याएं ख़ुर्रमशहर की जामा मस्जिद में हल की जाती थीं। प्रतिरोधकर्ताओं तक रसद पहुंचाने, उन्हें विभिन्न स्थानों पर तैनात करने, आराम और घायलों के उपचार का काम ख़ुर्रमशहर की जामा मस्जिद में ही होता था। वस्तुतः ख़ुर्रमशहर की जामा मस्जिद शहर के प्रतिरोधकर्ताओं और युवाओं का कमांड सेंटर और उनके नैतिक व सामरिक पोषण का केंद्र थी।
ख़ुर्रमशहर में इराक़ी सैनिकों के घुसने के बाद, प्रतिरोधकर्ताओं को अनेक कठिनाइयों व समस्याओं का सामना करना पड़ा। न केवल यह कि उन तक ताज़ा दम सैनिक नहीं पहुंच पा रहे थे बल्कि मौजूद सैनिकों के शहीद या घायल होने के कारण धीरे-धीरे उनकी संख्या भी कम होती जा रही थी। इस स्थिति में यद्यपि प्रतिरोध जारी रखना बहुत कठिन था लेकिन शूर-वीरों के लिए शहर को छोड़ कर जाना अधिक कठिन प्रतीत हो रहा था। यही कारण था कि ईरानी युवाओं ने अपना प्रतिरोध जारी रखा और सोलह अक्तूबर तक वे लड़ते रहे। इस दिन ख़ुर्रमशहर, ख़ून के शहर में बदल गया। शहर के अंदर से जो ख़बरें आ रही थीं उनके अनुसार स्थिति संकटमयी हो गई थी और शहर पर जल्द ही क़ब्ज़ा हो सकता था।
ख़ुर्रमशहर के प्रतिरोधकर्ता अंतिम क्षण तक दुश्मन से लड़ते रहे और उन्होंने अपने प्रतिरोध व बलिदान से एक क्रांतिकारी और साथ ही दुखद शौर्यगाथा लिखी। बासी दुश्मन, जो आरंभ में ख़ुर्रमशहर पर क़ब्ज़े को बहुत ही आसान समझ रहा था और इसी लिए उसने इस शहर पर क़ब्ज़े के अभियान को पूरा करने के लिए केवल दो बटालियन भेजी थी, ख़ुर्रमशहर के साहसी प्रतिरोधकर्ताओं के मुक़ाबले के लिए दो अतिरिक्त डिविजन भेजने पर मजबूर हो गया। एक इराक़ी कमांडर ने अपनी सेना की इस विफलता के बारे में कहा था कि अगर कमान ने ईरान पर हमले का फ़ैसला किया था तो ज़रूरी था कि हमला करने वाली इकाइयों को सटीक सूचनाएं प्रदान की जातीं लेकिन संभावित प्रतिरोध के बारे में जो जानकारी दी गई थी वह सही नहीं थी। हमें बताया गया था कि ख़ुर्रमशहर में बहुत कम सैनिक हैं और इस पर कुछ ही घंटों में क़ब्ज़ा किया जा सकता है।
एसोशिएटेड प्रेस के पत्रकार एलेक्स एफ़नाए ने ख़ुर्रमशहर के उन कठिन किंतु साहसिक दिनों के बारे में लिखा हैः "ईरानी प्रतिरोधकर्ताओं ने अक्तूबर सन 1980 में इतने कड़े प्रतिरोध का प्रदर्शन किया कि ख़ुर्रमशहर पर इराक़ी सेना के क़ब्ज़े के बाद उसका नाम ख़ूनींशहर अर्थात रक्तरंजित नगर पड़ गया। ख़ुर्रमशहर में बड़ी मुश्किल से कोई ऐसा घर मिलेगा जिसकी दीवारों पर गोलियों या मार्टर गोलों के निशान न हों। यह इस बात का प्रमाण है कि ईरानी जवानों ने किस प्रकार एक एक घर करके इस शहर की रक्षा की थी। इराक़ के एक वरिष्ठ कमांडर ने उस समय कहा था कि ईरानियों ने, जिनमें से अधिकतर युवा व अनुभवहीन थे, अपनी अंतिम सांस तक ख़ुर्रमशहर की रक्षा के लिए प्रतिरोध किया।"
एक ध्यान योग्य बिंदु, नगर की रक्षा करने वाले गुटों में दृढ़ संकल्प वाली लड़कियों की भरपूर उपस्थिति थी। उन्होंने पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर इराक़ की सेना की कई बटालयनों व डिविजनों को 34 दिन तक ख़ुर्रमशहर के दरवाज़े के बाहर रोके रखा। सद्दाम की सेना उस समय ख़ुर्रमशहर में घुस पाई जब इस शहर के जवानों ने अपनी अंतिम गोली तक नगर की रक्षा की थी और शहीद हो गए थे। ख़ुर्रमशहर की 34 दिनों तक रक्षा, सद्दाम द्वारा ईरान पर थोपे गए आठ वर्षीय युद्ध के इतिहास के सबसे स्वर्णिम पन्नों में से एक है। इस नगर की रक्षा के बारे में बहुत सारी किताबें लिखी गई हैं जो बड़ी संख्या में कई कई बार प्रकाशित हुई हैं। इन किताबों और ख़ुर्रमशहर की रक्षा के क़िस्सों के बारे में कई फ़िल्में भी बनाई गई हैं। सद्दाम की सेना के अतिक्रमण के मुक़ाबले में ख़ुर्रमशहर के जवानों का 34 दिवसीय प्रतिरोध, ईरानी जनता के लिए प्रतिरोध का प्रतीक है। ख़ुर्रमशहर की रक्षा करने वालों के प्रतिरोध ने ईरान पर हमला करने और इस देश को बांट देने के संबंध में इराक़ के तानाशाह सद्दाम के समीकरणों को पूरी तरह से ग़लत सिद्ध कर दिया।