Apr २९, २०१९ १३:०७ Asia/Kolkata

हमने बच्चों की प्रशिक्षा के संबंध में कुछ बातें बयान की थीं।

कुछ माता-पिता बच्चों की प्रशिक्षा के लिए शारीरिक दंड को आवश्यक समझते हैं। स्पष्ट है कि प्रोत्साहन के मुकाबले में बच्चों की प्रशिक्षा का एक मार्ग शारीरिक दंड है। दूसरे शब्दों में बच्चों के प्रशिक्षण के लिए दंड आवश्यक है परंतु दंड से तात्पर्य यहां शारीरिक दंड है। यहां सवाल यह है कि क्या बच्चों के प्रशिक्षण के लिए उनके माता- पिता और कानूनी अभिभावकों के लिए शारीरिक दंड को वैध समझा जा सकता है?  अगर आज की दुनिया में बच्चों के प्रशिक्षण के लिए दंड का कोई दूसरा तरीका होता तो क्या तब भी शारीरिक दंड को वैध समझा जाता? कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि शारीरिक दंड से मूल पीड़ा का उपचार नहीं होता बल्कि वह पीड़ा के चिन्हों का उपचार अस्थाई रूप से करता है जबकि आज की दुनिया में कुछ लोगों का मानना है कि बच्चों के प्रशिक्षण की बेहतरीन शैली आज़ादी की शैली है। बच्चों के प्रशिक्षण के संबंध में जीन जैक रोसो Jean-Jacques Rousseau ने “एमिल" EMIL शीर्षक के अंतर्गत एक किताब लिखी है जो प्रशिक्षण के संबंध में पश्चिमी दुनिया में एक बहुत महत्वपूर्ण किताब समझी जाती है। जीन लाक के विपरीत रोसो का मानना है कि बच्चों के प्रशिक्षण के लिए आज़ादी बेहतरीन शैली है। रोसो अपनी किताब एमिल में लिखते हैं अगर दंड विशेषकर कठिन शारीरिक दंड का प्रयोग करते हैं तो वह भय जैसी दूसरी समस्याओं के अस्तित्व में आने का कारण बनेगा। मनोवैज्ञानिक और बच्चों की शिक्षा- प्रशिक्षा से जुड़े लोग इस बात पर एकमत हैं कि शारीरिक दंड बिल्कुल नहीं होना चाहिये बल्कि आवश्यकता पड़ने की स्थिति में कुछ सीमित दंड दिया जा सकता है? कुछ इस्लामी रिवायतों में भी बच्चों को शारीरिक दंड से मना किया गया है। एक व्यक्ति इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की सेवा में हाज़िर हुआ और उसने अपने बच्चे की शिकायत की। इमाम ने फरमाया कि अपने बच्चे को न मारो और उसे समझाने व शिष्टाचार सिखाने के लिए उससे गुस्से हो जाओ परंतु इस बात का ध्यान रखना  कि तुम्हारा गुस्सा लंबा न हो जाये और जितना जल्दी संभव हो अपना गुस्सा ठीक करके उससे सही से पेश आना। जो चीज़ यहां पर महत्वपूर्ण है और वह समस्या का समाधान करती है वह यह है कि बच्चों के प्रशिक्षण के लिए शारीरिक दंड का प्रयोग नहीं करना चाहिये जबकि कुछ रिवायतें इस बात की सूचक हैं कि ज़रूरत पड़ने पर सीमित पैमाने पर शारीरिक दंड दिया जा सकता है परंतु इमाम मासूम अलैहिस्सलाम के पावन जीवन में कभी भी इस शैली का प्रयोग नहीं किया गया है। उदाहरण के तौर पर यहां हम अनस बिन मालिक के हवाले से एक रिवायत पेश कर रहे हैं जिससे ऐसा प्रतीत क्षेत्र है कि वे बचपने में ही पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में थे। वह कहते हैं” मैं कई साल तक पैग़म्बर की सेवा में था परंतु उन्होंने कभी भी न तो मुझे बुरा- भला कहा और न ही शारीरिक दंड दिया।"

इसी प्रकार एक रियावत उम्मे सलमा के हवाले से आयी है। वे कहती हैं कि एक बार पैग़म्बरे इस्लाम का सेवक किसी काम से बाहर गया था। उसे वापस आने में देर हो गयी तो उन्होंने फरमाया अगर प्रलय के दिन से न डरता तो तुम्हें दतून व मिसवाक की इस लकड़ी से दंड देता। धर्मशास्त्र की दृष्टि से जिन धर्मशास्त्रियों ने शारीरिक दंड के वैध होने का फतवा भी दिया है उन्होंने इस बात को बल देकर कहा है कि शारीरिक दंड इतना होना चाहिये कि वह कम से कम धार्मिक दिया यानी धार्मिक सज़ा का कारण न बन जाये। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि कम से कम धार्मिक दंड शरीर का लाल हो जाना है और अगर शारीरिक दंड से शरीर का कोई अंग लाल हो जाता है तो दिया देना ज़रूरी हो जाता है।   

 

बालाधिकार कंवेन्शन में बल दिया गया है कि देशों को इस बात का प्रयास करना चाहिये कि वे अपने कानूनों को इस तरह बनायें और उनमें सुधार करें कि कम से कम हिंसा का भी प्रयोग बच्चों के प्रशिक्षण में न करना पड़े। बालाधिकार समिति ने इस बात पर बल दिया है कि परिवार, स्कूल या किसी कानूनी व न्यायिक संस्था में शारीरिक दंड कंवेन्शन से मेल नहीं खाता है। मिसाल के तौर पर बालाधिकार समिति की रिपोर्ट में आया है कि बच्चों की देखभाल, सुरक्षा और वांछित प्रशिक्षा की आवश्यकता है और बच्चे के साथ सम्मानजनक ढंग से व्यवहार किया जाना चाहिये और उसे न तो शारीरिक दंड दिया जाना चाहिये और न ही अपमान जनक शैली में उससे व्यवहार किया जाना चाहिये।

कुछ देशों के कानूनों में “समुचित या तार्किक शारीरिक दंड” में कहा गया है कि बालाधिकार समिति का मानना है कि कानून में इस सीमा तक भी शारीरिक दंड की बात नहीं होनी चाहिये क्योंकि उससे दुरुपयोग की भूमि प्रशस्त होती है जबकि स्पेन के नागरिक कानून के 154 वें अनुच्छेद में आया है कि माता- पिता तार्किक ढंग से सरल शारीरिक दंड अपने बच्चों को दे सकते हैं। बालाधिकार समिति को यहां इस वजह से चिंता है कि स्पेन के नागरिक कानून के 154वें अनुच्छेद की व्याख्या शायद इस प्रकार की जाये कि कहीं दंड को वैध न समझा जाने लगे।

इसी प्रकार तार्किक दंड शीर्षक के अंतर्गत ब्रिटेन की जो रिपोर्ट है उसकी भूमिका में इस बात का बचाव किया गया है। इस रिपोर्ट के आधार पर सरकार इस बात के प्रति प्रतिबद्ध होती है कि कन्वेन्शन में बच्चों के अधिकारों के संबंध में माता- पिता को जो अधिकार दिये गये हैं उसका वह सम्मान करेगी और सरकार का दृष्टिकोण यह है कि माता- पिता बच्चों को जो तार्किक व सरल शारीरिक दंड देते हैं वह भी इसमें शामिल है। अलबत्ता कड़े शारीरिक दंड को दुरुपयोग की संज्ञा दी गयी है और उसे अपराध समझा गया है।

 

धार्मिक शिक्षाओं में जिन चीज़ों पर बहुत बल दिया गया है उनमें से एक माता- पिता द्वारा बच्चे का धार्मिक प्रशिक्षण है। पिछले कार्यक्रमों में हमने इस बात की ओर संकेत किया था कि बच्चे के पैदा होने से पहले ही उसके व्यक्तित्व को स्वरूप देने में माता- पिता की भूमिका आरंभ हो जाती है। जिस धारणा के अंतर्गत बच्चे के पैदा होने से पहले ही उसके व्यक्तित्व को स्वरूप देने में माता- पिता की भूमिका आरंभ हो जाती है उसके अनुसार विवाह से पहले जीवन साथी का चयन, गर्भधारण करने की परिस्थिति और गर्भ धारण करने का काल आदि बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं। हम पहले इस बारे में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं इस बात के दृष्टिगत यहां हम संक्षेप में कुछ बिन्दुओं की ओर संकेत करना चाहते हैं।

बीवी- बच्चों को हलाल आजिविका खिलाने पर इस्लाम धर्म में बहुत बल दिया गया है। इसी प्रकार जब महिला गर्भावस्था में होती है तो पत्नी को हलाल आजीविका देने पर बहुत बल दिया गया है क्योंकि उसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पवित्र कुरआन के सूरे बकरा की 168वीं आयत में महान व सर्वसमर्थ ईश्वर कहता है" हे लोगो जो चीज़ ज़मीन में हलाल और पवित्र है उसमें से खाओ और शैतान का अनुसरण न करो कि वह तुम्हारा खुला हुआ दुश्मन है।"

परिणाम स्वरूप माता- पिता का हलाल भोजन खाना और इसी प्रकार गर्भावस्था के दौरान माता के खान-पान का बच्चे के स्वरूप और उसके भविष्य निर्माण में अपरिहार्य भूमिका है। इसी प्रकार जब बच्चा पैदा हो जाता है और वह शिशु होता है और माता का दूध पीता है तो उस समय भी माता के खान- पान की बच्चे के प्रशिक्षण में प्रभावी भूमिका है।

अधिकांश मनोवैज्ञानिक इस बात पर एकमत हैं कि बच्चे की शिक्षा- प्रशिक्षा का आरंभ बाल्याकाल से होना चाहिये। यह वह चीज़ है जिस पर इस्लाम में भी बहुत बल दिया गया है। मनोवैज्ञानिक अध्ययन इस बात के सूचक हैं कि जब बच्चे लगभग चार साल के होते हैं तो उनके अंदर धार्मिक आभास उत्पन्न होने लगते हैं। वास्तव में महान ईश्वर और ब्रह्मांड की रचना के बारे में बच्चों में जिज्ञासा इसी उम्र में उत्पन्न होने लगती है और बच्चों की शिक्षा -प्रशिक्षा के बारे में जो रवायतें हैं उनमें भी इस चीज़ को देखा जा सकता है। इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम फरमाते हैं" जब बच्चा तीन साल का हो जाये तो उसे ला एलाहा इल्लल्लाहो कहना सिखाओ और उसे छोड़ दो। यानी इस उम्र में इतना ही काफी है और जब तीन साल सात महीने का हो जाये तो उसे मोहम्मद रसूलल्लाह कहना सिखाओ और उसके बाद उसे छोड़ दो यहां तक कि वह चार साल का हो जाये। जब वह चार साल हो जाये तो उसे सलवात पढ़ना सिखाओ और जब वह पांच साल का हो जाये तो उसे दाहिना और बायां सिखाओ और उसे किबले की दिशा बताओ और सज्दा करने के लिए कहो। इसके बाद 6 साल तक उसे छोड़ दो और केवल उसके सामने नमाज़ पढ़ो और उसे रुकूअ और सजदा करना सिखाओ यहां तक सात साल का पूरा हो जाये। जब सात साल बीत जाये तो उसे वुज़ू करना सिखाओ और उससे नमाज़ पढ़ने के लिए कहो यहां तक कि वह नौ साल का हो जाये तो वुज़ू करना और नमाज़ पढ़ना अच्छी तरह से सीख चुका हो और जब वह इन दोनों चीज़ों को अच्छी तरह से सीख ले तो ईश्वर इन चीज़ों को सिखाने के बदले में उसके माता- पिता के पापों को क्षमा कर देगा।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जब बच्चे की उम्र बढ़ने लगती है तो उसमें धार्मिक आभास और भावनाएं अस्तित्व में आने लगती हैं। पहले चरण में धार्मिक भावना व आभास में वृद्धि होती है दूसरे चरण में जिन धार्मिक चीज़ों की शिक्षा ग्रहण कर चुका होता है उसमें असमंजस की स्थिति पैदा होती है जबकि तीसरे चरण में जो असमंजस की स्थिति होती है उसमें सवाल पैदा होने लगते हैं। बच्चों के अंदर पैदा हुई इस स्थिति की पहचान और उनके प्रश्नों पर ध्यान देना बहुत महत्वपूर्ण है। कभी -कभी माता- पिता बच्चों की इस स्थिति और उनके धार्मिक प्रश्नों पर उचित ढंग से ध्यान नहीं देते हैं तो उनका यह कार्य इस बात का कारण बनता है कि बच्चे हमेशा के लिए धर्म से दूर हो जाते हैं।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने शिक्षा- प्रशिक्षा के संबंध में जो शैली अपनाई उससे यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि प्रशिक्षा का मूल उद्देश्य संतान को महान ईश्वर के आदेशों का आज्ञापालक बनाना है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने एक कथन बयान करके परोक्षरूप से स्पष्ट कर दिया है कि प्रशिक्षा का मूल उद्देश्य संतान को महान ईश्वर के आदेशों का पालन करने वाला बनाना है। इमाम ने बच्चों के प्रशिक्षण के लिए सर्वोत्तम शैली अपना कर इस उद्देश्य को व्यवहारिक बना दिया। दिवंगत इब्ने शहर आशूब हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हवाले से लिखते हैं" मैंने ईश्वर से अपने लिए सुन्दर चेहरे वाली और अच्छे शरीर वाले संतान की प्रार्थना नहीं की है बल्कि हमने ईश्वर से एसे संतान की प्रार्थना की है जो उसके आदेशों का पालन करे और उससे डरे ताकि जब इन गुणों से सुसज्जित संतान को मैं देखूं तो मुझे शांति मिले।"

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