May १२, २०१९ १२:१० Asia/Kolkata

सऊदी अरब, संयुक्त अरब इमारात और बहरैन ने एक जैसी विदेश नीति अपना रखी है और आंतरिक स्तर पर भी उनके यहां एक जैसे हालात हैं।

सिर्फ़ इस अंतर के साथ कि सऊदी अरब में सामाजिक आज़ादी यूएई और बहरैन की तुलना में कम है। इन देशों ने पुलिसिया नीति अपना रखी है और सामाजिक व राजनैतिक हालात को पुलिसिया नज़र से देखते हैं।

सऊदी अरब, तानाशाह के क़िले के नाम से कुख्यात है। इस देश में 2015 में मोहम्मद बिन सलमान के सत्ता के दायरे में आने के बाद से मानवाधिकार की स्थिति और ख़राब हो गयी है। एक अमरीकी संस्था ने वर्ष 2018 में इस बात की ओर इशारा करते हुए कि सऊदी अरब में शाही शासन लगभग सारे राजनैतिक अधिकारों को सीमित कर रहा है, इस दृष्टि से सऊदी अरब को देशों की दर्जाबंदी में सबसे नीचे रखा है। लो-ब्लॉग वेबसाइट ने फ़रवरी 2019 में एक रिपोर्ट में बतायाः "सऊदी अरब को मध्ययुगीन शताब्दी की राजशाही व्यवस्था के रूप में देखा जाता है कि जिसकी लगाम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अस्थिर मनोदशा वाले शहज़ादे के हाथ में है, जो यमन में आम लोगों को बम्बारी और भूख का निशाना बना रहा है, महिला मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल में डाल रहा है, अपने आलोचकों को आरी से टुकड़े टुकड़े कर रहा है, वहाबियत को दुनिया में फैला रहा है और आतंकवाद के वित्तीय पोषण व काले धन के ख़िलाफ़ संघर्ष में साथ नहीं दे रहा है।"

आले सऊद शासन किसी भी तरह की आलोचना को सुनने के लिए तय्यार नहीं है क्योंकि इस देश में शासन व्यवस्था पुलिसिया नीति पर आधारित है। यही वजह है कि सऊदी अरब में मानवाधिकार के उल्लंघन की सबसे ज़्यादा घटनाएं राजनैतिक कार्यकर्ताओं की मनमाने तरीक़े से गिरफ़्तारी से भरी हुयी हैं। जबसे मोहम्मद बिन सलमान सऊदी में युवराज बने हैं, दसियों उद्योगपतियों, धर्मगुरुओं और शहज़ादों को जेल में क़ैद करवा चुके हैं। सिर्फ़ पिछले साल सऊदी अरब में 3000 से ज़्यादा राजनैतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया है। इस समय सऊदी अरब की जेलों में 30 हज़ार से ज़्यादा राजनैतिक क़ैदी हैं।

सऊदी अरब में राजनैतिक क़ैदी, आले सऊद की सिर्फ़ आलोचना करने की वजह से जेल में बंद हैं। ये बिना किसी मुक़द्दमे के वर्षों से जेल में बंद हैं। इस संबंध में ह्यूमन राइट्स वॉच ने 2018 में कहा कि सऊदी शासन ने हज़ारों लोगों को बिना मुक़द्दमे के जेल में बंद कर रखा है। इस संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, कुछ क़ैदी तो 10 साल से ज़्यादा समय से सऊदी अरब में जेल में बंद हैं।

आले सऊद शासन की आलोचना करने वाले आलोचकों व कार्यकर्ताओं के दमन का नया रूप अक्तूबर 2018 मे सामने आया जब इस शासन के सुरक्षा कर्मियों ने युवराज मोहम्मद बिन सलमान के आदेश पर आलोचक पत्रकार जमाल ख़ाशुक़जी की 2 अक्तूबर 2018 को इस्तांबूल में सऊदी अरब के वाणिज्य दूतावास में बहुत ही निर्मम तरीक़े से हत्या की और उनके शव का क्षत विक्षत कर दिया। यद्यपि ख़ाशुक़जी की हत्या सऊदी कार्यकर्ताओं के लिए हैरत की बात नहीं थी लेकिन यह घटना सऊदी अरब से बाहर सऊदी कार्यकर्ताओं के लिए एक चेतावनी थी कि सऊदी राजशाही शासन अपने परिवार के सदस्यों को दबाव के हथकंडे के तौर पर इस्तेमाल करने की क्षमता रखता है।

अख़बार द गार्डियन में निक हॉप्किन्ज़, स्टीफ़नी क्रिचगास्नर और करीम शाहीन ने एक रिपोर्ट में लिखा है कि सऊदी सरकार की ओर से महिला और पुरुष क़ैदियों को यातना के इंकार के विपरीत, राजनैतिक क़ैदी मारे पीटे जाते हैं। इन क़ैदियों के शरीर पर जलने के निशान और चेहरे से कुपोषण जैसी यातनाओं को देखा जा सकता है।             

सऊदी अरब में महिला अधिकार नाम की कोई चीज़ नहीं है। मोहम्मद बिन सलमान ने युवराज के रूप में नियुक्त होने के बाद, महिला को गाड़ी चलाने का अधिकार दिया है। 2017 के दूसरे अर्ध तक सऊदी अरब में महिलाओं को गाड़ी का अधिकार भी हासिल नहीं था। इससे पहले के वर्षों में सऊदी अरब में औरतों को मतदान का अधिकार भी हासिल नहीं था। भूतपूर्व शासक अब्दुल्लाह ने अरब देश में जनविद्रोह शुरू होते ही महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया लेकिन अभी भी यह अधिकार सही रूप में प्रकट नहीं हुआ है। मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने रिपोर्ट में बताया कि सऊदी औरतों को सुनियोजित रूप से भेदभाव का सामना है और यौन उत्पाडन सहित नाना प्रकार की हिंसा से उनकी रक्षा काफ़ी नहीं है। जून 2018 में टॉमसन रोयटर्ज़ संस्था द्वारा कराए गए सर्वे में हिंसा व भेदभाव जैसे तत्वों की दृष्टि से सऊदी अरब औरतों के लिए दुनिया के 5 सबसे ख़तरनाक देशों में शामिल है।

इसके साथ ही सऊदी अरब में धार्मिक अल्पसंख्यकों जैसे शिया संप्रदाय को मानवाधिकार के सुनियोजित रूप से उल्लंघन का सामना है। सऊदी अरब में अन्य संप्रदायों की तुलना में धार्मिक अल्पसंख्यकों को सीमितताओं का सामना है। सऊदी शासन ने पिछले साल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्षेत्र में बहुत सीमित्ताएं लागू करने के अलावा कार्यकर्ताओं और विरोधियों की बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारी की और धार्मिक अल्पसंख्यकों का बुरी तरह दमन किया। सऊदी अरब में शिया अल्पसंख्यक न सिर्फ़ राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से भेदभाव का शिकार हैं बल्कि उन्हें कठोर सांस्कृतिक व धार्मिक भेदभाव का भी सामना है। जैसा कि उन्हें धार्मिक सभाओं के आयोजन की इजाज़त नहीं है। इसके अलावा सऊदी शासन ने देश के पूर्वी क्षेत्र के शहरों के आधुनिकीकरण के बहाने, इस क्षेत्र की आबादी को दूसरे क्षेत्रों की ओर पलायन करने पर मजबूर कर दिया है और वह इस क्षेत्र की जनांकिकीय संरचना को बदलना चाहता है।

सऊदी अरब में इस दयनीय स्थिति के मद्देनज़र मार्च 2019 को सऊदी अरब में मानवाधिकार की स्थिति की आलोचना में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के प्रस्ताव पर कम से कम 36 देशों ने दस्तख़त किए जिनमें 28 योरोपीय संघ के सदस्य देश हैं। यह वर्ष 2006 में इस परिषद के गठन के बाद से सऊदी अरब में मानवाधिकार के उल्लंघन की आलोचना पर आधारित पहला प्रस्ताव था।संगीत

यूएई या संयुक्त अरब इमारात और बहरैन के मानवाधिकार के क्षेत्र में कर्मपत्र काली करतूतों से भरे पड़े हैं। ह्यूमन राइट्स वॉच ने जनवरी 2019 में अपनी सालाना रिपोर्ट में अन्याय, विरोधियों के संबंध में असहिष्णुता, दमन, अन्यायपूर्ण मुक़द्दमों और यमन में युद्ध अपराध को यूएई द्वारा मानवाधिकार के उल्लंघन कि मिसालें बतायीं। इस रिपोर्ट में आया है कि यूएई यमन में सऊदी गठबधंन के सैन्य हमलों में बड़ा रोल अदा कर रहा है।

यूएई में भी हज़ारों राजनैतिक क़ैदी जेल में बंद हैं जिन्हें सत्ताधारी परिवार की ओर से कड़ी यातनाओं का सामना है। यूएई में बहुत से राजनैतिक क़ैदियों को अकेले अलग अलग सेल में बंद किया गया है। एम्नेस्टी इंटरनैश्नल काल कोठरी को यातना मानती है। यूएई के सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2018 के अंतिम घंटों में अहमद मंसूर को 10 साल क़ैद की सज़ा के आदेश और उन पर लगाए गए 10 लाख के जुर्माने की पुष्टि की। मानवाधिकार कार्यकर्ता अहमद मंसूर को 2017 में गिरफ़्तार में किया गया। उन पर ट्वीटर में यूएई सरकार के ख़िलाफ़ झूठा प्रचार करने का इल्ज़ाम लगाया गया। मानवाधिकार संस्थाओं ने उन्हें यातनाएं देने की सूचना दी थी। जिस दौरान अहमद मंसूर के ख़िलाफ़ मुक़द्दमे की कार्यवाही चल रही थी, उस दौरान सारी कार्यवाही गुप्त तरीक़े से अंजाम पायी। एम्नेस्टी इंटरनैश्नल ने अहमद मंसूर को सुनायी गयी सज़ा की पुष्टि करते हुए कहा कि यह फ़ैसला यूएई में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने के समान है और इससे पता चलता है कि यूएई में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माहौल नहीं है। यूएई ने ऐसी स्थिति में अहमद मंसूर और उनके जैसों को लंबी अवधि की क़ैद की सज़ा सुनायी कि एक ब्रितानी नागरिक को जिस पर जासूसी का इल्ज़ाम था और उसे उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी गयी थी, आम क्षमादान के ज़रिए रिहा कर दिया।                           

बहरैन एक छोटा देश है लेकिन मानवाधिकार के उल्लंघन की नज़र से दुनिया के सबसे बुरे देशों में गिना जाता है। बहरैन में नागरिकों की शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में भाग लेने की वजह से गिरफ़्तारी, यातना और नागरिकता ख़त्म होना एक आम बात है। मानवाधिकार व आज़ादी के समर्थक अंतर्राष्ट्रीय केन्द्र के अनुसार, बहरैन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए बहुत ही ख़तरनाक जगह है।

बहरैन में कार्यकर्ताओं, राजनेताओं और धर्मगुरुओं पर बिना किसी सुबूत के आतंकवाद का समर्थन करने जैसे निराधार इल्ज़ाम लगाकार सैन्य अदालत में दिखावटी मुक़द्दमा चलाया गया और उन्हें फांसी, उम्र क़ैद और लंबी अवधि की क़ैद जैसी सज़ा सुनायी गयी। पश्चिम एशिया में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयुक्त हैसम अबू सईद का कहना है कि बहरैनी अधिकारी अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्रों का जिन पर उनके दस्तख़त हैं, पालन नहीं कर रहे हैं और उन कमेटियों के साथ सहयोग नहीं कर रहे हैं जिन्हें बहरैन में अन्यायपूर्ण तरीक़े से जेल में क़ैद लोगों के बारे में जांच के लिए भेजा गया है। हैसम अबू सईद का कहना है कि आले ख़लीफ़ा शासन का न्याय तंत्र विरोधियों को बड़ी बर्बरतापूर्ण यातना देता है जिन्हें शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।

बहरैन के मानवाधिकार केन्द्र के प्रमुख नबील रजब को वर्ष 2018 के अंतिम घंटों में 5 साल क़ैद की सज़ा सुनायी गयी। उनका जुर्म सिर्फ़ इतना था कि उन्होंने यमन के ख़िलाफ़ सऊदी गठबंधन और बहरैन में जेलों में यातना दिए जाने की निंदा की थी। नबील रजब वर्ष 2011 के बाद से बहरैन में मानवाधिकार की स्थिति की आलोचना की वजह से जेल में क़ैद थे। एम्नेस्टी इंटनैश्नल ने नबील रजब के ख़िलाफ़ आदेश को लज्जाजनक व न्याय का अपमान क़रार दिया।

बहरैन में मानवाधिकार के उल्लंघन की एक और घटना आले ख़लीफ़ा शासन द्वारा इस देश के नागरिकों की नागरिकता का निरस्त करना है। बहरैन में वर्ष 2012 से अब तक लगभग 1000 लोगों की नागरिकता छिन चुकी है। शैख़ ईसा क़ासिम जो बहरैन के वरिष्ठ धर्मगुरु हैं, आले ख़लीफ़ा शासन ने आतंकवाद का समर्थन करने का दावा करते हुए उनकी नागरिकता ख़त्म कर दी और वे एक तरह का देशनिकाला का जीवन बिता रहे हैं

सऊदी अरब और यूएई राष्ट्रीय स्तर पर अपने नागरिकों के अधिकारों और विदेशी मज़दूरों के अधिकारों का हनन करने के साथ साथ विदेश नीति में भी मानवाधिकार का इतना ख़तरनाक उल्लंघन कर रहे हैं कि उन पर युद्ध अपराध करने का इल्ज़ाम लगा है। यह स्थिति यमन में देखी जा सकती है। सऊदी अरब ने यूएई के साथ मार्च 2015 से यमन पर जंग थोप रखी है जिसमें अब तक 60 हज़ार यमनी हताहत व घायल हुए हैं।

यमन के अलवा दूसरे अरब देशों के मामले में भी सऊदी अरब और यूएई हस्तक्षेप कर रहे हैं। ये दोनों देश सूडान और लीबिया में मानवाधिकार के उल्लंघन के लिए ज़िम्मेदार हैं। सूडान में सऊदी अरब और यूएई सैन्य सरकार का गठन चाहते हैं जबकि सूडानी जनता अपनी क्रान्ति को सफल बनाकर नागरिक सरकार को सत्ता में लाना चाहती है। लीबिया में सऊदी अरब और यूएई ख़लीफ़ा हफ़्तर का साथ दे रहे हैं जिसने राजधानी त्रिपोली पर 4 अप्रैल से हमला शुरु किया है जिसमें रिपोर्ट मिलने तक 278 लोग मारे गए, 1300 घायल हुए और 35000 लोग बेघर हो चुके हैं।

 

 

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