Aug ११, २०१९ १६:२३ Asia/Kolkata

हमने बताया था कि ईरान के विभिन्न नगरों में विशेष प्रकार के किले बनाये जाते थे। 

हर नगर और उसकी शिल्प कला और निर्माण शैली वास्तव में विभिन्न कारकों के अंतर्गत होती है। अर्थ व्यवस्था, संपन्नता, मौसम, भौगोलिक स्थिति, संस्कृति व धर्म जैसे विभिन्न कारक हैं जो किसी क्षेत्र के विशेष निर्माण कला को आकार व रूप देते थे ।

 

ईरान में पहाड़ी क्षेत्रों में बनाए गये किलों में प्रायः बिना कटाई के पत्थर होते थे जो पहाड़ों से या फिर  नदियों से लाए जाते थे। इन पत्थरों को चूने से मज़बूत किया जाता था। पहाड़ी किले के बाहर गहरी खाई होती थी ताकि दुश्मन के लिए खाई को पार करके क़िले में प्रवेश संभव न हो। दीवारों और बुर्जियों के छोर पर धनुष चलाने वालों के लिए कंगूरे बनाए जाते थे जहां वह दुश्मनों पर तीर बरसाते थे।  इन क़िलों में शासक का आवास, टीले के ऊपरी हिस्से पर होता था और लोगों के घर, भंडार, बैरक  और मस्जिद आदि निचले हिस्सों  में और मुख्य द्वार से निकट बनाए जाते थे। हर युग और हर क्षेत्र में बनाये गये किलों में एक विशेषता समान होती थी और वह यह कि उन्हें दूरस्थ्य क्षेत्रों में बनाया जाता था और क्षेत्र के सब से ऊंचे स्थान पर उनका निर्माण किया जाता था ताकि उनकी सुरक्षा आसान हो। ईरान में शिल्पकला के इतिहास में, किलों के निर्माण में विभिन्न शैलियों का प्रयोग नज़र आता है। ईसा पूर्व काल में ईरानी गांवों के चारों ओर दीवार भी होती थी लेकिन बाद में चारदीवारी बनाने की परंपरा खत्म हो  गयी और केवल क़िले ही बनाए जाने लगे।

 

अलमूत क़िला, ईरान का सब से अधिक प्रसिद्ध क़िला है। यह क़िला एक ऐसे पहाड़ पर स्थित है जो अत्याधिक खतरनाक खाइयों के साथ है। यह दुर्ग, जो आशियानए उक़ाब या बाज़ के घोंसले के नाम से भी जाना जाता है,  पहाड़ पर दो हज़ार एक सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। चारों ओर से दुर्ग खाइयों से घिरा हुआ है और इसमें प्रवेश का एकमात्र मार्ग उत्तरी छोर पर है।यह क़िला क़जवीन नगर के निकट रूदबार अलमूत क्षेत्र में स्थित है।  इस किले को इस्मालिमी विचारधारा के कारण ख्याति मिली जो वर्षों तक इस विचारधारा के शासकों का मुख्यालय रहा।  ऐतिहासिक किताबों में अलमूत क़िले को जेल भी कहा गया है लेकिन पुरातत्व विदों के अध्ययनों से पता चलता है कि विभिन्न युगों में समाज के उच्च लोगों ने इस क़िले में जीवन व्यतीत किया है।

 

स्थानीय  लोग अलमूत दुर्ग को  हसन का दुर्ग भी कहते हैं  यह दो भागों से मिल कर बना है। पश्चिमी भाग जो अधिक ऊंचा है वह बड़ा दुर्ग या ऊपरी दुर्ग कहलाता है। पूर्वी भाग को छोटा दुर्ग या निचला दुर्ग कहा जाता है। यह दुर्ग 120 मीटर ऊंचा है जबकि इसकी चौड़ाई दस से पैंतीस मीटर के बीच है। इस की दीवारों को पत्थर और चूने से बनाया गया है। दुर्ग के दक्षिणी , भाग में पहाड़ में एक कमरा बनाया गया है जो पहरेदारी के लिए प्रयोग होता था।  पश्चिमी भाग में पानी एकत्रित करने के तीन छोटे भंडार और कई कमरे थे जो अब खंडहर बन चुके हैं। किले के दक्षिणी भाग में पत्थर का एक जलभंडार है जिसे अगर खाली किया जाए तो धीरे धीरे फिर से भर जाता है जिससे यह अनुमान लगता है कि हौज़ के नीचे पहाड़ों से रिसने वाला पानी या फिर पाइप लाइन मौजूद है।  क़िले का निर्माण करने वालों ने बड़े कलात्मक अंदाज़ में पानी के भंडार बनाए हैं और पहाड़ में बहने वाले नालों की सहायता से बहुत दूर से पानी को इन भंडारों तक पहुंचाया है। दुर्ग के पानी की मुख्य आपूर्ति, कलदर नामक सोते से होती थी जो इसके उत्तर में स्थित है। किले में रहने वालों को इसी व्यवस्था द्वारा पानी पहुंचाया जाता था यह व्यवस्था पूरे साल काम करती थी यहां तक कि सर्दियों में भी कि जब ठंड की वजह से पानी के जम जाने का खतरा होता था।

 

दुर्ग के निर्माण में पत्थर, चूने, ईंटें, टाइल और पक्की मिट्टी का प्रयोग किया गया है। किले में प्रयोग होने वाली ईंट चौकोर है और उसकी लंबाई और चौड़ाई 21 -21 सेन्टीमीटर है। इन ईंटों की मोटाई, पांच सेन्टीमीटर है। इन्हें सजाने के लिए प्रयोग किया गया है। दीवारों के निर्माण में मज़बूती के लिए लकड़े का इस्तेमाल किया गया है। कुछ भागों में टाइलों की सजावट भी दिखायी देती है जिसके अवशेष मिले हैं । इस क़िले से टाइल का एक टुकड़ा मिला है जिसका रंग आसमानी है और उस पर मानव आकृति बनी हुई है।  किले में एक रोचक चीज़ एक सुरंग का होना है। किले के प्रवेश द्वार पर छः मीटर लम्बी, दो मीटर चौड़ी और दो मीटर ऊंची एक सुरंग, पहाड़ों के पत्थरों के बीच बनाई गई है। इस सुरंग से गुज़रने के बाद दुर्ग का दक्षिणी बुर्ज और उसकी दक्षिणी दीवार, जो पत्थर की एक ढलान पर बनाई गई है, प्रकट हो जाती है। किले में एक बड़ा पुस्तकालय भी है जिसमें हज़ारों किताबें विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध हैं।

 

 प्रसिद्ध इतिहाकार और भुगोल शास्त्री हम्दुल्लाह मुस्तौफ़ी ने इस किले के बारे में कहा है कि अलमूत दुर्ग का निर्माण वर्ष 246 हिजरी क़मरी अर्थात 860 ईसवी में  किया गया और वर्ष 483 हिजरी क़मरी में अर्थात सन 1093 में  इस पर हसन सबाह का नियंत्रण हो गया और वर्ष 654 हिजरी क़मरी तक यह इस्माईली समुदाय के शासकों के नियंत्रण में रहा जहां से इस्माईलिया विचारधारा का प्रचार व प्रसार किया गया।  वर्ष 654 हिजरी क़मरी  अर्थात सन 1256 ईसवी में  इसे हलाकू खान के आदेश पर जला दिया गया किंतु ईरान के प्रख्यात इतिहासकार अता मलिक जुवैनी ने उस पुस्तकाल से अति मूल्यवान किताबों को अलग करने की अनुमति प्राप्त कर ली। इस प्रकार उन्होंने क़ुरआने मजीद की प्रतियों, प्राचीन किताबों और खगोल शास्त्र संबंधी यंत्रों को अलग कर लिया किंतु बाक़ी किताबें और पुस्तकालय के अन्य साधन आग में जल गए। इसके बाद अलमूत दुर्ग को निर्वासन क्षेत्र और कारावास के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। सफवी शासक शाह तहमास्ब सफ़वी के शासन के आरंभिक काल तक दुर्ग का ढांचा सही सलामत था। बाद में इस पर गीलान व माज़न्दरान के शासकों का नियंत्रण हुआ और उन्होंने इसकी मरम्मत कराई।  क़ाजार काल में ख़ज़ाने की तलाश में अलमूत दुर्ग में जो खुदाई हुई उसने इसे गंभीर क्षति पहुंचाई

 

 

 ईरानी इतिहासकार, अता मलिक जुवैनी ने जिस पहाड़ पर अलमूत क़िला बनाया गया है उसे उस ऊंट की तरह बताया है जो बैठ कर अपना सिर ज़मीन पर रखे हुए हो। कहते हैं कि एक दैलमी राजकुमार ने शिकार के समय अपना बाज़ उड़ाया और वह बाज़ उड़ कर इसी पहाड़ पर बैठ गया तो उसने किला बनाने का आदेश दिया।

 

क़िले अलमूत, हसन सबाह के नाम से जुड़ा हुआ है कुछ इस तरह से कि अलमूत का नाम सुनते ही मन में हसन सबाह का नाम उभरने लगता है। इस लिए कार्यक्रम के इस भाग में संक्षेप में हसन सबाह के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने का प्रयास कर रहे हैं। हसन सबाह लगभग 90 वर्ष जीवित रहे। उन्होंने  सल्जूक़ी शासन काल में और ग्यारहवीं सदी के अंतिम और बारहवीं सदी के आरंभिक वर्षों में जीवन व्यतीत किया। उनका और उनके अनुयाइयों का धर्म , इस्माइलिया था जो एक इस्लामी विचारधारा है। इस मत का केन्द्र मिस्र था और मिस्र के फातेमी शासकों ने , इस मत को देश का सरकारी धर्म घोषित किया था। हसन सबाह रैय के रहने वाले थे और वर्षों तक नीशापूर और मिस्र में शिक्षा प्राप्त की  और फिर इस्माईली मत अपना लिया। उन्होंने ईरान वापसी के बाद अपनी बोलने की प्रभावशाली कला की बदौलत बहुत से लोगों को अपना अनुयाई बना लिया और फिर अलमूत क्षेत्र पर हमला करके अलमूत के क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। उसके बाद उन्होंने ईरान के कई क़िलों पर क़ब्ज़ा किया। हसन सबाह अपने  विरोधियों की हत्या कर दिया करते थे। उनके अनुयाइयों द्वारा मारे जाने वालों में ईरान के प्रसिद्ध मंत्री और बुद्धिजीवी, ख्वाजा निज़ामुल मुल्क तूसी का नाम लिया जा सकता है। इस मत के अनुयाइयों की गतिविधियां लगभग 95 वर्षों तक जारी रहीं और हसन सबाह के उत्तराधिकारियों ने भी उनकी हिंसक शैली को जारी रखा यहां तक कि हलाकू खान ने उनका अंत कर दिया।

 

हसन सबाह की जीवनी, भांति भांति के क़िस्से कहानियाों से भरी है जिनमें परस्पर विरोधाभास भी पाया जाता है। कुछ लोग उन्हें नास्तिक कहते हैं जबकि कुछ उन्हें एेसा मुसलमान कहते हैं जो अपनी राह से भटक गया हो। हसन सबाह ने चूंकि नया मत बनाया था और अब्बासी  और सलजूक़ी शासकों से शत्रु थे इस लिए ईरान के भीतर उनके बहुत विरोधी थे। उनके अनुयाइयों की गतिविधियों से ईरानी समाज में बहुत तनाव फैल गया था यही वजह थी कि हसन सबाह एकांतवास में रहते हुए स्वंय को क़िले तक सीमित करने पर मजबूर हो गये थे और वह वहां से बाहर नहीं निकलते।

 

अलमूत क़िले में इस्मालियों की पानी जल आपूर्ति की व्यवस्था बहुत मज़बूत थी और वह वहां खेती थी करते थे इस लिए इस मत के अनुयाई, वर्षों तक इस क़िले पर अधिकार जमाए रहे किंतु अन्ततः आतंरिक भ्रष्टाचार और बाहरी विरोधों के कारण, उनका विनाश हो गया  और वह सब खत्म हो गये। (Q.A.)

 

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