Aug ३१, २०१९ १४:२२ Asia/Kolkata

हमने 80 के दशक में इराक़ के सद्दाम शासन द्वारा थोपी गयी जंग के आरंभिक वर्षों की एक बहुत ही अहम घटना का उल्लेख किया।

यह महा घटना सामेनुल आइम्मा सैन्य अभियान और निर्णायक दृष्टि से अहम शहर आबादान की नाकाबंदी को तोड़ना थी। सामेनुल आइम्मा अभियान की सफलता ने सद्दाम शासन के अतिक्रमण के मुक़ाबले की प्रक्रिया में मूलभूत रोल अदा किया। यह अभियान ऐसी हालत में हुआ जब ईरान राजनैतिक दृष्टि से बहुत अस्थिर चल रहा था क्योंकि मुजाहेदीने ख़ल्क़ नामक आतंकवादी गुट ने बड़े बड़े राजनेताओं और सुरक्षा व न्याय के क्षेत्र के उच्च पदस्थ अधिकारियों की हत्या कर दी थी। इस आतंकवादी गुट के सरग़ना मसऊद रजवी ने ईरान के अपदस्थ राष्ट्रपति बनी सद्र के साथ पेरिस फ़रार होने के बाद टाइम मैग्ज़ीन के साथ इंटरव्यू में कहा थाः “ख़मैनी बहुत कमज़ोर हो चुके हैं। ख़ुमैनी के 90 फ़ीसद साथियों का सफ़ाया हो गया है। जनता बहुत ख़ुश है और मुझे तथा बनी सद्र को बधाई देती है। इस समय हम आक्रमक मुद्रा में हैं और ख़ुमैनी रक्षात्मक मुद्रा में।”

इराक़ का सद्दाम शासन भी पेरिस फ़रार करने वाले क्रान्ति के विरोधी तत्वों की बातों के झांसे में आ गया था। वह भी यह समझ बैठा था कि इस्लामी गणतंत्र ईरान अपने अंत पर पहुंच गया है। जिस बात से क्रान्ति के विरोधी तत्व और सद्दाम तथा पूरब व पश्चिम के कैंप में उसके समर्थक अवगत नहीं थे वह ईरानी राष्ट्र के जवान सपूतों में वीरता व बलिदान की भावना तथा सृजनात्मक क्षमता थी जिसने सभी राजनैतिक व सैन्य समीकरणो को उलट पुलट दिया था। इन्हीं जवान सपूतों में एक 24 साल का हसन बाक़ेरी नामक जवान कमान्डर भी था जिसने दुश्मन के ठिकानों की सटीक जानकारी के आधार पर सामेनुल आईम्मा अभियान की योजना तय्यार की थी और अबादान की नाकाबंदी को चार दिशाओं से तोड़ने वाले इस अभियान में से एक दिशा की कमान अपने हाथ में रखी थी। सामेनुल आईम्मा अभियान की महासफलता का देश के भीतर रणक्षेत्र में सैन्य व राजनैतिक दृष्टि से बहुत अच्छा असर पड़ा और विश्व स्तर पर भी इस अभियान की सफलता की व्यापक चर्चा हुयी।

बीबीसी लंदन ने इस सफलता की समीक्षा में कहा थाः “ईरान की सफलता सद्दाम के लिए न सिर्फ़ सैन्य दृष्टि से पीछे हटने बल्कि राजनैतिक दृष्टि से भी पीछे हटने का कारण बनी।” इसके बाद सैन्य मामलों के अमरीकी टीकाकार एंथनी क्रिड्ज़मैन ने सामेनुल आइम्मा अभियान के संबंध में बल देकर कहा था कि इराक़ की ओर से नवंबर 1981 में एक महीने की युद्ध विराम संधि का प्रस्ताव अक्तूबर 1981 में आबादान में ईरान की सफलता की वजह से था। क्रिड्ज़मैन ने इस सफलता की अहमियत के बारे में अपनी किताब में लिखाः “आबादान के मोर्चे पर ईरान की सफलता से स्पष्ट हो गया कि ज़मीनी व हवाई शक्ति की दृष्टि से मज़बूती निरर्थक हो सकती है। इसके साथ ही आबादान में ईरान की सफलता पश्चिम के लिए एक चेतावनी भी थी। यहां तक कि पश्चिमी फ़ोर्सेज़ को भी जिन्हें वायु शक्ति और भारी हथियारों के इस्तेमाल की दृष्टि से इराक़ी फ़ोर्सेज़ से बेहतर समझा जाता है, ईरानी फ़ोर्सेज़ से मुक़ाबले में ऐसी मुश्किल का सामना हो रहा था जिसका सामना इराक़ी फ़ोर्सेज़ को आबादान में हो रहा था। ख़ास तौर ऐसी स्थिति में कि पश्चिमी सरकारें राजनैतिक दृष्टि से कम तीव्रता वाली जंग में भारी जानी नुक़सान को सहन करने के लिए तय्यार नहीं होतीं।”

अमरीका के सैन्य मामलों के टीकाकार क्रिड्ज़मैन जंग के नए स्वरूप के उभरने की समीक्षा करते हैं जिसका आरंभिक बिन्दु आबादान की नाकाबंदी का टूटना था। वह आगे लिखते हैः “अभी तक यह बात स्पष्ट नहीं है कि ईरानियों ने किस तरह यह सफलता हासिल की।”

सामेनुल आइम्मा अभियान की सफलता ने जो जंग शुरु होने के दूसरे साल के आरंभ में सैन्य दृष्टि से महाघटना थी, अतिग्रहित इलाक़ों को आज़ाद कराने के उद्देश्य से जंग की राणनीति के वर्णन की पृष्ठिभूमि मुहैया की। इस बीच राजनैतिक हालात भी जो सैन्य हालात पर असर डालते हैं, इसी बदलाव से प्रभावित थे। इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने हालात की प्रक्रिया को समझते हुए कई गतिविधियों को एक साथ संचालित व निर्देशित किया। इमाम ख़ुमैनी ने राष्ट्रपति मोहम्मद अली रजाई की हत्या व शहादत के बाद राष्ट्रपति पद के चुनाव को इस्लामी गणतंत्र के वजूद के लिए जीवन रेखा बताया और राजनैतिक व सामाजिक मंच पर जनता की मौजूदगी को ज़रूरी व निर्णायक बताया था। उन्होंने विमान दुर्घटना में कुछ सैन्य कमान्डरों की शहादत के बाद, सैन्य कमान्डरों से मुलाक़ात में कहाः “चुनाव पर ध्यान दीजिए तो आपको समझ में आएगा कि ईरान स्थिर हो जाएगा। उस समय सैन्य विद्रोह या हमला होता है जब राष्ट्र मंच पर मौजूद नहीं होता। लेकिन जब राष्ट्र मंच पर होता है तो वे कुछ नहीं कर सकते। इस जंग में यह बात स्पष्ट हो गयी कि राष्ट्र उदासीन नहीं है। हमारी सेना और राष्ट्र शक्तिशाली है और अच्छी तरह देश की रक्षा कर सकती है।”

सामेनुल आइम्मा अभियान की सफलता के बाद सेना और आईआरजीसी के 5 बड़े कमान्डर इमाम ख़ुमैनी को रिपोर्ट पेश करने के लिए तेहरान रवाना होते हैं। उनका विमान तेहरान स्थित मेहराबाद एयरपोर्ट से 17 मील की दूरी पर दुर्घटना का शिकार होता है। विमान के चारों मोटर किसी कारणवश एक साथ बंद हो जाते हैं। पायलट उसी क्षेत्र में विमान को ज़मीन पर उतारने की कोशिश करता है। विमान के पहिये हत्थे से खुलते थे। विमान असमतल ज़मीन पर उतरता है और लगभग 270 मीटर की दूरी तय करके रुक जाता है। विमान का बायां पंखा ज़मीन पर टकराता है जिसकी वजह से विमान पलट जाता है और उसमें आग लग जाती है जिससे उसमें सवार 49 लोग शहीद हो जाते हैं। शहीद होने वालों में 5 बड़े कमान्डर भी होते हैं। शहीद होने वाले कमान्डर में सेना के जवाइंट चीफ़ आफ़ स्टाफ़ के उपप्रमुख ब्रिगेडियर फ़लाई, रक्षा मंत्री ब्रिगेडियर सय्यद मूसा नामजू, सेना में ज्वाइंट चीफ़ आफ़ स्टाफ़ के उप प्रमुख के सलाहकार जनरल फ़कूरी, आईआरजीसी के उप प्रमुख यूसुफ़ कुलाहदूज़, आईआरजीसी की ख़ुर्रमशहर व आबादान कमान के प्रमुख जनरल मोहम्मद जहान आरा थे।

इतनी बड़ी त्रासदीपूर्ण घटना के बावजूद, सामेनुल आइम्मा अभियान की सफलता राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी हुयी थी। इमाम ख़ुमैनी ने जनता की राष्ट्रपति पद के चुनाव में जो देश के भविष्य के लिए निर्णायक था, भव्य उपस्थिति और इस्लामी क्रान्ति के मौजूदा वरिष्ठ नेता को राष्ट्रपति के रूप में चयन को राजनैतिक विवाद से उत्पन्न अस्थिरता के दौर से नए चरण में प्रवेश माना। उन्होंने सामेनु आइम्मा अभियान की सफलता के संबंध में कमान्डरों के टेलीग्राफ़ संदेश के जवाब में जो संदेश जारी किया उससे वास्तव में सैन्य फ़ोर्सेज़ के लिए गाइडलाइन निर्धारित हुयी। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने उम्मीद जतायी कि सज्जन राष्ट्र जल्द ही अपने वतन से अतिक्रमणकारी नास्तिक फ़ोर्सेज़ को बाहर निकालने की अंतिम सफलता भी देखेगा।

एक ओर इस्लामी क्रान्ति संरक्षक बल आईआरजीसी ने स्वयंसेवियों की संख्या बढ़ाकर अपनी सैन्य इकाई में विस्तार की नई कोशिश शुरु की तो दूसरी ओर सेना और आईआरजीसी अतिग्रहित इलाक़ों की आज़ादी की रणनीति बनायी।

इस बारे में आईआरजीसी के भूतपूर्व कमान्डर मोहसिन रेज़ाई का कहना हैः "दो बुनियादी काम अंजाम दिए गए। एक अभियान के स्तर पर और दूसरे संगठन के स्तर पर। अभियान के लिए चरणबद्ध तरीक़े से योजना बनायी गयी। संगठन के स्तर पर आईआरजीसी ने जंग करने वाली ईकाई बनायी। ये सामेनुल आइम्मा अभियान के बाद के पहला बदलाव था। आईआरजीसी ने इस नीति के तहत कि हर अभियान के बाद अगले अभियान में लड़ने वाले जवानों की संख्या दुगुनी हो, उचित संगठन की योजना बनायी। सामेनुल आईम्मा अभियान में आईआरजीसी एक बटालियन के रूप में अभियान में शामिल हुआ जबकि ब्रिगेड का विषय इस अभियान के बाद व्यवहारिक हुआ। आईआरजीसी की रणनैतिक इकाई में स्वयंसेवियों को शामिल करने पर ताकीद के बाद नई नई ब्रिगेड क़ायम हुयीं। इस तरह आईआरजीसी संगठन में विस्तार और उसके बटालियन से ब्रिगेड बनने से ईरान की सैन्य क्षमता बढ़ी जिसका रणनीति के वर्णन और बाद के अभियान की चरणबद्ध रूप में योजना बनाने में प्रभाव पड़ा।"

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