Jul १८, २०२० १६:५५ Asia/Kolkata

हमने आपको 1981 में थोपे गये युद्ध के दूसरे साल के अंतिम तीन महीनों में रणक्षेत्र में घटने वाली घटनाओं के बारे में बताया था।

ईरान की नवआधार इस्लामी व्यवस्था को नुक़सान पहुंचाने के लिए देश के भीतर और बाहर के क्रांति के दुश्मनों के षड्यंत्रों से मुक़ाबले के लिए बासी सेना को अतिग्रहित क्षेत्रों से बाहर खदेड़ने के लिए अभियानों का क्रम है।  

आबादान का परिवेष्टन तोड़ने के लिए पहला अभियान सामेनुल आइम्मा चलाया गया जो सफलता से पूरा हुआ। इसके दो महीने बाद, बस्तान, उसके आसपास के गांव और अल्लाहो अकबर के टीलों को स्वतंत्र कराने के लिए बैतुल मुक़द्दस की ओर नामक अभियान शुरु किया गया। पूरब और पश्चिम के दोनों ब्लाकों में सद्दाम शासन और उसके समर्थक, रणक्षेत्र में ईरानी सेना और स्वयं सेवी बलों की निरंतर सफलताओं और रणक्षेत्र के बदलते समीकरण से बहुत बुरी तरह चिंतित थे जिनमें फ़त्हुल मुबीन नामक तीसरा अभियान 1982 के अंतिम मार्च में चलाया गया। इस अभियान ने इराक़ की बासी सरकार की सेना को धूल चटा दी।

 

इस अभियान में इराक़ की बासी सेना के 25 हज़ार लोग या तो मारे गये या घायल हुए जबकि 15 हज़ार से अधिक लोगों को बंदी बनाया गया। कुल मिलाकर विस्तृत बैतुल मुक़द्दस अभियान से पहले ही दुश्मन की सेना एक बड़ा हिस्सा, सैन्य और उपकरण के लेहाज़ से तबाह हो गया और ईरानी सेना के हाथ बड़ी मात्रा में हथियार और गोला बारूद बरामद हुए हैं।

सद्दाम के समर्थकों ने सद्दाम की सेना को दूसरी पराजय से बचाने के लिए उसकी विभिन्न प्रकार की वित्तीय और सामरिक मदद की। सोवियत संघ ने इराक़ को अपनी मदद जारी रखते हुए इराक़ को बड़ी मात्रा में टी-72 टैंक और युद्धक विमान दिए। जर्मनी और इटली ने तुरंत ही एंटी टैंक मीज़ाइलें और सैन्य उपकरण सद्दामी शासन के समर्थन के लिए भेजे। कुवैत, सऊदी अरब और अन्य तेल से मालामाल फ़ार्स की खाड़ी के अन्य देशों ने भी सद्दाम शासन के लिए अपनी मदद जारी रखी और तेल की ब्रिक्री से प्राप्त होने वाले डॉलर सद्दाम को दिए और हर लेहाज़ से उसकी मदद करने को तैयार थे ताकि ईरान मोर्चों पर व्यापक गतिविधियां और गंभीर कार्यवाहयां अंजाम न दे सके।

देश की धरती से अतिग्रहणकारियों को खदेड़ने के लिए इस्लामी गणतंत्र ईरान के अधिकारियों और जनता के इरादे मज़बूत थे और इसमें कोई शंका नहीं है कि स्वयं सेवी बल, फ़त्हुल मुबीन नामक सैन्य अभियान में सफलता पाने के बाद मिले मनोबल की वजह हर क्षेत्र में सद्दाम और उसके समर्थकों उसकी सेनाओं को धूल चटाने, रणक्षेत्र में शौर्यगाथा रचने और इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ने के लिए पूरी तरह तैयार थे।

राजनैतिक क्षेत्र में भी सद्दाम के सैनिकों ने थोपे गये युद्ध की वास्तविकताओं को उल्टा दिखाने का प्रयास करते हुए दिखावटी रूप से शांति का ढिंढोरा पीटना शुरु कर दिया। इराक़ी सेना की रणक्षेत्र में निरंतर पराजय और बड़ी मात्रा में उनकी संभावनाओं के तबाह हो जाने की वजह से सद्दाम में ढींगे मारने और ईरान से मुक़ाबला करने की क्षमता समाप्त हो चुकी थी।  निरंतर बड़ी संख्या में हथियारों और गोलाबारूद के भेजे जाने से भी सद्दाम की सेना की निरंतर पराजय नहीं रोकी जा सकी और अब वह कोई समाधान का तरीक़ा तलाश कर रहे थे।

उन्होंने सामेनुल आइम्मा और बैतुल मुक़द्दस की ओर जैसे अभियानों को अस्थाई समझ लिया था और यह सोच रहे थे कि इन अभियानों का दोहराया जाना असंभव है, यही कारण था कि वह फ़त्हुल मुबीन नामक अभियान के सामने पूरी तरह ढेर हो गये। मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति हुसनी मुबारक ने अमरीका और पश्चिमी से अपील की कि ईरान के मुक़ाबले के लिए कुछ करें। मोरक्को के नरेश हसन तथा सूडान के तानाशाह जाफ़र नुमैरी जैसे सद्दाम के समर्थकों ने सद्दाम को मुक्ति दिलाने के लिए हाथ पैर मारने शुरु कर दिए।

इस प्रकार से सद्दाम के समर्थकों ने सुलह का ढिंढोरा पीटते हुए ख़ुर्रम शहर की स्वतंत्रता के लिए चलाए जाने वाले अभियान बैतुल मुक़द्दस की ओर को रोकने का प्रयास किया। सद्दाम के समर्थकों की शांति की इच्छा का दावा ऐसी स्थिति में सामने आया कि ख़ुर्रम शहर, हुवैज़ा, मेहरान, क़स्रे शीरीं, सूमार और नफ़्ते शहर जैसे ईरान के अनेक शहर सद्दाम की बासी सेना के नियंत्रण में थे और इस प्रकार से इराक़ के पास तुरूप का पत्ता था और वह इस प्रकार अपनी स्थिति सुरक्षित रखने के प्रयास में था।

मध्यपूर्व के उथल पुथल वाले माहौल में इराक़ को मिलने वाली वित्तीय और सामरिक सहायताओं के बदले में, मिस्र को अरब जगत में वापस लाने, सद्दाम के समर्थन में अरब गठबंधन का बनाने तथा क्षेत्र व इराक़ में अप्रत्याशित परिवर्तनों से टकराने के लिए हमेशा तैयार रहना, इराक़ सरकार के समर्थकों की कार्य सूची में शामिल था।  मिस्र के रक्षामंत्री अबू ग़ज़ाला ने अमरीका से अपील की थी कि इराक़ के साथ युद्ध के मोर्चे पर ईरान ही हलिया संभावित विजयों को विफल बनाने के लिए आवश्यक कार्यवाही करे।

इस्लामी कांफ़्रेंस संगठन के महासचिव हबीब शत्ती ने भी अपने एक बयान में कहा था कि मध्यपूर्व की स्थिति बहुत ही ख़तरनाक और गंभीर चरण में पहुंच गयी है। फ़ार्स की खाड़ी क्षेत्र में ईरान और इराक़ के बीच युद्ध और युद्ध से पैदा होने वाले हालात के दृष्टिगत अरबों और अतिग्रहणकारी इस्राईल के संबंध तथा ज़ायोनी शासन द्वारा आक्रमण नीति अपनाए जाने की वजह से नये चरण में प्रविष्ट हो गये थे।

इस प्रकार से कि ज़ायोनी शासन और मिस्र के बीच कैंप डेविड समझौते के अंतर्गत ज़ायोनी शासन को मिस्र के सीना मरुस्थल की वह ज़मीन जो उसके पास थी, धीरे धीरे मिस्र को लौटाना था। ईरान की निरंतर विजय की वजह से क्षेत्र की स्थिति पर जिसने अमरीका, पश्चिम और क्षेत्र के अरब देशों को चिंतित कर दिया था और ईरान को ध्यान का केन्द्र बना दिया था, ज़ायोनी शासन नज़र रखने लगा।

अलबत्ता ज़ायोनियों ने चिंतित होकर क्रांति और ईरान – इराक़ युद्ध के हालात पर नज़र रखी। ज़ायोनी शासन को दुर्ग की भांति पूर्वी अरब की दीवार के गिरने से की आशंका थी जिसने ज़ायोनी शासन को अपने केन्द्र मे क़रार दे रखा था। इस आधार पर जैसे ही 1982 शुरु हुआ ज़ायोनी अधिकारियों की ओर से गतिविधियां शुरु हुईं।

यासिर अराफ़ात इन गतिविधियों के बारे में कहते हैं कि मिस्र को सीना मरुस्थल दिए जाने से पहले ही इस्राईल के दक्षिणी लेबनान पर हमले शुरु हो गये।

जायोनी शासन से निरंतर पराजय के बाद अरब जगत पर पसरा अपमान के वातावरण तथा हर अरब नेता के अपने व्यक्तिगत क्रियाक्लापों और व्यक्तिगत कारकों की वजह से अंततः ईरान के विरुद्ध युद्ध में सारे ही अरब शासक सद्दाम का समर्थन कर रहे थे।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ज़ायोनी शासन ने 1980 के दशक में होने वाले परिवर्तनों को अपने लिए हानिकारक समझा क्योंकि ईरान की तानाशाही सरकार जो इस्राईल की रणनैतिक घटक थी, क्रांति आने से पतन का शिकार हो गयी और इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था ने इस्राईल से संघर्ष को अपना रणनैतिक नारा क़रार दिया था।

स्वभाविक सी बात है कि क्षेत्र विशेषकर लेबनान के राजनैतिक मंच पर इस सफलता के पड़ने वाले प्रभाव ज़ायोनी शासन की नज़र से ओझल नहीं थे। यही कारण है कि इस्राईल की चिंता और इस्राईल की लेबनान पर संभावित कार्यवाही का अनुमान लगाया जा रहा था। ज़ायोनी शासन लेबनान पर हमला करके यह उम्मीद लगाए हुए था कि वह लेबनान में फ़िलिस्तीन के स्वतंत्रता संगठन की छावनी को समाप्त करके तथा लेबनान में सिरया की भूमिका को कमज़ोर करके अपनी उत्तरी सीमाओं के एक भाग की सुरक्षा सुनिश्चित कर लेगा।

 

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