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सांस्कृतिक धरोहर वह चीज़ है जो हमें पहचान देती है और कुछ अवसरों पर सांस्कृतियों के बीच मतभेद को प्रदर्शित करने का हथियार भी समझा जाता है।
(last modified 2025-10-15T12:19:09+00:00 )
Oct १५, २०२५ १७:४९ Asia/Kolkata
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सांस्कृतिक धरोहर वह चीज़ है जो हमें पहचान देती है और कुछ अवसरों पर सांस्कृतियों के बीच मतभेद को प्रदर्शित करने का हथियार भी समझा जाता है।

अगर सांस्कृतिक धरोहर तबाह हो जाए या हमले का शिकार हो जाए तो वास्तव में पूर्वजों की पहचान और सांस्कृतिक निशानी तबाह हो जाएगी। खेद की बात यह है कि बहुत सी जंगों में एतिहासिक इमारतें और घर तबाह हो जाते हैं और प्राचीन धरोहरें बर्बाद हो जाती हैं।

प्राचीन काल से ही मानव समाज को जिन तबाहियों और बर्बादियों का सामना रहा है उनमें से एक युद्ध से पैदा होने वाली तबाहियां रही हैं, इसी के साथ युद्ध के ख़तरनाक और सबसे विध्वंसक नुक़सानों में से एक नुक़सान वह हैं जो सांस्कृतिक और एतिहासिक धरोहरों को होते हैं। अलबत्ता यह विषय कोई नई बात नहीं है और प्राचीन काल से ही मानवीय समाज को परिणामहीन युद्धों में अपने पुरखों की मूल्यवान सांस्कृतिक और एतिहासिक धरोंहरों की तबाही का समाना रहा है।

मिसाल के तौर पर केवल द्वितीय विश्व युद्ध में यूरोपीय महाद्वीप में ही दर्जनों मूल्यवान सांस्कृतिक और एतिहासिक म्यूज़ियम और धरोहरें तबाह हो गयीं। यह चीज़ वर्तमान समय में ज़्यादा स्पष्ट रूप से सामने आती नज़र आती है और इस समय राजनेता अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए युद्ध की आग भड़का देते हैं जिसकी वजह से मानवीय संस्कृति और धरोहर तबाह हो जाती है। हालिया कुछ दश्कों के दौरान सशस्त्र झड़पों और राजनैतिक परिवर्तन भी सीधे तौर पर सांस्कृतिक धरोहर को टारगेट कर रही हैं और जंग के ख़र्चों को पूरा करने या पहचान को प्रभावित करने तथा दुश्मनों पर जीत दर्ज करने और उनके विश्वास को ठेस पहुंचाने के लिए जानबूझकर सांस्कृतिक धरोहरों को तबाह किया जाता रहा है।

 

अफ़ग़ानिस्तान के बामियान क्षेत्र में महात्मा बौद्ध की मूर्ति, एक समय में दुनिया में महात्मा गौतम बुद्ध की सबसे बड़ी और विशालकाय मूर्ति थी। पत्थरों को उकेर कर बनाई गयी उनकी यह मूर्ति छठीं ईसवी की ओर पलटती हैं और इसकी ऊंचाई 53 मीटर है लेकिन वर्ष 2001 में तालेबान ने बामियान में महात्मा गौतम बुद्ध की मूर्तियों को तबाह कर दिया। यह तबाही तालेबान के नेता मुल्ला मुहम्मद उमर के आदेश पर अंजाम दी गयी थी। तालेबान के नेता मुल्ला मुहम्मद उमर ने अफ़ग़ानिस्तान में मूर्तियों की तबाही का आदेश दिया था।

उधर अफ़ग़ानिस्तान के बाद सीरिया को भी इस तरह की तबाही का सामना हुआ और आठवीं और तेरहवीं शताब्दी के बीच बनी हलब की मस्जिद को भी तबाह कर दिया गया। इतिहास में मिलता है कि ईश्वरीय दूत हज़रत ज़करिया इस जगह पर दफ़्न हैं और वर्ष 2013 में सीरिया युद्ध की वजह से इस मस्जिद और इस मस्जिद का प्रसिद्ध मीनार तबाह हो गया था।

सीरिया के वाहा शहर में होने वाली सैन्य झड़पों की वजह से सीरिया के पालमीरा शहर को बहुत ज़्यादा नुक़सान का सामना करना पड़ा था। उसके बाद पालमीरा शहर में स्थित एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल को भी ध्वस्त कर दिया गया था। इस जगह को पहली हिजरी में बनाया गया था और इसमें 1 हज़ार से अधिक पिलर और 500 से अधिक क़ब्रें और एक रोमी क़नात मौजूद है। वर्ष 2015 में इस दो हज़ार साल पुराने इस धार्मिक स्थल को और इसी तरह सीरिया के बहुत से धार्मिक और एतिहासिक स्थलों को दाइश ने तबाह कर दिया था।

 

सांस्कृतिक स्थलों पर हमले, ईंट और लकड़ी को बर्बाद करने से ऊपर की चीज़ है। जंग और दुश्मनी के प्रभाव, हथियारों से की जाने वाली जंग के प्रभावी से कहीं ज़्यादा होते हैं। जंग के नियमों और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों के आधार पर मानवीय धरोहर का वह हिस्सा जो बहुत ही महत्वपूर्ण होता है और जिसे या स्थनांतरित किया जा सकता है या नहीं किया जा सकता, वह सबके सब सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल हैं और जो चीज़ें सांस्कृतिक धरोहर की सूची में आती हैं उनका अपना एक अलग ही महत्व होता है।

जंग के नियम दोनों ही पक्ष को इस बात पर बाध्य करते हैं कि वह एक दूसरे की सांस्कृतिक और एतिहासिक धरोहरों की रक्षा करें। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों के अनुसार सांस्कृतिक चीज़ों पर हमला या इन सांस्कृतिक चीज़ों को सैन्य लक्ष्यों के लिए प्रयोग करना, मना है लेकिन यह कि कोई ठोस सैन्य ज़रूरत हो। इसके अलावा दोनों पक्षों को क़ब्ज़े की कार्यवाही से भी परहेज़ करना चाहिए या सांस्कृतिक चीज़ों या स्थलों को जानबूझकर निशाना बनाने से बचना चाहिए, इसी तरह संघर्षरत दोनों ही पक्षों को एक दूसरे की सांस्कृतिक धरोहर को तबाह करने, चोरी करने या लूटपाट से बचना चाहिए।

झड़पों और युद्धों में क़ानूनों का सम्मान करने का एक उपाय यह भी है कि दोनों पक्षों को आप्रेशन या सैन्य कार्यवाही के समय दूसरे पक्ष की सांस्कृतिक और एतिहासिक धरोहर की रक्षा करनी चाहिए और उसे नुक़सान से बचाना चाहिए क्योंकि अगर अचानक सांस्कृतिक धरोहरों को नुक़सान पहुंचने का अर्थ यह है कि लोग और समाज अपनी पहचान का एक हिस्सा गंवा देते हैं। इसी संबंध में दुनिया के विभिन्न देशों में बीसवीं सदी में कुछ कन्वेन्शन और संधियां पास हुई हैं जिसमें 1954 के हेग कन्वेन्शन की ओर इशारा किया जा सकता है। 1954 का हेग कन्वेन्शन सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा का सबसे महत्वपूर्ण और बेहतरीन कन्वेन्शन और नियम है।

जंग से पैदा होने वाले ख़तरों से बचाने के लिए सांस्कृतिक व धार्मिक धरोहरों की रक्षा के बारे में हेग कन्वेन्शन, अपने आप में सबसे विश्वसनीय और व्यापक दस्तावेज़ हैं। यह कन्वेन्शन उस कांफ़्रेंस में जिसे यूनेस्को की ओर से बुलाया गया था और हालैंड की सरकार के निमंत्रण पर हेग शहर में आयोजित हुई थी। इस कन्वेन्शन में पेश किए गये मसौदे के आधार पर लोगों को सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा के लिए अपने अनुभवों को शेयर करने का अह्वान किया गया था।

हेग कन्वेन्शन के अलावा वर्ष 2017 में संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने 2347 नामक एक प्रस्ताव पूर्ण बहुमत से पारित किया था जिसमें आया है कि किसी भी धार्मिक, शिक्षा, कला, साइंस या किसी भी कल्याणकारी इमारात या संस्था पर हमला युद्ध अपराध समझा जाता है और इस हमले को अंजाम देने वाले युद्ध अपराधी समझे जाते हैं। इसी तरह वर्ष 1977 में जेनेवा में पहला पूरक प्रोटोकोल और वर्ष 1998 में सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव क्रमांक 2397 पास हुआ जिसमें सांस्कृतिक धरोहोरों की रक्षा को एक अंतर्राष्ट्रीय नियम के रूप में याद किया और यह चीज़ किसी भी देश से विशेष नहीं है।

इस अंतर्राष्ट्रीय सहमति के आधार पर सांस्कृतिक चीज़ों और इमारतों को निशाना बनाना युद्ध अपराध है लेकिन अर्थ यह नहीं है कि सैनिकों ने तबाही से हाथ खींच लिया हो। पिछले कुछ दश्कों के दौरान होने वाली आतंकवादी कार्यवाहियों और युद्धों के दौरान विशेष तौर पर पूर्वी यूरोप, मध्यपूर्व और पश्चिमी अफ़्रीक़ा में धार्मिक चीज़ों को निशाना बनाया गया है।

 

 

अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, सीरिया और यमन में हालिया युद्ध के दौरान एतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों को निशाना बनाया जाना, इस बात का चिन्ह है कि इस अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन पर ध्यान ही नहीं दिया गया और इस बात के दृष्टिगत ज़रूरत इस बात की है कि संयुक्त राष्ट्र संघ देश की सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा और उन्हें बचाने के लिए ज़रूरत से ज़्यान ध्यान दे। अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन का उल्लंघन करने वाले देशों और सरकार को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए और विश्व समुदाय की ओर से उन्हें ज़बरदस्त फटकार लगाई जाए।

जंग के समय सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा और समर्थन की कोशिश, पूरी तरह से अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अनुरूप और ज़रूरी है। जंग के काल में रेड क्रिसेंट सोसायटी या रेड क्रास की मदद से सांस्कृतिक और एतिहासिक धरोहरों की रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय कमेटी का गठन करना भी ज़रूरी है। सशस्त्र झड़पों के दौरान सांस्कृतिक इमारतों और संपत्तियों की रक्षा, सशस्त्र जंग समाप्त होने के बाद समाज के पुनर्निमाण के लिए सांस्कृतिक संपत्ति की रक्षा बहुत ही ज़रूरी समझी जाती है।

कुछ साल पहले अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रास सोसायटी ने आम नागरिकों की प्रतिष्ठा की रक्षा के अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए एक योजना पेश की है जिसमें 16 देशों के 17 हज़ार नागरिकों से पूछा गया कि धार्मिक, एतिहासिक और महत्वपूर्ण इमारतों और संस्थाओं पर हमले उन्हें याद हैं और उनकी क्या प्रतिक्रिया रही है। इस सर्वेक्षण में शामिल लगभग 72 प्रतिशत लोगों ने जवाब दिया कि यह काम उनकी नज़र में बहुत ही बुरा है। ध्यान योग्य बात यह है कि इस सर्वेक्षण में शामिल 84 प्रतिशत लोग वह थे जो युद्धरत क्षेत्रों या देशों में रहते थे। इस शोध या दूसरे शब्दों में यह कहें कि इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि पूरी दुनिया के लोग एतिहासिक संपत्तियों की रक्षा पर बल देते हैं और उनका ख़याल सशस्त्र गुटों और कुछ सरकारों से बिल्कुल ही अलग है।