Apr २३, २०२३ ०७:११ Asia/Kolkata
  • ईदुल फ़ित्र-2  अगर महान ईश्वर इंसानों का मार्गदर्शन न करता तो क्या होता?

दोस्तो रमज़ान का पवित्र महीना बीत गया और आज शव्वाल महीने की दूसरी तारीख है।

इस शुभअवसर पर इस्लामी देशों में छुट्टियां मनाई जा रही हैं। सरकारी काम- काज बंद हैं। लोग एक दूसरे से ईद मिल रहे हैं। इस्लामी समाज में आज भी اللّه اکبر، اللّه اکبر، لا اله الا اللّه واللّه اکبر، اللّه اکبر وللّه الحمد، اللّه اکبر على ما هدانا.»

का पवित्र वाक्य गूंज रहा है। इन छोटे से वाक्यों में अर्थों के सागर नीहित हैं। दूसरे शब्दों में गागर में सागर नीहित हैं। बहुत से मुसलमान विशेषकर रोज़ेदार इन जुमलों को बार- बार अपनी ज़बान से दोहरा रहे हैं। अपने इस कार्य से वे इस बात की गवाही दे रहे हैं कि महान ईश्वर सबसे बड़ा है।

दोस्तो कोई भी चीज़ नहीं है जिसके लिए यह कहा जाये कि महान ईश्वर उससे बड़ा है बल्कि इस वाक्य का अर्थ यह है कि महान ईश्वर इससे बड़ा है कि उसकी प्रशंसा की जाये। महान ईश्वर की उस तरह से प्रशंसा नहीं की जा सकती जिस तरह से वह है। क्योंकि कोई भी उस महान हस्ती की वास्तविकता से अवगत नहीं है और किसी के अंदर भी इस बात की क्षमता नहीं है कि वह महान ईश्वर की ज़ात को समझ सके। इसीलिए उसकी ज़ात के बारे में सोचने से मना किया गया है। जो इंसान महान ईश्वर की ज़ात के बारे में सोचेगा वह कभी भी उसकी ज़ात को नहीं समझ सकता जब उसकी समझ में नहीं आयेगा तो वह महान ईश्वर के पावन अस्तित्व का इंकार कर देगा और जो महान ईश्वर के अस्तित्व का इंकार कर देगा वह गुमराह हो जायेगा। इंसान को गुमराही से बचने के लिए महान ईश्वर की ज़ात के बारे में सोचने से मना किया गया है।

आज के दिन जो वाक्य लोगों की ज़बान पर हैं उनमें एक यह है कि मुसलमान विशेषकर रोज़ेदार इस बात की गवाही दे रहे हैं कि महान ईश्वर के अलावा कोई पूज्य नहीं है। कितनी अजीब बात है कि बहुत से लोग महान ईश्वर और अपने सृष्टिकर्ता की उपासना के बजाये उन चीज़ों की उपासना करते हैं जिन्हें उन्होंने खुद बनाया है और रोचक बात यह है कि जिन चीज़ों की वे उपासना करते हैं वे निर्जीव हैं और वे इंसान को किसी प्रकार का न तो फायदा पहुंचा सकती हैं और न ही नुकसान। इंसान को सोचना और अपने विवेक से काम लेना चाहिये कि वह जिस चीज़ की उपासना कर रहा है उस चीज़ ने उसे बनाया है या उसने उस चीज़ को बनाया है। बहरहाल अगर थोड़ा ध्यान से सोचा जाये तो इंसान बहुत आसानी से यह नतीजा निकाल सकता है कि उसे किसकी उपासना करनी चाहिये। रचना की या रचना करने वाले की।

मुसलमान खासकर उन लोगों ने जिन्होंने पूरे रमज़ान महीने में रोज़ा रखा जिन वाक्यों को वे दोहरा रहे हैं उनमें एक यह है कि वह इस बात पर महान ईश्वर का शुक्र अदा कर रहे हैं कि उसने उनका मार्गदर्शन किया। वास्तव में अगर महान ईश्वर ने इंसानों का मार्गदर्शन न किया होता तो जो लोग महान ईश्वर को मानते हैं उसका गुणगान कर रहे हैं न जाने उनका क्या हश्र होता? और वे क्या करते। उसने लोगों के पथप्रदर्शन के लिए एक लाख 24 हज़ार पैग़म्बर और 12 इमामों को भेजा और उन सबने लोगों के मार्गदर्शन में किसी प्रकार के प्रयास में संकोच से काम नहीं लिया। इन सबके बावजूद आज भी अधिकांश लोग भटके हुए हैं और अगर महान ईश्वर लोगों के मार्गदर्शन के लिए इतना प्रबंध न करता तो क्या होता?

इंसान को अपने पालनहार का शुक्र अदा करना चाहिये कि उसने हमारा मार्गदर्शन किया। उसने हमें अज्ञानता के अंधकार से निकाला और हमारे दिलों में ईमान का प्रेम दिया और गुमराह लोगों में से करार नहीं दिया।  यह कितनी बड़ी नेअमत है कि महान ईश्वर ने हमें मोमिन बनने का सौभाग्य प्रदान किया।

ईदे फित्र की एक विशेषता शेआरे एलाही अर्थात उन चीज़ों का सम्मान करना है जिन्हें महान ईश्वर ने अपनी निशानी करार दिया है। महान ईश्वर ने لا اله الا الله و الله اکبر و الحمدلله و سبحان الله

कहने को शेआरे एलाही कहा है इसलिए लोग इस दिन इन वाक्यों को दोहराते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं कि अपनी ईदों कोلا اله الا الله و الله اکبر و الحمدلله و سبحان الله  कह कर सुशोभित करो। कितने खुशनसीब वे लोग हैं जिन्हें महान ईश्वर ने अपनी प्रशंसा करने का सामर्थ्य प्रदान किया है। वास्तव में महान ईश्वर की प्रशंसा व गुणगान कोई छोटी नेअमत नहीं है। यह बहुत बड़ी नेअमत है।

इंसान को इस पर भी अपने पालनहार का शुक्र अदा करना चाहिये कि उसने उसे अपनी प्रशंसा करने का सौभाग्य प्रदान किया। वास्तव में बहुत से लोग महान ईश्वर की याद को कल्पना से परे बहुत बड़ी नेअमत समझते हैं। यह महान ईश्वर की याद है जो इंसान को सुकून पहुंचाती है। वह इंसान को गुनाहों से रोकती है, वह न केवल इंसान को गुनाहों से रोकती व बचाती है बल्कि जिस वक्त इंसान महान ईश्वर की याद में रहता है वह गुनाहों के बारे में सोचता भी नहीं है।

महान ईश्वर की याद का यह मतलब नहीं है कि इंसान बैठकर उसका गुणगान करे। अगर किसी इंसान को गुनाह करने का अवसर मिलता है मगर वह गुनाह नहीं करता है तो यह भी महान ईश्वर की याद है। यह महान ईश्वर की याद थी जिसने इंसान को गुनाह करने से रोक दिया। महान ईश्वर की याद दुनिया की कठिनाइयों और मुसीबतों पर धैर्य करने को इंसान के लिए आसान बना देती है। ईदे फित्र के दिन इंसान जो बहुत अधिक अपनी ज़बान से لا اله الا الله و الله اکبر و الحمدلله و سبحان الله कहता है तो इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उसके कारण के बारे में कहते हैं  महान ईश्वर ने इंसान का जो मार्गदर्शन किया है और उसने समूचे विश्व वासियों को जो नेअमतें प्रदान की हैं यह कहना एक प्रकार से उसका शुक्र है।

दोस्तो ईदुल फित्र की नमाज़ का आयोजन सूरज निकलने के बाद होता है। दुनिया के समस्त मुसलमान ईद की नमाज़ का आयोजन इसी प्रकार करते हैं। ईद की नमाज़ मोमिनों के दिलों को प्रकाश प्रदान करती है। ईद की नमाज़ मुसलमान सामूहिक रूप से पढ़ते हैं जो उनके मध्य एकता को प्रदर्शित करती है और एकता वह चीज़ है जिससे दुनिया की हर वर्चस्ववादी ताकत डरती है। जिस तरह से मुसलमान सामूहिक रूप से नमाज़ अदा करते हैं उसी तरह से अगर वह अपने दूसरे मामलों में एकजुट हो जायें और एकता का प्रदर्शन करें तो इस्लामी जगत की बहुत सी समस्याओं का समाधान हो सकता है।

अगर एकता में ताकत न होती तो इस्लाम और मुसलमानों के दुश्मन इस्लामी जगत में फूट डालने के लिए इतना प्रयास न करते। वे भलीभांति जानते हैं कि जब तक मुसलमानों के मध्य फूट रहेगी तब तक वे अपने अवैध हितों को बहुत आसानी से साध सकते हैं। इसलिए वे मुसलमानों के मध्य फूट डालने में किसी भी प्रकार के प्रयास में संकोच से काम नहीं लेते हैं।   

इस बात को ध्यान में रखना चाहिये कि इस्लाम न्याय, प्रेम, और शांति का धर्म है। इस्लाम में जो भी उपासनायें हैं उन सबका आधार भी शांति और प्रेम है। महान ईश्वर ने इंसान को उपासना का जो आदेश दिया है तो इसका लाभ महान ईश्वर को नहीं बल्कि स्वयं बंदे को पहुंचता है। अगर पूरी दुनिया के लोग मिलकर कुफ्र करें और कोई भी उपासना न करें तो खुदा की खुदाई में कोई कमी नहीं आयेगी और अगर पूरी दुनिया के लोग मिलकर उसकी उपासना करें तो उसकी खुदाई में कोई वृद्धि नहीं होगी। ईश्वर का कुफ्र करने का जो नुकसान है वह बंदों को होगा और इसी प्रकार उपासना का जो फायदा होगा वह बंदों को होगा।

कहने का तात्पर्य है कि जिन लोगों ने रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा रखा और उन चीज़ों से परहेज़ किया जिनसे महान ईश्वर ने मना किया था तो इसका फायदा खुद इंसान को पहुंचा न कि महान ईश्वर को। उसे किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है वह किसी की भी उपासना का मोहताज नहीं है बल्कि सब उसके मोहताज हैं।

दोस्तो ईदे फित्र के अवसर पर जो नमाज़ पढ़ी जाती है उसमें दो खुत्बे होते हैं और जो नमाज़ पढ़ाता है वह इन दोनों खुत्बों में लोगों को तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय की ओर आमंत्रित करता है और इस्लामी जगत को जिन चुनौतियों का सामना होता है उन पर ध्यान दिया जाता है ताकि नमाज़ पढ़ने वाले अपने धार्मिक भाइयों की कठिनाइयों व समस्याओं से अवगत हों और उनकी समस्याओं से अवगत होने के बाद उसके समाधान के मार्गों के बारे में विचार- विमर्श और उनके समाधान के लिए प्रयास करें।

दोस्तो यहां एक बिन्दु की ओर ध्यान देना ज़रूरी है और वह बिन्दु यह है कि नमाज़े जुमा और नमाज़े फित्र जैसी नमाजों के खुत्बों में भी उन समस्याओं का उल्लेख ज़रूरी है जिनका इस्लामी जगत को सामना होता है। यानी इस्लामी जगत से जुड़ी समस्याओं को बयान करना महान ईश्वर की उपासना या उपासना का भाग है। इस्लामी रिवायतों में है कि जो इंसान सुबह करे और मुसलमानों की समस्याओं को कोई महत्व न दे तो वह मुसलमान नहीं है। इस्लाम में केवल नमाज़ पढ़ने और रोज़ा रखने को इबादत नहीं कहा गया है बल्कि हर वह कार्य इबादत है जिसे महान ईश्वर की प्रसन्नता करने के लिए अंजाम दिया जाये।

इसी प्रकार इंसान जो कार्य महान ईश्वर की प्रसन्नता के लिए अंजाम दे रहा है उसका वैध होना भी ज़रूरी है। एसा नहीं है कि कोई इंसान महान ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किसी इंसान की हत्या कर दे तो इसे भी उपासना कहा जायेगा। कदापि नहीं। इस प्रकार के अमल को कभी भी उपासना नहीं कहा गया है।

ईदे फित्र की नमाज़ पढ़ाने के लिए एक बार अब्बासी खलीफा मामून ने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम अनुरोध किया पर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया पर जब उसने बहुत आग्रह किया तो इमाम ने कहा है कि मैं इस शर्त के साथ नमाज़ पढ़ाऊंगा कि जैसे पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम ईदे फित्र की नमाज़ पढ़ाने के लिए बाहर जाते थे मैं भी उसी तरह से नमाज़ पढ़ाऊंगा तो मामून ने इमाम की शर्त कबूल कर ली और उसने अपने दरबारियों व अपने सैनिकों को आदेश दिया कि नमाज़े ईद के लिए इमाम के साथ निकलें।

अभी सूरज नहीं निकला था कि लोग इमाम के घर के चारों ओर और अपने- अपने घरों की छतों पर बैठ गये थे। बच्चे और महिलायें भी इकट्ठा हो गयीं थीं और सैनिक और दरबारी सब अपनी- अपनी सवारियों पर इमाम के घर के पास इमाम की प्रतीक्षा में थे ताकि उनके साथ नमाज़े ईदुल फित्र के लिए चल सकें। इमाम ने गुस्ल किया और अपना कपड़ा पहना और सफेद अमामा यानी पगड़ी बांधी और सुगंध लगाई। हाथ में छड़ी ली और उसके बाद घर से बाहर निकले।

जब वह लोगों की पंक्ति के मध्य से बाहर निकले तो उन्हें देखकर लोगों को पैग़म्बरे इस्लाम की याद आ गयी और लोग खुशी से नारे लगाने लगे। इमाम ने ऊंची आवाज़ में अल्लाहो अकबर कहा। सालों हो गये थे कि लोगों ने यह आवाज़ नहीं सुनी थी। सिपाहियों व दरबारियों को इस प्रकार से इमाम के निकलने की अपेक्षा नहीं थी। वे सब अपनी सवारियों से कूद पड़े और इमाम के पीछे- पीछे चलने लगे।

नमाज़ पढ़ाने के लिए इमाम कुछ ही दूर चले थे कि मामून के कारिन्दों व जासूसों ने उसे खबर दी कि अगर तू अपनी सरकार चाहता है तो इमाम को नमाज़ पढ़ने से रोक ले और उन्हें वापस बुला ले वरना लोग तेरी सरकार का अंत कर देंगे। मामून ने इमाम को नमाज़ पढ़ाये बिना वापस बुला लिया। MM

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