ईदे क़ुरबान या बकरईद क्यों मनाई जाती है? 
(last modified Thu, 29 Jun 2023 03:49:31 GMT )
Jun २९, २०२३ ०९:१९ Asia/Kolkata
  •   ईदे क़ुरबान या बकरईद क्यों मनाई जाती है? 

दोस्तो आज हिलजिज्जा महीने की 10 तारीख है। हज संस्कार के दिन चल रहे थे। आज उसका अंतिम दिन है और आज के दिन हाजी और ग़ैर हाजी दोनों क़ुर्बानी कराते हैं।

आज के दिन कुर्बानी कराने का बहुत सवाब है। इस क़ुर्बानी का उद्देश्य सवाब हासिल करना और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत व परम्परा का अनुसरण करना है। यह कुर्बानी हज़रत इब्राहीम द्वारा दी गयी उस महान कुर्बानी को याद दिलाती है जिसे आपने सपने में देखा था कि मैं इस्माईल को ज़िबह कर रहा हूं। जब उन्होंने अपने सपने को अपने बेटे हज़रत इस्माईल से बयान किया तो उन्होंने कहा कि हे बाबा आपको जो आदेश मिला है उसे अंजाम दीजिये इंशाअल्लाह मुझे धैर्य करने वालों में पायेंगे।

आखिरकार वह समय आया जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्लाम अपने बेटे हज़रत इस्माईल को ज़िबह करने के लिए मेना के मैदान में ले गये। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांधी और हज़रत इस्माईल की गर्दन पर छुरी फेर दी परंतु महान ईश्वर के आदेश से हज़रत इस्माईल के स्थान पर दुंबा ज़िबह हो गया। जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपनी आंखों से पट्टी हटायी तो देखा कि हज़रत इस्माईल के बजाये दुंबा ज़िबह हो गया है। उस महान कुर्बानी की याद में आज हाजी और गैर हाजी दोनों कुर्बानी कराते हैं।

हज़रत इब्राहीम अलैहिस्लाम महान ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अपने प्राणप्रिय बेटे को कुर्बान करने के लिए मिना के मैदान में ले गये थे और उन्होंने अपने सपने पर अमल करके बता दिया कि महान ईश्वर की रज़ा के लिए अपनी प्रियतम वस्तु को भी कुर्बान करने के लिए तैयार रहना चाहिये। इस महान कुर्बानी से एक सीख यह मिलती है कि जो इंसान अपने पालनहार की रज़ा चाहता है उसे बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिये और हर मोमिन की परीक्षा होगी। एसा नहीं है कि इंसान केवल यह कह दे कि वह मुसलमान व मोमिन है तो उसे छोड़ दिया जायेगा। नहीं हर मोमिन की परीक्षा अवश्य होगी। बहरहाल हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम परीक्षा में सफल हो गये।

वास्तव में जिस इंसान का दिल अपने पालनहार के प्रेम से ओत-प्रोत हो या जिसका पूरा अस्तित्व ही अपने पालनहार और रचयिता के प्रेम के सागर में डूबा हो तो वह बड़ी से बड़ी कुर्बानी दे सकता है और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने जिस कुर्बानी का परिचय दिया उससे सिद्ध हो गया कि उनका पूरा अस्तित्व अपने पालनहार के प्रेम के सागर में डूबा हुआ था। यह अपने पालनहार से प्रेम का ही नतीजा था जिसकी वजह से उन्होंने इतनी बड़ी व महान कुर्बानी दी।

जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अपने बेटे को ज़िब्ह करने के लिए तैयार हुए तो महान ईश्वर ने उनकी प्रशंसा की और हज़रत इस्माईल की जगह कुर्बानी के लिए एक दुंबा भेज दिया और फरमाया हे इब्राहीम जो कुछ तुमसे सपने में अंजाम देने के लिए कहा गया था उसे तुमने कर दिखाया। हम इस प्रकार भला काम करने वालों को प्रतिदान देते हैं और सच में यह खुली परीक्षा थी, इब्राहीम पर सलाम हो वह हमारे नेक बंदों में से थे।

ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई कहते हैं कि ईदे कुरबान में एक बहुत बड़ा ईश्वरीय राज़ पोशीदा है। वह ईश्वर के चुने हुए पैग़म्बर द्वारा त्याग है। अपनी जान कुर्बान करने से बढ़कर अपने प्राणप्रिय को कुर्बान करना है। वह अपने हाथों से अपने प्राणप्रिय को कुर्बान कर रहे थे। यह त्याग उन मोमिनों के लिए आदर्श है जो सच्चाई और वास्तविकता के मार्ग को तय करना चाहते हैं, यह कुर्बानी सफलता और ईश्वरीय परीक्षा की प्रतीक है। ईश्वरीय परीक्षा एक प्रकार से बंदगी की परीक्षा है।

परीक्षा में हमेशा एक त्याग होता है। कभी जान का या माल का त्याग होता है, अगर इंसान त्याग कर सकता है तो त्याग करके अपने गंतव्य तक पहुंच सकता है परंतु अगर अपनी आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण न कर पाने की वजह से त्याग नहीं कर पाता है तो रह जाता है, परीक्षा में सफल नहीं हो पाता है। वास्तव में परीक्षा गंतव्य की ओर एक कदम है। हमारा और आपका जो इम्तेहान होगा उसका अर्थ यह है कि अगर हम इसमें सफल हो गये तो जीवन के नये चरण में पहुंच जायेंगे। इस संबंध में एक राष्ट्र या एक व्यक्ति में कोई अंतर नहीं है।

उस दिन परीक्षा में पास होने की वजह से ईश्वर ने हज़रत इब्राहीम की प्रशंसा की और एक बड़ा दुंबा भेजा ताकि वह अपने बेटे के स्थान पर उसकी कुर्बानी करें और यह हज संस्कार में आगामी पीढ़ियों के लिए एक परंपरा हो गयी। ईश्वर ने हज़रत इब्राहीम के नाम को भावी पीढ़ियों के लिए अमर कर दिया, उनके अमल को स्वीकार किया और यह बहुत बड़ी खुशखबरी व सफलता है जिसे अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम को दी।

रिवायत में है कि जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्लाम ने अपने बेटे को ज़िब्ह करने के लिए गर्दन पर छुरी रखी तो हज़रत जीबरईल ने कहा अल्लाहो अकबर, अल्लाहो अकबर, ला एलाहा इल्लल्लाहो व अल्लाहो अकबर। उसी वक्त हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने भी कहा  اللَّه اکبر و अलहम्मदो लिल्लाह  यह वह आवाज़ व नारा है जिसे ईदे कुर्बान के दिन हाजी और दूसरे मुसलमान बारबार कहते हैं। 

अहंकार एक ऐसी नैतिक बीमारी है जिसे अहंकारी अपने लिए पसंद तो करता है किन्तु वह इस बात को बिल्कुल पसंद नहीं करता कि दूसरे उसके साथ अहंकार से पेश आयें। अहंकारी को कोई भी इंसान पसंद नहीं करता है। जो अहंकारी होता है लोगों के दिलों में उसका कोई स्थान नहीं होता, लोग उससे कतराते हैं। अहंकार के मुकाबले में विनम्रता है और विनम्रता वह नैतिक आभूषण है जिसे हर इंसान यहां तक कि अहंकारी भी पसंद करता है। विनम्र और सुशील व्यक्ति को हर इंसान पसंद करता है। दूसरे शब्दों में मीठी ज़बान और नम्र इंसान को हर व्यक्ति पसंद करता है। जो इंसान महान ईश्वर का सामिप्त प्राप्त करना चाहता है उसे चाहिये कि अपने अंदर से अहंकार के वृद्क्ष को काट दे। हाजी जो कुर्बानी कराते हैं उसका एक अर्थ यह है कि वे अपने अंदर से हर प्रकार की बुराई को त्याग देते हैं।

आम तौर पर हर इंसान किसी न किसी चीज़ या इंसान से लगाव रखता और प्रेम करता है। कुछ लोग हैं जिन्हें पैसे से बहुत प्रेम है, कुछ लोग हैं जिन्हें पद और शोहरत बहुत पसंद है और इसी प्रकार कुछ लोग हैं जिन्हें समाज के दूसरे लोगों पर वर्चस्व जमाना बहुत पसंद है। सारांश यह कि हर इंसान किसी न किसी चीज़ व इंसान से लगाव रखता है और अपनी प्रियतम चीज़ या इंसान को अल्लाह की राह में कुर्बान करके उसका सामिप्य हासिल कर सकता है और महान ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है कि तुम कदापि नेकी नहीं प्राप्त कर सकते मगर यह कि उस चीज़ को ईश्वर की राह में खर्च करो जिसे तुम पसंद करते हो।

ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई कहते हैं" ईदे क़ुर्बान में एक बहुत बड़ा रहस्य निहित है। उस दिन ईश्वरीय पैग़म्बर हज़रत इब्राहीम ने बलिदान दिया। जान से बढ़कर कुर्बानी दी। वह अपने हाथों से अपने प्राणप्रिय बेटे को कुर्बान करने के लिए ले जाते हैं। वह भी उस जवान बेटे को जिसे महान ईश्वर ने वर्षों की प्रतीक्षा के बाद बुढ़ापे में उन्हें दिया था और हज़रत इब्राहीम ने कहा था कि प्रशंसा है उस ईश्वर की जिसने हमें बुढ़ापे में इस्माईल और इस्हाक़ को प्रदान किया। हज़रत इब्राहीम को काफी समय की प्रतीक्षा के बाद महान ईश्वर ने उन्हें दो बेटे प्रदान किये थे। इस प्रकार की हालत में हज़रत इब्राहीम ने अपने प्राणप्रिय बेटे को महान ईश्वर की राह और उसके प्रेम में कुर्बानी दी और ईश्वरीय परीक्षा में सफल हुए।

ईदे क़ुर्बान हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल द्वारा दी गयी महान क़ुर्बानी की याद दिलाता है। पवित्र कुरआन के सूरे साफ्फ़ात में हम पढ़ते हैं कि हज़रत इब्राहीम ने स्वप्न में देखा कि वह अपने बेटे हज़रत इस्माईल को महान ईश्वर की राह में ज़िब्ह कर रहे हैं। रोचक बात यह है कि विवाह के काफी वर्षों के बाद हज़रत इस्माईल पैदा हुए थे और वर्षों बाद हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को पुत्र होने के आनंद का आभास हो रहा था। फिर भी वह पूरी निष्ठा के साथ हज़रत इस्माईल को उस जगह पर ले जाते हैं जहां कुर्बानी करनी थी।

अलबत्ता महान व कृपालु ईश्वर का उद्देश्य केवल हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की परीक्षा लेना था और वह परीक्षा में पूरी तरह कामयाब हो गये। शैतान ने बाप- बेटे को अपने निर्णय से पीछे हटाने के लिए बड़ी कोशिश की परंतु वह अपने लक्ष्य में कामयाब न हो सका। जब भी शैतान हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को बहकाना चाहता था तो वह पत्थर मार कर उसे दूर भगाते थे।                            

दोस्तो मक्का में एक हाजी मेरे पास बैठा था वह कहता है कितना सुन्दर है!! पूरी दुनिया के मुसलमान अपने- अपने देशों और नगरों में कुर्बानी कराते हैं और एक दिन से लेकर एक सप्ताह तक जश्न मनाते हैं। अच्छे और सुन्दर कपड़े पहनते हैं। ईदे कुरबान की नमाज़ अदा करने के बाद एक दूसरे के यहां मिलने- मिलाने के लिए जाते हैं। मुसलमान आज के दिन हज़रत इब्राहीम की महान कुर्बानी की याद में भेड़, बकरी, गाय और ऊंट की कुर्बानी कराते हैं और उसके मांस को अपनी पड़ोसियों और गरीबों में बांटते हैं। उस हाजी से हमने कहा वास्तव में इस्लामी संस्कृति में ईद यानी ग़ैर अल्लाह से रिहाई हासिल करना है।

हज़रत अली अलैहिस्लाम फरमाते हैं हर वह दिन ईद है जिस दिन इंसान से कोई गुनाह न हो। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की हदीस की रोशनी में पूरी तरह स्पष्ट है कि वास्तविक अर्थों में ईद वह दिन है जिस दिन इंसान से कोई गुनाह न हो यानी जो इंसान गुनाह न करे तो वास्तविक अर्थों में उसकी ईद है।

पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं कि जिसे ईश्वरीय प्रतिदान पर विश्वास हो उसे चाहिये कि वह खुले दिल के साथ अपने समस्त माल को दूसरों को दे दे यानी ज़रूरतमंदों को दे दे। जो लोग कुर्बानी करते हैं और मांस को गरीबों में बांट देते हैं वास्तव में यह खुले दिल से दान का अभ्यास है और उसके नतीजे में इंसान को तकवा अर्थात ईश्वरीय भय हासिल होता है। हाजी हज में इस विश्वास पर पहुंच जाता है कि वह जो भी खर्च कर रहा है वह कहीं भी व्यर्थ जा नहीं जायेगा बल्कि बहुत अधिक लाभ के साथ उसे वापस मिलेगा।

तो दोस्तो ईदे क़ुर्बान के शुभअवसर पर रेडियो तेहरान आप सबकी सेवा में हार्दिक बधाई प्रस्तुत करता है। MM

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