Sep २१, २०२३ १५:५५ Asia/Kolkata
  • पैग़म्बरे इस्लाम से रवायत है कि मेरे शरीर का एक अंग ख़ुरासान में दफ़्न होगा

पैग़म्बरे इस्लाम से रवायत है कि मेरे शरीर का एक अंग ख़ुरासान में दफ़्न होगा। जो भी मुसीबत ज़दा व्यक्ति उसकी ज़ियारत के लिए जाएगा अल्लाह उसकी मुसीबत दूर कर देगा, जो भी गुनहगार उसकी ज़ियारत के लिए जाएगा अल्लाह उसके गुनाहों को माफ़ कर देगा।

इस समय उस घटना को जिसकी सूचना पैग़म्बरे इस्लाम ने पहले ही दे दी थी 1242 साल का समय बीत रहा है। जिस दिन पैग़म्बरे इस्लाम ने यह भविष्यवाणी की थी उस समय कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि पैग़म्बरे इस्लाम के जिगर के टुकड़े को एक मुसलमान शहीद कर सकता है।

सातवें अब्बासी ख़लीफ़ा मामून की तरफ़ से थोड़े थोड़े दिन पर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को दावतनामा भेजा जा रहा था। ख़लीफ़ा की ज़िद थी कि इमाम मदीने से सफ़र करके ख़ुरासान पहुंचें। इमाम ख़लीफ़ा का दावतनामा अस्वीकार कर देते थे। इमाम ने बार बार दावतनामा अस्वीकार किया तो फिर ख़लीफ़ा की तरफ़ से दरबार के दो अधिकारी सरकारी कारवां के साथ इमाम को लाने के लिए मदीना पहुंच गए। इमाम इस सफ़र के लिए तैयार नहीं थे और यह भाव उनके चेहरे से ज़ाहिर था लेकिन उनके पास कोई चारा नहीं था। इमाम को सफ़र के लिए मजबूर किया गया था। इमाम जानते थे कि इस सफ़र पर जाने के बाद उनकी वतन वापसी नहीं हो पाएगी इसलिए उन्हें अपने उत्तराधिकारी और अपने बाद के इमाम के बारे में लोगों को सूचित कर देना ज़रूरी है। इसलिए इमाम ने सफ़र पर रवाना होने से पहले अपने इकलौते बेटे इमाम जवाद और कुछ सहाबियों के साथ मक्का गए ताकि काबे से विदा ले लें। अल्लाह की इबादत में लीन रहने और काबे का तवाफ़ कर लेने के बाद इमाम ने मक़ामे इब्राहीम पर नमाज़ के लिए खड़े हो गए। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम की उम्र उस समय मात्र पांच साल थी। मगर उन्होंने अपने पिता इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का तवाफ़ करने का अंदाज़ देखा तो समझ गए कि यह अलविदाई तवाफ़ है। वो बहुत दुखी हो गए। इमाम बहुत ग़मगीन हालत में हजरे इस्माईल के पास अल्लाह की इबादत कर रहे थे। बाप और बेटे उस जगह खड़े हुए जहां सदियों पहले ख़ानए काबा का निर्माण करने वाले अल्लाह की इबादत करते थे। यह बाप बेटे भी हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल की तरह अल्लाह की बारगाह में बहुत प्रिय और प्रतिष्ठित हैं उनसे मांगी जाने वाली हाजत पूरी होती है। अल्लाह ने मक़ामे इब्राहीम और हजरे इस्माईल की जगह पर नमाज और दुआ का आदेश दिया है और वादा किया है कि इन जगहों पर दुआ करने वालों की दुआ क़ुबूल होगी।

कुछ देर के बाद इमाम जवाद से कहा गया कि अब चलिए लेकिन वो अपनी जगह से उठने के लिए तैयार न हुए। वो कहते थे मैं तभी उठूंगा जब अल्लाह चाहेगा। आख़िरकार पिता यानी इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम बेटे इमाम जवाद के पास गए और उन्हें प्यार करके कहा कि बेटा उठा जाओ।

बेटे ने कहा कि मैं कैसे दुआ रोक दूं जबकि देख रहा हूं कि आप ख़ानए ख़ुदा से उस अंदाज़ में विदा ले रहे हैं जिस अंदाज़ में आख़िरी विदा ली जाती है, मानो आप अब इस सफ़र से वापस नहीं आएंगे और मैं यतीम हो जाउंगा। इमाम रज़ा ने कहा कि बेटा अल्लाह की इच्छा पर राज़ी रहना चाहिए। हर स्थिति में सब्र करना चाहिए और अल्लाह का शुक्र अदा करना चाहिए। इसके बाद बाप बेटे एक दूसरे से लिपट कर बहुत रोए।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम मक्के से मदीने गए और वहां से ख़ुरासाना रवाना होने से पहले कई बार अपने दादा पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र की ज़ियारत करने और विदा लेने के लिए गए। हर बार बहुत भावुक हो जाते और आवाज़ से रोते थे। मदीने के कुछ लोगों को लगता था कि यह आम सफ़र है लेकिन इमाम ने उनसे कहा कि मैं अपने दादा की क़ब्र के पास से जा रहा हूं और वतन से दूर इस दुनिया से जाउंगा और हारून रशीद की क़ब्र के पास मेरी क़ब्र बनेगी।

आख़िरकार इमाम की मदीने से रवानगी क़रीब आ गई। आख़िरी लम्हों मं इमाम ने परिवार के सारे लोगों को जमा किया और कहा कि मेरे लिए रोओ कि मैं अपने लिए तुम्हारे रोने की आवाज़ सुन सकूं। इमाम इस तरह यह संदेश देना चाहते थे कि इस सफ़र के लिए इमाम और उनका परिवार तैयार नहीं है बल्कि अब्बासी ख़लीफ़ा की साज़िश के नतीजे में मजबूरन सफ़र कर रहे हैं।

अब्बासी ख़लीफ़ाओं हमेशा अहले बैत को चाहने वालों को पीड़ा दी और उन पर अत्याचार किया ताकि उनका दमन कर सकें। लेकिन इतने अत्याचार और दमन के बावजूद पैग़म्बरे इस्लाम के अहले बैत के श्रद्धालुओं की संख्या दिन ब दिन बढ़ती गई और अब भी बढ़ रही है। उस ज़माने में बहुत से लोगों ने जो अब्बासी ख़लीफ़ाओं से नाराज़ थे और अहले बैत की सरकार चाहते थे बग़ावत की। अब्बासी ख़लीफ़ा मामून की कोशिश थी कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दे ताकि अहलेबैत के चाहने वालों का आक्रोश और विद्रोह दब जाए और उसकी ख़िलाफ़त को सब स्वीकार कर लें।

इमाम का कारवां रवाना हुआ। ख़लीफ़ा के कारिंदों को आदेश था कि इमाम को उन शहरों से गुज़ारें जहां इमाम के चाहने वालों की आबादी कम हो ताकि उनकी यात्रा को कहीं बीच में ही रोका न जा सके। इमामों ने हमेशा बड़े कठिन हालात में जीवन गुज़ारा है लेकिन उन्होंने हर हाल में दीन का प्रचार किया और इस्लामी विशुद्ध शिक्षाएं लोगों तक पहुंचाईं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने इस जबरन सफ़र को अहलेबैत की शिक्षाओं के प्रचार के अवसर में बदल दिया वह भी उन लोगों के बीच जो पैग़म्बरे इस्लाम के अहलेबैत को कम पहचानते थे।

इमाम जब किसी शहर में पहुंचते तो इसकी ख़बर शहर के अलावा आस पास की बस्तियों में भी फैल जाती और अहलेबैत को चाहने वाले इसी तरह दूसरे लोग ही उन्हें देखने के लिए जमा हो जाते। इमाम लोगों के बीच तक़रीर करते और उन्हें इस्लाम की शिक्षाओं और आस्थाओं के बारे में बताते थे। इस सफ़र में ख़ुरासन के क़रीब नीशापुर नाम की जगह पर बहुत अहम घटना हुई। इमाम नीशापुर पहुंचे और जब उनका कारवां वहां से रवाना होने लगा तो ओलमा और विद्वानों का बड़ा समूह उनसे मिलने पहुंच गया। उन्होंने इमाम से गुज़ारिश की कि कोई अच्छा कथन बयान करें। इमाम ऊंट पर सवार हो चुके थे। उन्होंने महमिल से सर बाहर निकाला और कहने लगे कि मैंने अपने पिता मूसा इब्ने जाफ़र से सुना, उन्होंने अपने पिता से सुना और उन्होंने अपने पिता, यहां तक कि यह सिलसिला हज़रत अली और पैग़म्बरे इस्लाम तक पहुंचा कि उन्होंने कहा कि मैंने जिब्राईल से सुना और जिब्रईल ने अल्लाह से सुना कि अल्लाह ने कहा कि यह कलमा ला इलाहा इल्लल्लाह मेरा मज़बूत क़िला है। जो भी इस क़िले में दाखिल हो गया वह मेरे अज़ाब से सुरक्षित रहेगा। इमाम की बात यहां तक पहुंची थी कि कारिंदों ने कारवां को आगे बढ़ा दिया। मगर चलते चलते इमाम ने ऊंची आवाज़ में कहा कि इसकी कुछ शर्तें हैं और उन शर्तों में से एक मैं हूं। इस हदीस की इस्लामी धर्मगुरुओं के बीच सुनहरी श्रंखला वाली हदीस कहा जाता है यानी इसे बयान करने वाले रावियों की पूरी जंजीर की हर कड़ी एक इमाम और एक मासूम पर आधारित है।

ला इलाहा इल्लल्लाह  वाक़ई यह कलमा क्या है कि इंसान को अज़ाब से सुरक्षित बना देता है और वह अज़ाब क्या है जो इस कलमे के बाद ख़त्म हो जाता है। स्वीज़रलैंड के जाने माने विचारक और मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्टाव जोंग कहते हैं कि मेरे पास इलाज के लिए आने वाले दुनिया भर के बीमारों में दो तिहाई एसे होते हैं जो पढ़े लिखे और कामयाब लोग होते हैं मगर उनकी सबसे बड़ी परेशानी यह होती है कि उन्हें यह आभास सताने लगता है कि उनके जीवन का कोई अर्थ और मक़सद नहीं है। वजह यह है कि बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी का इंसान टेक्नालोजी की प्रगति की वजह से भौतिकवादी सोच में फंस कर धर्म को हाथ से गवां चुका है। इसलिए वह इधर उधर थपेड़े खाने लगा है। जिसके पास धर्म न हो वह इंसान अकसर ख़ुद को निरर्थक समझने लगता है।

लक्ष्यहीनता और निर्रथक जीवन का भाव बहुत बड़ा अज़ाब है जो भौतिक दुनिया में उन लोगों को बहुत परेशान करता है जो अल्लाह के वजूद का इंकार करते हैं। हमें यह मालूम होना चाहिए कि इस विशाल दुनिया में इंसान का सहारा अल्लाह पर ईमान और उसके अनन्य मानना है और यही ला इलाहा इल्लल्लाह का मतलब है। इस्लाम में इस कलमे को कममए तौहीद कहते हैं और तौहीद दीन के हर नियम और उसूल पर हावी होती हैं यह वही चीज़ है जिसे पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने मिशन के शुरू में बार बार दोहराया। वो कहते थे कि कहो ला इलाहा इल्लल्लाह और कामयाब हो जाओ।

इस बात की अस्ली हक़ीक़त और तह तक पहुंचने का क्या रास्ता है? इसकी हक़ीक़त वही है जिसे क़ुरआन ने अलग अलग अंदाज़ में बयान किया है। सूरए इब्राहीम की आयत 24 में हम पढ़ते हैं कि कलमए तौहीद पाकीज़ा दरख्त के समान है जिसकी जगह एक जगह अडिग और डालियां आसमान तक पहुंची हुई हैं। इस दरख़्त की जड़ दरअस्ल पैग़म्बरे इस्लाम का पाकीज़ा वजूद है और इसकी टहनियां और फल इमामों के ज्ञान से हासिल होने वाले विचार और शिक्षाएं हैं।

जब इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने नीशापुर के विद्वानों के बीच ऊंची आवाज़ में कहा कि मज़बूत क़िले में दाख़िल होने की कुछ शर्तें हैं तो वो इसी दरख्त की बात कर रहे थे। अल्लाह के मज़बूत क़िले में दाख़िल होने की एक अहम शर्त यह है कि अल्लाह को अमली तौर पर अपना अभिभावक समझा जाए। अल्लाह के रसूल और मासूम इमाम भी लोगों के अभिभावक हैं। आज की दुनिया में कुछ लोग इसे स्वीकार करने पर तैयार नहीं इसलिए लगातार मुशकिलों में उलझ रहे हैं।

आठवे इमाम हज़रत रज़ा अलैहिस्सलाम शिया मत के अनुसार आठवें इमाम हैं। उनका नमा अली है लेकिन चूंकि वो अल्लाह की हर मर्ज़ी पर राज़ी रहते थे इसलिए उनकी उपाधि रज़ा पड़ गई। उनके गहरे ज्ञान की वजह से उन्हें अलहे बैत के आलिम की उपाधि से भी याद किया जाता था। उन्हें मेहरबान इमाम भी कहा जाता है। सन 148 हिजरी क़मरी में मदीना में जन्म लेने वाले इस इमाम को 203 हिजरी क़मरी में तब शहीद कर दिया गया जब वो 55 साल के थे। उन्हें मामून ख़ालीफ़ा के आदेश पर ज़हर देकर शहीद कर दिया गया।

शहादत के बाद इमाम को मामून ने सनाबाद नामक गांव में अपने पिता हारून की क़ब्र के पास दफ़्न करवा दिया। आज वही गांव पूर्वोत्तरी ईरान का बहुत बड़ा शहर बन गया है। आज दुनिया भार से करोड़ों लोग इमाम की ज़ियारत के लिए आते हैं।

 

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