शबे यलदा
दादा ने मेरी बहन से कहा कि उन्हें शाहनामा लाकर दे।
बहन ने अलमारी से लाकर, चमड़े के कवर वाला शाहनामा दादा को दिया। इस किताब की सुन्दर कहानियां, मेरे बचपन की मासूमियत के साथ घुल मिलकर शबे यलदा के बारे में कितने सुन्दर सपनों के ताने बाने बुनती थीं। मैं हमेशा उन सपनों के बारे में और साल की ठंडी एवं लम्बी रातों में लगने वाले दस्तरख़्वान के बारे में सोचता हूं। चीनी के नीले बर्तनों में अनार के दानों का क्या स्वाद होता था। बाहर बर्फ़बारी और कंपकपाने वाली ठंड होती थी, लेकिन परिजनों और संबंधियों की उपस्थिति से घर में गुनगुनी गर्मी होती थी। अब वर्षों से अपने बच्चों के साथ दस्तरख़्वान पर बैठता हूं और आशा करता हूं कि बरसों तक मेरे बच्चों के लिए प्रकाश से भरपूर शबे यलदा आती रहेगी।
प्राचीन ईरान में पतझड़ ऋतु की अंतिम और सर्दियों की पहली रात को कि जो साल की सबसे लम्बी रात होती है, शबे यलदा कहते थे और इस रात जश्न का आयोजन किया जाता था। यलदा का अर्थ है, जन्म। सूर्य या प्रेम का जन्म, उस दिन को ईरानी पवित्र मानते थे, जो आज भी जारी है। इसी प्रकार यलदा को परिजनों और रिश्तेदारों के एकत्रित होने का अवसर भी कहा जा सकता है।

शबे यलदा में सगे संबंधी परिवार के बुज़ुर्ग के घर जमा होते हैं और सर्दियों की शुरूआत में एक साथ बैठकर आधी रात तक फल खाते हैं और भोजन करते हैं। यह रात पतझड़ की अंतिम और सर्दियों की पहली रात होती है। इस अवसर पर उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दियों का मौसम होता है, जिसके बाद से दिन बड़ा होना शुरू होता है और रात छोटी होने लगती है। प्राचीन काल में ईरानियों का मानना था कि शबे यलदा के बाद, दिन बड़े होने लगते हैं इसलिए सूर्य अधिक शक्ति के साथ चमकने लगता है, इसी कारण साल के दसवें महीने को दय कहते हैं, जिसका अर्थ है रचयिता व रचनाकार।
प्राचीन काल में लोगों के जीवन का मुख्य स्रोत, कृर्षि होता था। लोग ऋतुओं के परिवर्तन और प्राकृतिक बदलाव के आदी हो जाते थे। समय बीतने के साथ साथ और अनुभव के आधार पर वे अपने कार्यों के लिए फ़सलों और मौसमों के दृष्टिकत योजना बनाते थे। वे देखते थे कि साल के कुछ मौसमों में दिन काफ़ी लम्बे होते थे, जिसके परिणाम स्वरूप, लोग सूर्य के प्रकाश से अधिक लाभ उठा सकते थे। जिससे लोगों में यह विश्वास पैदा हुआ कि सूर्य और उसका प्रकाश, भलाई के प्रतीक हैं, जो रात के अँधेरों से लड़ते हैं।
शबे यलदा ऐसी रात है, जिसे पिछले सात हज़ार सालों से ईरानी त्योहार के रूप में मनाते आ रहे हैं। शबे यलदा में लगने वाले दस्तरख़्वान का नाम मीज़द था, जिसमें ड्राई फ़्रूट्स और फल शामिल होते थे। इस रात ईरानी जो दस्तरख़्वान लगाते हैं, वह नौरोज़ में लगने वाले हफ़्त सीन दस्तरख़्वान की भांति ही होता है और उसमें एक आईना भी रखा जाता है। दस्तरख़्वान पर रखी जाने वाली चीज़ों में अनार, तरबूज़, अन्य फल और ड्राई फ़्रूट्स होते हैं, जो स्वास्थ्य, बरकत और ख़ुशहाली का प्रतीक हैं। इस रात की अन्य रस्मों में भविष्य के बारे में अटकलबाज़ी करना है जो अख़रोट के ऑस्टियोपोरोसिस को देखकर की जाती है। तरबूज़, सूर्य का प्रतीक है, ईरानियों का मानना है कि अगर सबसे लम्बी रात में तरबूज़ खाया जाए तो सर्दियों के मौसम में सर्दी नहीं लगती और बीमार नहीं होते हैं। वे इस रात में ईश्वर से प्रकाश और बरकत की दुआ मांगते थे, ताकि आने वाले सर्दियों के मौसम को ख़ुशी से गुज़ार सकें। दस्तरख़्वान पर ताज़ा और सूखे फलों का अर्थ भी यह है कि वसंत और गर्मी के मौसम को स्वास्थ्य के साथ गुज़ार सकें। यह पूरी रात रोशनी और प्रकाश में गुज़ारी जाती है, ताकि अँधेरों को विनाश का अवसर प्राप्त न हो।
यह त्योहार ईरान का एक प्राचीन त्योहार है। शबे यलदा को शबे चिल्ले भी कहा जाता है। चिल्ले को चहल शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है चालीस, जो एक निर्धारित समय के बीतने की निशानी है। इसका तात्पर्य भीषण ठंड भी होता है। साल भर में दो अवसरों पर चिल्ले का प्रयोग किया जाता है, एक गर्मियों के शुरू में और दूसरे सर्दियों के शुरू में। प्रत्येक चिल्ले के दो भाग होते हैं, बड़ा भाग, जिसमें चालीस दिन होते हैं और छोटा भाग, जिसमें बीस दिन होते हैं। सर्दियों का चिल्ला सर्दी के मौसम से शुरू होता है और चालीस दिन तक जारी रहता है। सर्दियों के मौसम का छोटा चिल्ला ईरानी कैलेंडर के बहमन महीने की दसवीं रात से महीने के अंत तक होता है। चिल्ला शब्द, जन्म शब्द से संबंधित है। वास्तव में चिल्ले की रात में भी सूर्य के जन्म लेने की प्रतीक्षा समाप्त होती है।

प्राचीन ईरान में शबे यलदा के बाद वाला दिन, अर्थात दय की पहली तारीख़ को सर्य का दिन कहा जाता था। ईरानी संस्कृति में जश्न और ख़ुशी की अहम भूमिका है, इसलिए ईरान में लोग इस दिन घरों और महल्लों को सजाते हैं और रोशनी करते हैं। लोग शबे यलदा में रात भर जागकर सूर्य के उदय होने और सुबह का इंतेज़ार करते हैं, ताकि अपने आँखों से सूरज को उदय होते हुए देखें। उनका मानना था कि हमेशा आशा बाक़ी रहती है कि हर अंधेरे के बाद, सूर्य उदय होगा।
शबे यलदा में हाफ़िज़ के शाहनामे से फ़ाल निकालने और उसे पढ़ने का कारण, लोगों का मिल जुलकर बैठना बताते हैं। सामान्य रूप से परिवार के बुज़ुर्ग के घर में लोग इकट्ठा होते हैं। हालांकि शाहनामे से फ़ाल निकालने का कारण यह है कि इस महान ईरानी कवि के शेरों का एक बड़ा भाग, क़ुरान और धार्मिक किताबों पर आधारित है। ईरानी क़ुरान की आयतों का अनुसरण करते हुए स्वयं के लिए अच्छे अंत की कामना करते हैं। शबे यलदा की अन्य रस्मों में परिवार के बुज़ुर्गों और दादा दादियों से कहानियां सुनना है, लेकिन यह सब सगे संबंधियों के मिल जुलकर बैठने का एक बहाना है, ताकि साल की सबसे लम्बी रात ख़ुशी से गुज़ारी जा सके।
शबे यलदा का त्योहार एक प्राचीन त्योहार है, लेकिन आज भी ईरानी इसे मनाते हैं। इसके बाक़ी रहने का कारण यह है कि यह प्रेम, ख़ुशी और परिजनों के एकत्रित होने का संदेश देता है। ईरानियों का मानना है कि यह रात, मां और बाप के हाथों को चूमने का एक अवसर है, जिनकी मुस्कराहट उनके जीवन में बहार की ताज़गी लाती है। इसका एक अन्य महत्व, एक दूसरे को आशा दिलाना है, ताकि सर्दियों की कठियाईयां स्वास्थ्य और एक दूसरे के सहयोग से गुज़र जाएं। ईरानियों के लिए इस त्योहार का महत्व इतना अधिक है कि ईरान के सांस्कृतिक धरोहर संगठन ने 1387 हिजरी शम्सी में शबे यलदा को ईरान का एक राष्ट्रीय त्योहार घोषित किया है।
प्रत्येक वर्ष शबे यलदा को देखने वालों और सर्दियों का अनुभव करने वालों, इस लम्बी रात में अपने पालनहार से दुआ करो कि शबे यलदा की मिठास जीवन में हमेशा बाक़ी रहे।