स्वतंत्रता प्रभात 11
(last modified Sat, 18 Feb 2017 08:22:51 GMT )
Feb १८, २०१७ १३:५२ Asia/Kolkata

इस्लामी क्रांति की 38वीं वर्षगांठ ऐसी स्थिति में आ पहुंची है कि ईरान ने विभिन्न क्षेत्रों में अपार उपबल्धियां प्राप्त की हैं।

इस्लामी गणतंत्र ईरान ने विदेशी और आंतरिक स्तरों पर आधारभूत परिवर्तनों का सामना किया है और क्षेत्र और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में विशेष स्थान प्राप्त किया है। पिछले चार दशकों के दौरान पैदा होने वाले परिवर्तनों और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ईरान के स्थान को समझने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि हम अतीत पर भी एक नज़र डालें और यह देखें कि इस्लामी क्रांति किन परिस्थितियों में सफल हुई और किन संकटों का इसे सामना हुआ और किस प्रकार उसने मध्यपूर्व और वैश्विक परिवर्तनों को प्रभावित किया।

ईरान की इस्लामी क्रांति ऐसी स्थिति में सफल हुई कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दो ध्रुवीय व्यवस्था का राज था। जो भी क्रांति हो रही थी वह इन दोनों ध्रुवों में से किसी एक पर निर्भर होती थी। वास्तव में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था अमरीका और सोवियत संघ जैसे शक्ति के दो ध्रुवों में विभाजित हो गयी थी। दुनिया की दोनों ही बड़ी शक्तियों में से हर एक के पास पांच महाद्वीप थे। इन दोनों शक्तियों ने अपनी शक्ति और सत्ता बचाने के लिए बहुत अधिक प्रयास किए और एक दूसरे के क्षेत्रों में प्रभाव डालने का प्रयास किया। इन दोनों शक्तियों पर निर्भर धड़ों और गुटों के मध्य दोनों प्रतिस्पर्धियों के मध्य प्रतिस्पर्धा के परिणाम स्वरूप गृह युद्धों और अंतर्राष्ट्रीय युद्ध छिड़ गये और लाखों लोगों को इस प्रतिस्पर्धा के परिणाम स्वरूप अपनी जानों से हाथ धोना पड़ा और दुनिया के बहुत से निर्धन देशों के आधार भूत ढांचे तबाह हो गये।

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इस प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय वातावरण में ईरान पश्चिमी ब्लाक में अमरीका के वर्चस्व में था। ईरान के विभिन्न क्षेत्रों में अमरीका के चालीस हज़ार से अधिक सलाहकार सक्रिय थे। अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निकोसन के अनुसार ईरान, मध्यपूर्व का शांत द्वीप था। निकोसन की रणनीति, मध्यपूर्व में दो स्तंभीय नीति पर आधारित थी। इस नीति के आधार पर अमरीकी कार्यक्रम के दो मुख्य स्तंभों के रूप में ईरान और सऊदी अरब की सरकारों की ज़िम्मेदारी थी कि वह फ़ार्स की खाड़ी में शक्ति के शून्य को भरें और उसकी रक्षा करें।

अमरीका ने ईरान और सऊदी अरब की सैन्य और आर्थिक सहायता करके उनको पूरे क्षेत्र में शांति स्थापित करने और अपने साधन के रूप में प्रयोग करने के लिए मज़बूत कर दिया और उसको इस काम के लिए प्रत्यक्ष उपस्थिति की आवश्यकता का आभास नहीं हुआ। इन दोनों मुख्य स्तंभों में उसका सबसे पहला चयन ईरान था और सऊदी अरब का स्थान दूसरे नंबर पर था। वह ईरान पर सुरक्षा कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए उसकी वित्तीय सहायताओं पर विशेष ध्यान देता था। सऊदी अरब, तेल से मिलने वाली अपार संपत्ति के बावजूद, जनसंख्या में कमी और उद्योग के क्षेत्र में पिछड़ेपन का शिकार होने तथा मज़बूत राजनैतिक व कार्यालय व्यवस्था के न होने के कारण अमरीका के स्तर पर खरा नहीं उतर पा रहा था। निकोसन की मुख्य रणनीति और उनके पहले स्तंभ के रूप में ईरान, फ़ार्स की खाड़ी से ब्रिटेन के निकलने के बाद क्षेत्र में पुलिसिया ज़िम्मेदारी अदा करने लगा।

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निकोसन की रणनीतियां उन देशों में लागू होने लगीं जो अमरीका के हितों की रक्षा और इस देश के प्रभावों को मज़बूत करने के लिए आवश्यक क्षमताओं से संपन्न थे। निकोसन का मानना थ कि ईरान अपनी स्ट्राटैजिक स्थिति के दृष्टिगत, अमरीका की दृष्टिगत नीतियों को लागू करने की ज़िम्मेदारी निभाने की क्षमता रखता था। दक्षिणी ईरान के तेल से लेकर और उत्तर में सोवियत कम्युनिस्ट तक, ईरान के स्ट्रटैजिक महत्व की स्पष्ट निशानियां थीं। ईरान अरब क्षेत्र के देशों के बीच एकमात्र ऐसा देश था जिसका फ़ार्स की खाड़ी पर राज था। सैन्य मामलों के विशेषज्ञ जैश्वा आपस्तीन के अनुसार, पेन्टागन, नैटो और सोवियत संघ की सेना की ओर से जारी किए गये विभिन्न प्रमाणों का हवाला देते हुए कहते हैं कि ईरान ने आश्चर्यचकित ढंग से अमरीका की सैन्य रणनीति में महत्व स्थान प्राप्त कर लिया था। अमरीकी सरकार क्षेत्र में अपनी रणनीति की विफलता के बाद सदैव से एक ऐसे घटक के प्रयास में रहा जो उसकी शक्ति को जारी रखने के लिए आवश्यक शांति व स्थिरता से संपन्न हो। दूसरे शब्दों में अमरीका नहीं चाहता था कि वह अपनी क्षेत्रीय नीतियों में ऐसे घटकों पर निर्भर रहे जिसकी आंतरिक स्थिति सरलता से अशांत हो जाए और आंतरिक समस्याओं से उलझने के कारण अमरीकी हितों की सेवा न कर सके। यही कारण है कि ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता अमरीका के लिए आश्चर्यजनक थी।

अमरीका के राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के पूर्व सदस्य गैरी सिक का कहना है कि कोई भी ईरान की क्रांति का सामना करने को तैयार नहीं था, कार्टर सरकार भी क्रांति के अपने चरम पर पहुंचने और ईरान की शाही शासन व्यवस्था के धराशायी होने से हतप्रभ हो गयी। शाह और उसके समर्थक भी वर्ष 1978 के अंतिम महीनों में ईरान में जो घटना घटी, उसका सही अनुमान नहीं लगा सके। यहां तक कि इस्लामी क्रांति की सफलता के कुछ सप्ताह पहले तक शाही शासन के पतन के कारणों की सही ढंग से समीक्षा कर सके। हमारे लिए इस बिन्दु का सहन करना कि क्रांति के सामने हतप्रभ हो गये, बहुत कठिन है। हमारी अपेक्षाओं के विपरीत और वास्तविकताओं तथा समीक्षाओं के विरुद्ध मामला सामने आया, हमारी कुछ समीक्षाएं थीं जिस पर हम निर्भर थे। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने वर्ष 1980 में राष्ट्रपति चुनाव में पराजित होने के बाद इस प्रकार कहा था कि यह बिन्दु बहुत रोचक है कि एक कठिन चुनावी प्रतिस्पर्धा में एक राष्ट्रपति का भविष्य, मिशीगन या पेन्सेलेवानिया या न्यूयार्क में चुनावी मुक़ाबले में निर्धारित नहीं होता बल्कि ईरान में निर्धारित होता है।

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यहां पर ध्यान योग्य बिन्दु यह है कि इस्लामी क्रांति पूर्ण रूप से धार्मिक क्रांति थी जिसने इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में धार्मिक मूल्यों की पुनर्जीवित करने, विदेशियों पर बिना किसी निर्भरता और पूरब की साम्राज्यवादी नीतियों की निंदा के नारों के साथ सफल हुई। इस्लामी क्रांति दुनिया में दो ध्रुवीय व्यवस्था के समीकरणो के विपरीत सफल हुई और उसने मध्यपूर्व में अमरीका की विस्तारवादी नीतियों को भारी नुक़सान पहुंचाया। अमरीका के प्रभाव से ईरान के निकलने के कारण अमरीका ने ईरान के विरुद्ध हर प्रकार की राजनैतिक, आर्थिक व सैनिक शैलियों का प्रयास किया। विद्रोह के लिए प्रयास, सीमावर्ती प्रांतों में अलगावादी गुटों का समर्थन, आर्थिक प्रतिबंध, आठ वर्षीय थोपा गया युद्ध और इराक़ के बासी शासन द्वारा ईरान को तबाह करने की योजना,  वह कार्यवाहियां थी जो ईरान की नवआधार इस्लामी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए अमरीका ने अंजाम दी थीं किन्तु ईरानी राष्ट्र और सरकार ने समस्त क्रांतियों के विपरीत इन समस्त षड्यंत्रों को विफल बनाकर अल्पावधि में अपनी व्यवस्था को बहुत अधिक मज़बूत बना लिया और राजनैतिक, मानवीय, विज्ञान, अर्थव्यवस्था, सामाजिक, सांस्कृतिक सुरक्षा और प्रतिरक्षा के क्षेत्रों में आश्चर्यजनक प्रगतियां की हैं।

इस्लामी क्रांति के बाद ईरान ने ईश्वर पर भरोसा करते हुए और जनता की सहायता से विभिन्न क्षेत्रों में ऐसी प्रगतियां और विकास किए हैं कि आज न केवल पूरब और पश्चिम के निष्पक्ष बुद्धिजीवी और विशेषज्ञ बल्कि ईरान के कठोर दुश्मन तक इसको स्वीकार करने से नहीं थकते। उदाहरण स्वरूप मध्यपूर्व के मामलों के विशेषज्ञ पैट्रिक सील मिडिलईस्ट आन लाइन में इस बात पर बल देते हुए कि ईश्वर एक प्रकाशमयी लोकतंत्र में परिवर्तित होने जा रहा है, लिखते हैं कि यह देश धर्मगुरुओं के नेतृत्व में मध्यपूर्व में वर्तमान समय में सबसे स्वतंत्र, सबसे आधुनिक, सबसे सुव्यवस्थित देशों में गिना जाता है।

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उल्लेखनीय है कि इस्लामी क्रांति की सफलता के 38 वर्ष हो रहे हैं और देश में लगभग 38 चुनाव आयोजित हो चुके हैं। ईरान पर थोपे गये सद्दाम के युद्ध के दौरान भी जब शहरों में युद्ध की आग भड़की हुई थी, ईरानी शहरों पर मीज़ाइलों और बमों की वर्षा हो रही है, बमों और मीज़ाइलों की बारिश में अपने समय पर चुनाव आयोजित हुए। अब तक राष्ट्रपति पद के लिए 11 चुनाव, संसद के दस चुनाव, नगर परिषद के पांच चुनाव, वरिष्ठ नेता का चयन करने वाली परिषद के पांच चुनाव और तीन जनमत संग्रह आयोजित हो चुके हैं।

अमरीका के न्यो कंज़रवेटिव संकाय अमेरिकन इन्टर प्राइज़ेज़ ने भी क्षेत्र में शक्ति के संतुलन के केन्द्र और अपनी उपलब्धियों को सिद्ध करने वाले के रूप में ईरान के भविष्य के स्थान के बारे में अमरीकी अधिकारियों के नाम अपनी रिपोर्ट में सचेत किया है। वर्तमान समय में ईरान ने विज्ञान के क्षेत्र में बहुत ही ऊंची छलांग लगाई जिससे दुनिया हतप्रभ हो गयी है। ईरानी शोधकर्ताओं ने पूरी दुनिया में 8513 शोध पत्र पेश करके विज्ञान और शोध के क्षेत्र में दुनिया में 16वां स्थान प्राप्त कर लिया और दुनिया के प्रसिद्ध शोधकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की श्रेणी में शामिल हो गये हैं।

इसी प्रकार परमाणु ईंधन चक्र की संपूर्ण तकनीक और ज्ञान की प्राप्ति के क्षेत्र में ईरान दुनिया के पांच देशों में शामिल हो गया है और इसी प्रकार नैनो तकनीक के क्षेत्र में भी ईरानी विशेषज्ञों ने अन्य देशों के साथ कई सफलताएं अर्जित की हैं और इस क्षेत्र में ईरान दुनिया का सातवां देश बन गया है।

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इस्लामी क्रांति की सफलता से पहले तक एक लाख 75 हज़ार छात्रों की संख्या थी जो वर्तमान समय में बढ़कर 42 लाख हो गयी है। ईरान ने ज़मीन से ज़मीन, ज़मीन से हवा और ज़मीन से समुद्र में मार करने वाले लंबी दूरी के विभिन्न प्रकार की बैलेस्टिक मीज़ाइलों के उत्पादन और निर्माण में आश्चर्यजनक प्रगतियां प्राप्त की हैं। इस प्रकार ज़मीन से ज़मीन पर मार करने वाले सूक्ष्म और सटीक मीज़ाइलों के निर्माण की तकनीकों से संपन्न कुछ गिन चुने देशों की पंक्ति में आ गया है। ज्ञात रहे कि ईरान की समस्त सैन्य प्रगतियां देश की रक्षा के लिए और प्रतिरक्षा आयाम से संपन्न हैं। क्षेत्र और क्षेत्र के बाहर के बहुत से देश ईरान के दुश्मन हैं। यह सैन्य प्रगतियां इसलिए हैं कि सद्दाम के बासी शासन के बाद कोई भी दूसरा शासन ईरान पर हमले का साहस न कर सके और जिसने भी यह प्रयास किया तो उसे मुंहतोड़ उत्तर दिया जाएगा।

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इस्लामी गणतंत्र ईरान ने मध्यपूर्व क्षेत्र के कुछ देशों तथा अमरीका और ब्रिटेन जैसी हस्तक्षेपकर्ता सरकारों की समस्त दुश्मनियों के बावजूद यह सिद्ध कर दिया कि वह क्षेत्र के समस्त देशों और स्वयं के लिए शांति व सुरक्षा की स्थापना का इच्छुक है। वर्तमान समय में आतंकवाद और चरमपंथ, क्षेत्र और दुनिया के लिए ख़तरे का स्रोत बन गया है और इस्लामी गणतंत्र ईरान क्षेत्र का एक मात्र देश है जो पूरी गंभीरता के साथ क्षेत्र में आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। यह वह बिन्दु है जिसको ईरान के शत्रुओं ने भी स्वीकार किया है और यह स्वीकार किया कि क्षेत्र में ईरान के सहयोग के बिना आतंकवाद और चरमपंथ से मुक़ाबला संभव नहीं है। यह बातें यह दर्शाती हैं कि ईरान मध्यपूर्व क्षेत्र में शांति और स्थिरता की स्थापना में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रखता है।