क्षेत्र के इस्लामी आंदोलनों में ईरान की क्या भूमिका रही, ईरान ने कैसे क्षेत्र में एक नई रूह फूंकी...
बीसवीं शताब्दी, दो विश्व युद्धों की साक्षी रही। इस शताब्दी के दौरान देशों के भीतर सत्ता की खींचतान अधिक देखने को मिली।
इस शताब्दी को आरंभ हुए अभी 13 वर्ष ही गुज़रे थे कि दुनिया ने प्रथम विश्वयुद्ध का आरंभ देखा। यह एसा युद्ध था जिसमें बहुत से देशों को न चाहते हुए भी इसमें भाग लेना पड़ा था।प्रथम विश्व युद्ध, उस्मानी साम्राज्य के विघटन और इस्लामी भूमियों के अतिक्रमण का कारण बना। उस्मानी साम्राज्य का कुछ भाग, जो उस समय भी अपने शासकों की तानाशाही को सहन कर रहा था, इस बार नए प्रकार के अत्याचार का शिकार हुआ।
इस्लामी जगत का यह भाग छोटे-छोटे देशों में विभाजित होकर अलग हो गया और ब्रिटेन तथा फ्रांस के बीच बंट गए। ब्रिटेन और फ्रांस ने, जो उस समय एकल इस्लामी सरकार के गठन से भयभीत थे, उन्होंने विदित रूप में इन देशों को राजनीतिक स्वतंत्रता प्रदान की किंतु वहां पर एसे लोगों को लाकर थोप दिया जो उनके हितों की देखभाल करते थे। इस प्रकार से ब्रिटेन और फ्रांस ने सीधे तौर पर नहीं बल्कि इन्डायरेक्ट वे में इन देशों को अपने ही नियंत्रण में रखा। इस दौरान मिस्र, ब्रिटेन के वर्चस्व में चला गया जो क्षेत्रीय देशों में विशेष स्ट्रैटेजि का स्वामी था। इसी दौरान ब्रिटेन ने "बिलफोर" घोषणापत्र जारी करके फ़िलिस्तीन पर ज़ायोनियों के अतिक्रमण की भूमिका प्रशस्त की।
प्रथम विश्व युद्ध में हालांकि ईरान की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन अपनी भौगोलिक स्थिति तथा उस समय के राजाओं की अक्षमता के कारण ब्रिटेन और रूस के सैनिकों के आनेजाने का मार्ग बनकर रह गया था। इसका परिणाम यह निकला के युद्ध की समाप्ति के बाद लगभग पूरा ईरान, ब्रिटेन के अतिरक्रमण में चला गया। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के दो दशकों के बाद दुनिया, दूसरे विश्व युद्ध की साक्षी बनी। यह युद्ध लगभग 6 वर्षों तक चली। इस युद्ध के बाद विश्व में अमरीका और रूस दो महाशक्ति के रूप में उभरे जबकि इस्लामी देशों को भूख, बीमारी और विनाश का सामना करना पड़ा।
इस्लामी देशों में विदेशियों की उपस्थिति का एक परिणाम यह निकला कि इन इस्लामी देशों में कुछ संगठन और समूहों का उदय हुआ जो मार्क्सिज़म, सोश्लिज़्म, लिबरलिज़्म और इसी प्रकार के कई अन्य भौतिकवादी इज़्मों का प्रचार व प्रसार करने लगे। इन गुटों में से कुछ ने तो अपनी इस्लामी पहचान पूरी तरह से समाप्त कर दी। उनका मानना यह है कि हमको मुक्ति तो पश्चिम और पश्चिमी संस्कृति से ही मिल सकती है। इसी बीच कुछ लोग एसे भी थे जिन्होंने इस्लाम और पश्चिमी संस्कृति के बीच तालमेल बिठाने के प्रयास किये। इतना सबकुछ होते हुए मुसलमानों के बीच एसे धर्मगुरू भी थे जो शुद्ध इस्लामी शिक्षाओं के प्रचार व प्रसार को ही महत्व दिया करते थे।
इस्लामी देशों में उस दौरान कुछ समाज सुधारक पैदा हुए जिनमें से एक "सैयद जमालुद्दीन असदाबादी थे जो बहुत मश्हूर हुए। वे एक धर्मगुरू थे जिन्होंने ईरान और इराक़ में शिक्षा हासिल की थी। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय इस्लामी देशों की यात्राएं करने में गुज़ारा था जहां वे सुधार करना चाहते थे। सैयद जमालुद्दीन का हमेशा यह प्रयास रहता था कि मुसलमानों को पश्चिमी संस्कृति और उनके वर्चस्व से सुरक्षित रखा जाए। सैयद जमालुद्दीन असदाबादी ने अफ़ग़ानिस्तान में समाचारपत्र और पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। उन्होंने धार्मिक और एतिहासिक किताबें भी लिखीं। सैयद जमालुद्दीन ने भारत में भौतिकवाद और वहाबियत के विरुद्ध संघर्ष किया।
वे मिस्र में एक दल बनाने में सफल रहे थे। उन्होंने जो दल मिस्र में बनाया था वह बहुत ही कम समय में फला-फूला। इसको देखकर साम्राज्यवादी भयभीत हो गए और उन्होंने असदाबादी के दल को भंग करवाकर उनको मिस्र से निष्कासित करवा दिया। जमालुद्दीन असदाबादी ने मिस्र के भीतर बहुत से बदलाव पैदा कर दिये थे। उन्होंने उस देश में प्रचलित उस शैली को बदलवाने की बहुत कोशिश की जिसके अन्तर्गत राजाओं, महाराजाओं और धनवानों की प्रशंसा होती थी किंतु आम लोगों के बारे में कोई कुछ सोचता ही नहीं था।
ईरान में सैयद जमालुद्दीन के विचार, धर्मगुरूओं के नेतृत्व में संवैधानिक क्रांति के रूप में सामने आए। इसने कुछ समय के लिए देश में राजशाही व्यवस्था को संवैधानिक व्यवस्था में बदल दिया। इसके परिणाम स्वरूप ईरान में पहली बार राष्ट्रीय संसद का गठन किया गया। हालांकि यह संसद लोकतांत्रिक न होकर अधिकतर राजशाही थी। सन 1952 में मिस्र में जमाल अब्दुन्नासिर ने सैन्य विद्रोह करके वहां की राजशाही व्यवस्था को समाप्त कर दिया। इसी के साथ उन्होंने साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर दिया।
लंबे समय तक जमाल अब्दुन्नासिर, अरब जगत के एक ख्यातिप्राप्त नेता माने जाते थे। लेकिन बाद में मिस्र मे पेनअरबिज़्म के फैलाव और अर्थव्यवस्था में समाजवाद के झुकाव के कारण मिस्र, उस विचारधारा से दूर होता चला गया जो जमाल अब्दुन्नासिर के दृष्टिगत थी। सन 1948 में जब ज़ायोनियों से फ़िलिस्तीन की ओर रुख़ किया तो मुसलमानों ने यथासंभव इसको रोकने के प्रयास किये किंतु उस समय की अरब सरकारों की अक्षमता के कारण वे कुछ भी नहीं कर पाए। सन 1967 में मिस्र, इराक़, जार्डन और सीरिया ने एकजुट होकर इस्राईल से मुक़ाबला किया किंतु इसमें उनको पराजय नसीब हुई। यह पराजय जहां पर मिस्र में जमाल अब्दुन्नासिर के पतन की भूमिका बनी वहीं पर बहुत से मुसलमानों के भीतर निराशा बैठ गई।
दोस्तो, इन्ही हालात में ईरान में एक वरिष्ठ धर्मगुरू के नेतृत्व में जनक्रांति की आवाज़, विश्वासियों के कानों में पड़ी जो क़ुम से आरंभ हुई थी। यह क्रांति उस धर्मगुरू के नेतृत्व में आरंभ हुई थी जो शुरू से अत्याचार विरोधी था। यह एसा धर्मगुरू था जिसने अपनी पूरी आयु, इस्लाम और मुसलमानों के लिए समर्पित कर दी थी। उस महान व्यक्ति का नाम था, "रूहुल्लाह मूसवी ख़ुमैनी" था जो पूरी दुनिया में आयतुल्लाह ख़ुमैनी के नाम से जाना गया।
आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने पवित्र नगरों, क़ुम और नजफ से शिक्षा हासिल की। 27 वर्ष की आयु में वे मुजतहिद बन गए थे। वे एक महान धर्मगुरू होने के साथ ही साथ बहुत बड़े संघर्षकर्ता भी थे। उन्होंने पढ़ाई के साथ ही साथ किताबें लिखने का भी काम किया और इसके अतिरिक्त आयतुल्ला ख़ुमैनी ने संघर्षकर्ता धर्मगुरूओं का भी प्रशिक्षण किया। ईरान मेंं राज करने वाले पहलवी राजा का भी उन्होंने खुलकर विरोध किया। यह वह राजशाही व्यवस्था थी जो ब्रिटेन के सहयोग से आरंभ हुई और बाद में अमरीका तथा इस्राईल के समर्थन से आगे बढ़ रही थी।
अपनी एक किताब में आयतुल्लाह खुमैनी ने लिखा है कि सारे मुसलमानों को "विलायते फ़क़ीह" का अनुसरण करना चाहिए। जिसका अर्थ है एसे वरिष्ठ धर्मगुरू का अनुसरण जो वीर हो, संघर्षकर्ता हो, और अपने समय के हालात से पूरी तरह से अवगत हो।शिया मुसलमानों के अपने समय के बहुत महान धर्मगुरू आयतुल्लाह बोरोजर्दी के स्वर्गवास के बाद लोगों का ध्यान आयतुल्लाह ख़ुमैनी की ओर गया। वे लंबे समय से अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और धर्म के प्रचार में भी आगे-आगे थे।
लोगों, विशेषकर ईरानियों के बीच वे बहुत अधिक लोकप्रिय हो चुके थे। उनके भाषण और लेख लोगों को अत्याचारी शासकों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया करते थे। वे लोगों को अच्छे भविष्य की शुभसूचना देते थे। जिस समय अरब देशों और इस्राईल के बीच छह दिवसीय युद्ध हुआ था उस समय इमाम ख़ुमैनी ने एक फ़त्वा दिया था जिसके अनुसार इस्राईल के साथ इस्लामी देशों का किसी भी प्रकार का राजनैतिक और आर्थिक संबन्ध हराम था। इसी प्रकार से उन्होंने इस्लामी जगत के लोगों से इस्राईली उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान किया था।
इमाम ख़ुमैनी ने बाद में एक अन्य फतवा जारी किया जिसके अनुसार ईरानियों से कहा गया था कि वे अपनी ज़कात और सदक़े के पैसे को फिलिस्तीनी छापामारों को दे सकते हैं। यह पहली बार था जब किसी शिया धर्मगुरू ने इस प्रकार का फत्वा दिया था। स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में फरवरी 1979 को ईरान में इस्लामी क्रांति सफल हुई थी। इस क्रांति ने दुनिया भर के मुसलमानों के दिलों में आशा की किरण पैदा कर दी थी।
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के साथ ही पूरे विश्व में फैले शिया मुसलमानों के भीतर अपनी एक नई पहचान बनी जिसपर वे गौरव करने लगे। दुनिया के अधिकांश मुसलमानों ने इसका दिल से स्वागत किया। लेबनान के शिया मुसलमानों ने स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व को स्वीकार करते हुए एकजुट होने के प्रयास किये। बाद में वहां पर हिज़बुल्लाह के नाम से एक एसी शक्ति उभरी जिससे ज़ायोनी शासन बहुत नाराज़ है।
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद फ़िलिस्तीन में भी संघर्षकर्ता गुट उभरे। हालांकि वे सुन्नी मुसलमान हैं किंतु स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी से उनको अथाह लगाव है। इन क्रांतिकारी फ़िलिस्तीनियों ने इमाम ख़ुमैनी को अपना आदर्श बनाया। ईरान भी हर प्रकार की समस्याओं के बावजूद आरंभ से फ़िलिस्तीनियों का समर्थन करता आ रहा है।
अब हालत यह हो गई है कि पश्चिमी विचारधारा का अनुसरण करने वाले राजनीतिक टीकाकार आए दिन ईरान की इस्लामी क्रांति की विफलता के बारे में समीक्षाएं पेश करते रहते हैं। यह लोग ईरान की इस्लामी व्यवस्था को गिराने के लिए हर रोज़ कोई न कोई नया षडयंत्र भी बनाते रहते हैं किंतु एक वरिष्ठ धर्मगुरू के नेतृत्व में इस्लामी क्रांति अपने मार्ग पर अग्रसर है।
सच्चाई तो यह है कि ईरान की इस्लामी क्रांति ने पूरे विश्व को प्रभावित किया है। शायद यही कारण है कि स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ने ईरान की इस्लामी क्रांति को प्रकाश का विस्फोट बताया था जो अब चारों ओर फैल चुका है। हमको हमेशा यह बात याद रखनी है कि इस्लामी क्रांति का मूल मंत्र, एकजुटता के साथ विलायते फ़क़ीह अर्थात वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व का अनुसरण करना है। यह वह आन्दोलन है जिसने भी इसको भुला दिया या फिर जो इससे अलग हो गया वह विफल रहा। इस महान क्रांति की सुरक्षा के लिए हमने न जाने अपने कितने प्रियजनों को न्योछावर किया है। निःसन्देह हम आगे भी एसा करते रहेंगे और दूसरों को इस ईश्वराीय शैली पर चलने का निमंत्रण देते रहेंगे।