ईरान की इस्लामी क्रांति ने मुस्लिम महिलाओं को क्या दिया?
(last modified Wed, 09 Feb 2022 10:52:04 GMT )
Feb ०९, २०२२ १६:२२ Asia/Kolkata

12 बहमन वर्ष 1357 हिजरी शमसी अर्थात एक फरवरी 1979 ईसवी को इस्लमी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय हज़रत इमाम ख़ुमैनी पंद्रह साल के निर्वासन के बाद ईरान लौटे और ईरानी जनता ने उनका अभूतपूर्व और हार्दिक स्वागत किया।

ईरान की जागरूक और सचेत जनता ने स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी का इतना व्यापक और अभूतपूर्व स्वागत किया कि यहां पर यह कहा जा सकता है कि समकालीन में किसी भी देश की जनता ने अपने किसी भी पसंदीदा नेता का इस तरह स्वागत नहीं किया है।

इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद पिछले 43 वर्षों के दौरान महिलाओं की प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित किए जाने के बारे में बहुत से प्रसाए किए गये। इस्लामी क्रांति की सफलता में महिलाओं और पुरुषों का बराबरी का हिस्सा है और इस दौरान महिलाओं ने बहुत ही अहम और प्रभावी भूमिका अदा की। इस्लामी क्रांति की सफलता से पहले पश्चिम के सांस्कृतिक हमलों की वजह से महिलाओं पर ललचाई नज़रों से देखा जाता था और महिलाओं को एक साधन और हथकंडे के रूप में प्रयोग किया जाता था, महिलाओं की सारी विशेषताओं और इंसानियत की धज्जियां उड़ा दी गयी थीं और महिला होना एक बुरी चीज़ समझा जाने लगा था।

 जिस तरह से पश्चिमी समाज में महिलाओं को एक साधन और वस्तु के रूप में देखा जाता था, यही चीज़ धीरे धीरे ईरान पहुंचने लगी थी जिसकी वजह से महिलाओं की पहचान धूमिल हो गयी थी और शाही शासन में महिला होना एक अपराध समझा जाता था। यह चीज़ 19वीं सदी से शुरु हुई और पश्चिम में विज्ञान और तकनीक में प्रगति की वजह से पूरे समाज पर भौतिकवाद का राज हो गया और सेक्युलरिज़्म नामक विचारधार ने अपनी जड़ें मज़बूत करना शुरु कर दीं। सेक्युलरिज़्म धर्म को जीवन और राजनीति से अलग समझता है और धर्म पर अमल और धर्म के बारे में सोच विचार को ज़्यादा महत्व नहीं देता।

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सेक्युलरिज़्म और सांस्कृतिक विचारधारा 19वीं शताब्दी के अंत में और बीसवीं शताब्दी के आरंभ में पश्चिम के पूंजीवादियों की सहायता से मुस्लिम देशों तक पहुंचाई गयी, इस विचारधारा में विकास और नवीनीकरण को भी जगह दी गयी। उसके बाद से यूरोप और अमरीका, मुस्लिम देशों के विकास और प्रगति के नमूने के तौर पर पेश होने लगे और धर्म को किनारे लगा दिया गया था। इसी वजह से ईरान में शाही सरकार जैसी बहुत सी सरकारों ने माडर्लिज्म की ओर क़दम बढ़ा दिया और इस चीज़ ने महिला और परिवार व्यवस्था पर सामूहिक और व्यवक्तिगत रूप से बहुत असर डाला।

उस समय के ईरान के राजा रज़ा ख़ान ने जो वास्तव में साम्राज्यवादियों का नौकर था, देश को नवीनीकरण के मार्ग पर लाने के लिए महिलाओं को पर्दा न करने का आदेश जारी किया। उस समय तक ईरानी महिला समाज में पूरे पर्दे के साथ उपस्थित होती थीं और तब पुलिस के बेंत और लाठियों से उनके सिरों से पर्दे छीन लिए गये और उनको बेपर्दा कर दिया गया। शाह को काफ़ी पढ़ा लिया और जानकारियां रखता था लेकिन उसको यह वास्तविकता समझ में नहीं आई कि ईरान का धार्मिक, सांस्कृतिक, एतिहासिक और सामाजिक आधार, इस्लाम धर्म की सर्वोच्च शिक्षाओं पर रखा हुआ है और महिलाओं से पर्दे को छीन लेना, समस्याओं के पैदा होने का कारण बनेगा।

यह समस्या इतनी ज़्यादा बढ़ गयी कि बहुत से पर्देदार महिलाएं अपने पर्दे और हेजाब की रक्षा करते हुए घरों में ही क़ैद होकर रह गयी और उन्होंने कई साल घर के बाहर क़दम ही नहीं रखा। ब्रिटिश सैनिकों द्वारा रज़ा शाह के हटाए जाने के बाद मुहम्मद रज़ा शाह ने भी अपने बाप के रास्ते पर ही चलने का फ़ैसला किया। उसने महिलाओं के कपड़ों में सुधार और पुरुषों के साथ महिलाओं के बर्ताव जैसे कई क्षेत्रों में सुधार के प्रयास किए, यहां तक कि सरकार और ग़ैर सरकारी स्तरों पर इस मामले पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाने लगा। दूसरे शब्दों में यूं कहा जा सकता है कि एक विशेष नीति के अंतर्गत महिलाओं के हिजाब को एक बुरी चीज़ के तौर पर दिखाने का प्रयास किया और इसके विपरीत पुरुषों के साथ कड़ाई भी करत था।

देश की पहली हस्ती के रूप में ईरान का शाह ख़ुद भी महिलाओं को एक साधन या वस्तु के रूप में देखता था और महिलाओं को नीच नज़र से देखने और चरित्रहीन के रूप में मशहूर था। इतिहास लिखने वालों ने शाह के भ्रष्टाचार और उसकी काली करतूतों से पर्दा उठाया। इसकी एक मिसाल, शाही गार्ड और शाह की रक्षक दस्ते का प्रमुख अली शहबाज़ी अपनी डायरी में शाह की चरित्रहीनता के बारे में लिखता है कि जब अलम मंत्री बनी तो उन्होंने अपने मंत्रालय में शाह के मनोरंजन के लिए एक विशेष कार्यक्रम बनाया था, उनका यह काम था कि वह शादी शुदा महिलाओं, सुन्दर लड़िकयों और पद की चाह रखने वाली औरतों को शाह के लिए लाती थीं।    

 

इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी शाही काल में महिलाओं की मज़लूमी के बारे में कहते हैं कि महिलाएं दो चरणों में मलज़ूल रही हैं, एक अज्ञानता के काल में जब इस्लाम धर्म ने मानवता पर एसान किया और महिलाओं को उसकी मज़लूमी से बाहर निकाला। दूसरा चरण हमारे ईरान में, महिलाएं मज़लूम हुईं, वह पहले और बाद वाले शाहों का काल था, उन्होंने महिलाओं पर ज़ुल्म की इंतेहा कर दी, महिलाओं पर तरह तरह से ज़ुल्म ढाएं, महिलाओं को उसकी प्रतिष्ठा और इज़्ज़त की जगह से उतार दिया, अध्यात्मिक जगह से संपन्न महिला को नीचे गिरा दिया और आज़ादी, महिलाओं की आज़ादी और पुरुषों की आज़ादी के नाम पर महिलाओं और पुरुषों दोनों से ही आज़ादी छीन ली और हमारे युवाओं को पथभ्रष्ट और गुमराह कर दिया।

इस्लामी समाज में महिलाओं के स्थान और उसकी पहचान का मापदंड, एकेश्वरवादी विचारधारा के आधार पर है। इस नज़रिए में महिलाओं को काम, पति, पढ़ाई लिखाई और अन्य कामों का चयन करने की पूरी आज़ादी है, जो चीज़ महिलाओं को उनकी पहचान दिलाती है वह समाज और पीढ़ी के प्रशिक्षण में उसकी भूमिका है। मातृत्व की भूमिका, ईश्वरीय दूतों की भूमिका रही है, संतानों के प्रशिक्षण में मां का बहुत ज़्यादा धैर्य और उसकी अथक मेहनत, हमको मानवता के मार्ग में नबियों और ईश्वरीय दूतों के प्रयासों की याद दिलाता है।

यहां पर ध्यान योग्य बिन्दु यह है कि इस्लामी क्रांति पूर्ण रूप से धार्मिक क्रांति थी जिसने इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में धार्मिक मूल्यों की पुनर्जीवित करने, विदेशियों पर बिना किसी निर्भरता और पूरब की साम्राज्यवादी नीतियों की निंदा के नारों के साथ सफल हुई। इस्लामी क्रांति दुनिया में दो ध्रुवीय व्यवस्था के समीकरणो के विपरीत सफल हुई और उसने मध्यपूर्व में अमरीका की विस्तारवादी नीतियों को भारी नुक़सान पहुंचाया। अमरीका के प्रभाव से ईरान के निकलने के कारण अमरीका ने ईरान के विरुद्ध हर प्रकार की राजनैतिक, आर्थिक व सैनिक शैलियों का प्रयास किया। विद्रोह के लिए प्रयास, सीमावर्ती प्रांतों में अलगावादी गुटों का समर्थन, आर्थिक प्रतिबंध, आठ वर्षीय थोपा गया युद्ध और इराक़ के बासी शासन द्वारा ईरान को तबाह करने की योजना,  वह कार्यवाहियां थी जो ईरान की नवआधार इस्लामी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए अमरीका ने अंजाम दी थीं किन्तु ईरानी राष्ट्र और सरकार ने समस्त क्रांतियों के विपरीत इन समस्त षड्यंत्रों को विफल बनाकर अल्पावधि में अपनी व्यवस्था को बहुत अधिक मज़बूत बना लिया और राजनैतिक, मानवीय, विज्ञान, अर्थव्यवस्था, सामाजिक, सांस्कृतिक सुरक्षा और प्रतिरक्षा के क्षेत्रों में आश्चर्यजनक प्रगतियां की हैं।

 

इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी ख़ुद भी वरिष्ठ धर्मगुरु थे और वह यह जानते थे कि महिलाओं को किस तरह विकास के मार्ग पर अग्रसर किया जाए या धार्मिक दृष्टि से उनका क्या महत्व है और उनको इस्लाम धर्म कितनी अहमियत देता है। उनका यह ख़याल था कि महिला का अपना सज्जनता, प्रतिष्ठा और इज़्ज़त का एक ख़ास स्थान है, महिला अध्यात्म के सर्वोच्च स्थान तक पहुंच सकती है और साथ ही वैज्ञानिक, शैक्षिक, राजनैतिक और सामाजिक गतिविधियां भी अंजाम दे सकती है।  इमाम ख़ुमैनी का मानना था कि इस्लाम की मूल्यवान नज़र में, इंसान का लक्ष्य, चाहे महिला हो या पुरुष, ईश्वर का सामिप्य हासिल करना है और इस प्रकार महिलाओं के लिए ईश्वर की बंदगी और उसकी उपासना, कारण बनती है कि वह ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करे और उच्च स्थान हासिल करे।

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह अपने मूल्यवान बयान में कहते हैं कि महिला इंसान है और वह भी एक महान इंसान, महिला समाज की प्रशिक्षणकर्ता होती है, महिलाओं के दामन से इंसान पैदा होते हैं, देशों का कल्याण और उसका दुर्भाग्य महिलाओं के अस्तित्व पर निर्भर है, महिला अपने अच्छे प्रशिक्षण से सही इंसान पैदा करती है और अपने सही प्रशिक्षण से देश को आबाद करती है।

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह अपने एक कथन में महिलाओं के संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम के सुन्दर बर्ताव और महिलाओं के बारे में इस्लाम के नज़रिए को बयान करते हुए कहते हैं कि इतिहास गवाह है कि पैग़म्बरे इस्लाम अपनी पुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) का बहुत अधिक सम्मान करते थे ताकि दुनिया को यह बताएं कि महिला, समाज में एक विशेष स्थान रखती है और यह अगर पुरुषों से महान नहीं है तो कम भी नहीं है।

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